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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
आईएसबीएन :0

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

जनक-वसिष्ठादि-संवाद



प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहि बिधि बाम ॥२९०॥

हे राम! तुम प्राणोंके भी प्राण, आत्माके भी आत्मा और सुखके भी सुख हो। हे तात! तुम्हें छोड़कर जिन्हें घर सुहाता है, उन्हें विधाता विपरीत है।। २९०॥

सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ।
जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू।
जहँ नहिं राम पेम परधानू॥

जहाँ श्रीरामके चरणकमलोंमें प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाय। जिसमें श्रीरामप्रेमकी प्रधानता नहीं है, वह योग कुयोग है और वह ज्ञान अज्ञान है॥१॥

तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं।
तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं॥
राउर आयसु सिर सबही कें।
बिदित कृपालहि गति सब नीकें।


तुम्हारे बिना ही सब दुःखी हैं और जो सुखी हैं वे तुम्हींसे सुखी हैं। जिस किसीके जीमें जो कुछ है तुम सब जानते हो। आपकी आज्ञा सभीके सिरपर है।
कृपालु (आप) को सभीकी स्थिति अच्छी तरह मालूम है।। २।।।

आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ।
भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ॥
करि प्रनामु तब रामु सिधाए।
रिषि धरि धीर जनक पहिं आए।


अत: आप आश्रमको पधारिये। इतना कह मुनिराज स्नेहसे शिथिल हो गये। तब श्रीरामजी प्रणाम करके चले गये और ऋषि वसिष्ठजी धीरज धरकर जनकजीके पास आये॥३॥

राम बचन गुरु नृपहि सुनाए।
सील सनेह सुभायँ सुहाए।
महाराज अब कीजिअ सोई।
सब कर धरम सहित हित होई॥


गुरुजीने श्रीरामचन्द्रजीके शील और स्नेहसे युक्त स्वभावसे ही सुन्दर वचन राजा जनकजीको सुनाये [और कहा-] हे महाराज! अब वही कीजिये जिसमें सबका धर्मसहित हित हो॥४॥

ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल॥२९१॥


हे राजन् ! तुम ज्ञानके भण्डार, सुजान, पवित्र और धर्ममें धीर हो। इस समय तुम्हारे बिना इस दुविधाको दूर करनेमें और कौन समर्थ है ? ॥ २९१ ॥

सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे।
लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे॥
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं।
आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं।।


मुनि वसिष्ठजीके वचन सुनकर जनकजी प्रेममें मग्न हो गये। उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्यको भी वैराग्य हो गया (अर्थात् उनके ज्ञान-वैराग्य छूट-से गये)। वे प्रेमसे शिथिल हो गये और मनमें विचार करने लगे कि हम यहाँ आये, यह अच्छा नहीं किया॥१॥

रामहि रायँ कहेउ बन जाना।
कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना॥
हम अब बन तें बनहि पठाई।
प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई।


राजा दशरथजी ने श्रीरामजी को वन जाने के लिये कहा और स्वयं अपने प्रिय के प्रेम को प्रमाणित (सच्चा) कर दिया (प्रियवियोगमें प्राण त्याग दिये)। परन्तु हम अब इन्हें वनसे [और गहन] वनको भेजकर अपने विवेक की बड़ाई में आनन्दित होते हुए लौटेंगे[कि हमें जरा भी मोह नहीं है; हम श्रीरामजी को वनमें छोड़कर चले आये, दशरथजी की तरह मरे नहीं!] ॥ २॥

तापस मुनि महिसुर सुनि देखी।
भए प्रेम बस बिकल बिसेषी॥
समउ समुझि धरि धीरजु राजा।
चले भरत पहिं सहित समाजा॥


तपस्वी, मुनि और ब्राह्मण यह सब सुन और देखकर प्रेमवश बहुत ही व्याकुल हो गये। समय का विचार करके राजा जनकजी धीरज धरकर समाजसहित भरतजी के पास चले ॥३॥

भरत आइ आगे भइ लीन्हे।
अवसर सरिस सुआसन दीन्हे॥
तात भरत कह तेरहुति राऊ।
तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ॥


भरतजीने आकर उन्हें आगे होकर लिया (सामने आकर उनका स्वागत किया) और समयानुकूल अच्छे आसन दिये। तिरहुतराज जनकजी कहने लगे हे तात भरत! तुमको श्रीरामजीका स्वभाव मालूम ही है ॥ ४॥

राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु।
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु॥२९२।।


श्रीरामचन्द्रजी सत्यव्रती और धर्मपरायण हैं, सबका शील और स्नेह रखनेवाले हैं। इसीलिये वे संकोचवश संकट सह रहे हैं; अब तुम जो आज्ञा दो, वह उनसे कही जाय।। २९२॥

सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी।
बोले भरतु धीर धरि भारी॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥


भरतजी यह सुनकर पुलकितशरीर हो नेत्रोंमें जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले-हे प्रभो! आप हमारे पिताके समान प्रिय और पूज्य हैं। और कुलगुरु श्रीवसिष्ठजीके समान हितैषी तो माता-पिता भी नहीं हैं ॥१॥

कौसिकादि मुनि सचिव समाजू।
ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू॥
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी।
जानि मोहि सिख देइअ स्वामी।


विश्वामित्रजी आदि मुनियों और मन्त्रियोंका समाज है। और आजके दिन ज्ञानके समुद्र आप भी उपस्थित हैं। हे स्वामी! मुझे अपना बच्चा, सेवक और आज्ञानुसार चलनेवाला समझकर शिक्षा दीजिये ॥२॥

एहिं समाज थल बूझब राउर।
मौन मलिन मैं बोलब बाउर॥
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता।
छमब तात लखि बाम बिधाता।


इस समाज और [पुण्य] स्थलमें आप [जैसे ज्ञानी और पूज्य] का पूछना ! इसपर यदि मैं मौन रहता हूँ तो मलिन समझा जाऊँगा; और बोलना पागलपन होगा तथापि मैं छोटे मुँह बड़ी बात कहता हूँ। हे तात ! विधाताको प्रतिकूल जानकर क्षमा कीजियेगा ॥३॥

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना।
सेवाधरमु कठिन जगु जाना॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू।
बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू।।


वेद, शास्त्र और पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत् जानता है कि सेवाधर्म बड़ा कठिन है। स्वामिधर्ममें (स्वामीके प्रति कर्तव्यपालनमें) और स्वार्थमें विरोध है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते)। वैर अंधा होता है और प्रेमको ज्ञान नहीं रहता [मैं स्वार्थवश कहूँगा या प्रेमवश, दोनोंमें ही भूल होनेका भय है] ॥४॥

राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब के संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि॥२९३॥


अतएव मुझे पराधीन जानकर (मुझसे न पूछकर) श्रीरामचन्द्रजीके रुख (रुचि), धर्म और [सत्यके] व्रतको रखते हुए, जो सबके सम्मत और सबके लिये हितकारी हो आप सबका प्रेम पहचानकर वही कीजिये।। २९३ ॥

भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ।
सहित समाज सराहत राऊ॥
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे।
अरथु अमित अति आखर थोरे॥


भरतजीके वचन सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाजसहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे। भरतजीके वचन सुगम और अगम, सुन्दर, कोमल और कठोर हैं। उनमें अक्षर थोड़े हैं, परन्तु अर्थ अत्यन्त अपार भरा हुआ है ॥१॥

ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी।
गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥
भूप भरतु मुनि सहित समाजू।
गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू।

जैसे मुख [का प्रतिबिम्ब] दर्पणमें दीखता है और दर्पण अपने हाथमें है, फिर भी वह (मुखका प्रतिबिम्ब) पकड़ा नहीं जाता, इसी प्रकार भरतजीकी यह अद्भुत वाणी भी पकड़में नहीं आती (शब्दोंसे उसका आशय समझमें नहीं आता)। [किसीसे कुछ उत्तर देते नहीं बना] तब राजा जनकजी, भरतजी तथा मुनि वसिष्ठजी समाजके साथ वहाँ गये जहाँ देवतारूपी कुमुदोंके खिलानेवाले (सुख देनेवाले) चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी थे॥२॥

सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा।
मनहुँ मीनगन नव जल जोगा॥
देव प्रथम कुलगुर गति देखी।
निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥


यह समाचार सुनकर सब लोग सोच से व्याकुल हो गये; जैसे नये (पहली वर्षाके) जलके संयोग से मछलियाँ व्याकुल होती हैं। देवताओं ने पहले कुलगुरु वसिष्ठजीकी [प्रेमविह्वल] दशा देखी, फिर विदेहजी के विशेष स्नेह को देखा;॥३॥

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