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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

दशरथ-कैकेयी-संवाद और दशरथ-शोक, सुमन्त्र का महल में जाना और वहाँ से लौटकर श्रीरामजी को महल में भेजना



अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा।
केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
कहु केहि रंकहि करौं नरेसू।
कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥


हे प्रिये! किसने तेरा अनिष्ट किया? किसके दो सिर हैं? यमराज किसको लेना (अपने लोकको ले जाना) चाहते हैं ? कह, किस कंगालको राजा कर दूं या किस राजाको देशसे निकाल दूँ॥१॥

सकउँ तोर अरि अमरउ मारी।
काह कीट बपुरे नर नारी॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू।
मनु तव आनन चंद चकोरू।


तेरा शत्रु अमर (देवता) भी हो, तो मैं उसे भी मार सकता हूँ। बेचारे कीड़े मकोड़े-सरीखे नर-नारी तो चीज ही क्या हैं। हे सुन्दरि! तू तो मेरा स्वभाव जानती ही है कि मेरा मन सदा तेरे मुखरूपी चन्द्रमाका चकोर है॥२॥

प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें।
परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
जौँ कछु कहौं कपटु करि तोही।
भामिनि राम सपथ सत मोही॥


हे प्रिये! मेरी प्रजा, कुटुम्बी, सर्वस्व (सम्पत्ति), पुत्र, यहाँतक कि मेरे प्राण भी, ये सब तेरे वशमें (अधीन) हैं। यदि मैं तुझसे कुछ कपट करके कहता होऊँ तो हे भामिनी! मुझे सौ बार रामकी सौगंध है।॥ ३॥

बिहसि मागु मनभावति बाता।
भूषन सजहि मनोहर गाता॥
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू।
बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥


तू हँसकर (प्रसन्नतापूर्वक) अपनी मनचाही बात माँग ले और अपने मनोहर अंगोंको आभूषणोंसे सजा। मौका-बेमौका तो मनमें विचारकर देख। हे प्रिये! जल्दी इस बुरे वेषको त्याग दे॥४॥

दो०- यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥२६॥


यह सुनकर और मनमें रामजीकी बड़ी सौगंधको विचारकर मन्दबुद्धि कैकेयी हँसती हुई उठी और गहने पहनने लगी; मानो कोई भीलनी मृगको देखकर फंदा तैयार कर रही हो!॥२६॥

पुनि कह राउ सुहद जियँ जानी।
प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा।
घर घर नगर अनंद बधावा।


अपने जीमें कैकेयी को सुहृद् जानकर राजा दशरथजी प्रेमसे पुलकित होकर कोमल और सुन्दर वाणीसे फिर बोले-हे भामिनि! तेरा मनचीता हो गया। नगरमें घर-घर आनन्द के बधावे बज रहे हैं॥१॥

रामहि देउँ कालि जुबराजू।
सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
दलकि उठेउ सुनि हृदउ कठोरू।
जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥


मैं कल ही राम को युवराज-पद दे रहा हूँ। इसलिये हे सुनयनी! तू मङ्गल साज सज। यह सुनते ही उसका कठोर हृदय दलक उठा (फटने लगा)। मानो पका हुआ बालतोड़ (फोड़ा) छू गया हो॥२॥

ऐसिउ पीर बिहसि तेहिं गोई।
चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई।
कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥


ऐसी भारी पीड़ाको भी उसने हँसकर छिपा लिया, जैसे चोर की स्त्री प्रकट होकर नहीं रोती (जिसमें उसका भेद न खुल जाय)। राजा उसकी कपट-चतुराई को नहीं लख रहे हैं। क्योंकि वह करोड़ों कुटिलोंकी शिरोमणि गुरु मन्थरा की पढ़ायी हुई है।॥३॥

जद्यपि नीति निपुन नरनाहू।
नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी।
बोली बिहसि नयन मुह मोरी॥


यद्यपि राजा नीतिमें निपुण हैं; परन्तु त्रियाचरित्र अथाह समुद्र है। फिर वह कपटयुक्त प्रेम बढ़ाकर (ऊपरसे प्रेम दिखाकर) नेत्र और मुँह मोड़कर हँसती हुई बोली--॥४॥
 
दो०- मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥२७॥


हे प्रियतम! आप माँग-माँग तो कहा करते हैं, पर देते-लेते कभी कुछ भी नहीं। आपने दो वरदान देनेको कहा था, उनके भी मिलने में सन्देह है।। २७॥

जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई।
तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।
थाती राखि न मागिहु काऊ।
बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥


राजाने हँसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म (मतलब) समझा। मान करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरोंको थाती (धरोहर) रखकर फिर कभी माँगा ही नहीं और मेरा भूलनेका स्वभाव होनेसे मुझे भी वह प्रसङ्ग याद नहीं रहा॥१॥

झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू।
दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥


मुझे झूठ-मूठ दोष मत दो। चाहे दोके बदले चार माँग लो। रघुकुलमें सदासे यही रीति चली आयी है कि प्राण भले ही चले जायें, पर वचन नहीं जाता॥२॥

नहिं असत्य सम पातक पुंजा।
गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए।
बेद पुरान बिदित मनु गाए।


असत्यके समान पापोंका समूह भी नहीं है। क्या करोड़ों धुंधचियाँ मिलकर भी कहीं पहाड़के समान हो सकती हैं। 'सत्य' ही समस्त उत्तम सुकृतों (पुण्यों) की जड़ है। यह बात वेद-पुराणोंमें प्रसिद्ध है और मनुजीने भी यही कहा है॥३॥

तेहि पर राम सपथ करि आई।
सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली।
कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।


उसपर मेरे द्वारा श्रीरामजीकी शपथ करने में आ गयी (मुँहसे निकल पड़ी)। श्रीरघुनाथजी मेरे सुकृत (पुण्य) और स्नेहकी सीमा हैं। इस प्रकार बात पक्की कराके दुर्बुद्धि कैकेयी हँसकर बोली, मानो उसने कुमत (बुरे विचार) रूपी दुष्ट पक्षी (बाज) [को छोड़नेके लिये उस] की कुलही (आँखोंपरकी टोपी) खोल दी॥४॥

दो०- भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लिनि जिमि छाड्न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥२८॥


राजाका मनोरथ सुन्दर वन है, सुख सुन्दर पक्षियोंका समुदाय है। उसपर भीलनीकी तरह कैकेयी अपना वचनरूपी भयंकर बाज छोड़ना चाहती है॥२८॥


मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम।


सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का।
देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी।
पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥


[वह बोली-] हे प्राणप्यारे! सुनिये, मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिये, भरतको राजतिलक; और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ जोड़कर माँगती हूँ, मेरा मनोरथ पूरा कीजिये--॥१॥

तापस बेष बिसेषि उदासी।
चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू।
ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥

तपस्वियोंके वेषमें विशेष उदासीन भावसे (राज्य और कुटुम्ब आदिकी ओरसे भलीभाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियोंकी भाँति) राम चौदह वर्षतक वनमें निवास करें। कैकेयीके कोमल (विनययुक्त) वचन सुनकर राजाके हृदयमें ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमाकी किरणोंके स्पर्शसे चकवा विकल हो जाता है॥२॥

गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा।
जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू।
दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥


राजा सहम गये, उनसे कुछ कहते न बना, मानो बाज वनमें बटेरपर झपटा हो। राजाका रंग बिलकुल उड़ गया, मानो ताड़के पेड़को बिजलीने मारा हो (जैसे ताड़के पेड़पर बिजली गिरनेसे वह झुलसकर बदरंगा हो जाता है, वही हाल राजाका हुआ)॥३॥

माथें हाथ मूदि दोउ लोचन।
तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला।
फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥


माथेपर हाथ रखकर, दोनों नेत्र बंद करके राजा ऐसे सोच करने लगे, मानो साक्षात् सोच ही शरीर धारणकर सोच कर रहा हो। [वे सोचते हैं--हाय!] मेरा मनोरथरूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था, परन्तु फलते समय कैकेयीने हथिनीकी तरह उसे जड़समेत उखाड़कर नष्ट कर डाला॥ ४॥

अवध उजारि कीन्हि कैकेईं।
दीन्हिसि अचल बिपति कै नेईं।


कैकेयी ने अयोध्या को उजाड़ कर दिया और विपत्ति की अचल (सुदृढ़) नींव डाल दी॥५॥

दो०- कवने अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥ २९॥


किस अवसरपर क्या हो गया! स्त्रीका विश्वास करके मैं वैसे ही मारा गया, जैसे योगकी सिद्धिरूपी फल मिलनेके समय योगीको अविद्या नष्ट कर देती है॥ २९॥

एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा।
देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
भरतु कि राउर पूत न होंही।
आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥


इस प्रकार राजा मन-ही-मन झीख रहे हैं। राजाका ऐसा बुरा हाल देखकर दुर्बुद्धि कैकेयी मनमें बुरी तरहसे क्रोधित हुई। [और बोली-] क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं ? क्या मुझे आप दाम देकर खरीद लाये हैं ? (क्या मैं आपकी विवाहिता पत्नी नहीं हूँ?)॥१॥

जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें।
काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं।
सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।


जो मेरा वचन सुनते ही आपको बाण-सा लगा तो आप सोच-समझकर बात क्यों नहीं कहते? उत्तर दीजिये-हाँ कीजिये, नहीं तो नाहीं कर दीजिये। आप रघुवंशमें सत्य प्रतिज्ञावाले [प्रसिद्ध] हैं !॥२॥

देन कहेहु अब जनि बरु देहू।
तजहु सत्य जग अपजसु लेहू॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना।
जानेहु लेइहि मागि चबेना॥


आपने ही वर देनेको कहा था, अब भले ही न दीजिये। सत्यको छोड़ दीजिये और जगत्में अपयश लीजिये। सत्यकी बड़ी सराहना करके वर देनेको कहा था। समझा था कि यह चबेना ही माँग लेगी!॥३॥

सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा।
तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
अति कटु बचन कहति कैकेई।
मानहुँ लोन जरे पर देई॥


राजा शिबि, दधीचि और बलिने जो कुछ कहा, शरीर और धन त्यागकर भी उन्होंने अपने वचनकी प्रतिज्ञाको निबाहा। कैकेयी बहुत ही कड़वे वचन कह रही है, मानो जलेपर नमक छिड़क रही हो॥४॥
 
दो०- धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे राय।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥३०॥


धर्मकी धुरीको धारण करनेवाले राजा दशरथने धीरज धरकर नेत्र खोले और सिर धुनकर तथा लंबी साँस लेकर इस प्रकार कहा कि इसने मुझे बड़े कुठौर मारा (ऐसी कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर दी, जिससे बच निकलना कठिन हो गया)॥ ३०॥

आगे दीखि जरत रिस भारी।
मनहुँ रोष तरवारि उधारी॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई।
धरी कूबरी सान बनाई॥

प्रचण्ड क्रोधसे जलती हुई कैकेयी सामने इस प्रकार दिखायी पड़ी, मानो क्रोधरूपी तलवार नंगी (म्यानसे बाहर) खड़ी हो। कुबुद्धि उस तलवारकी मूठ है, निष्ठुरता धार है और वह कुबरी (मन्थरा) रूपी सानपर धरकर तेज की हुई है॥१॥

लखी महीप कराल कठोरा।
सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥
बोले राउ कठिन करि छाती।
बानी सबिनय तासु सोहाती॥


राजाने देखा कि यह (तलवार) बड़ी ही भयानक और कठोर है [और सोचा-] क्या सत्य ही यह मेरा जीवन लेगी? राजा अपनी छाती कड़ी करके, बहुत ही नम्रताके साथ उसे (कैकेयीको) प्रिय लगनेवाली वाणी बोले-॥२॥

प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती।
भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी।
सत्य कहउँ करि संकरु साखी॥


हे प्रिये! हे भीरु ! विश्वास और प्रेमको नष्ट करके ऐसे बुरी तरहके वचन कैसे कह रही हो। मेरे तो भरत और रामचन्द्र दो आँखें (अर्थात् एक-से) हैं; यह मैं शङ्करजीकी साक्षी देकर सत्य कहता हूँ॥३॥

अवसि दूतु मैं पठइब प्राता।
ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई।
देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।


मैं अवश्य सबेरे ही दूत भेजूंगा। दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) सुनते ही तुरंत आ जायँगे। अच्छा दिन (शुभ मुहूर्त) शोधवाकर, सब तैयारी करके डंका बजाकर मैं भरतको राज्य दे दूंगा।। ४॥

दो०- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥३१॥

रामको राज्यका लोभ नहीं है और भरतपर उनका बड़ा ही प्रेम है। मैं ही अपने मनमें बड़े-छोटेका विचार करके राजनीतिका पालन कर रहा था (बड़ेको राजतिलक देने जा रहा था)॥ ३१॥

राम सपथ सत कहउँ सुभाऊ।
राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछे।
तेहि तें परेउ मनोरथु छूछे।


रामकी सौ बार सौगंध खाकर मैं स्वभावसे ही कहता हूँ कि रामकी माता (कौसल्या) ने [इस विषयमें] मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। अवश्य ही मैंने तुमसे बिना पूछे यह सब किया। इसीसे मेरा मनोरथ खाली गया॥१॥

रिस परिहरु अब मंगल साजू।
कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा।
बर दूसर असमंजस मागा।।


अब क्रोध छोड़ दे और मङ्गल साज सजा। कुछ ही दिनों बाद भरत युवराज हो जायेंगे। एक ही बातका मुझे दुःख लगा कि तूने दूसरा वरदान बड़ी अड़चनका माँगा॥२॥

अजहूँ हृदउ जरत तेहि आँचा।
रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा।
कहु तजि रोषु राम अपराधू।
सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥


उसकी आँचसे अब भी मेरा हृदय जल रहा है। यह दिल्लगीमें, क्रोधमें अथवा सचमुच ही (वास्तवमें) सच्चा है? क्रोधको त्यागकर रामका अपराध तो बता। सब कोई तो कहते हैं कि राम बड़े ही साधु हैं॥३॥

तुहूँ सराहसि करसि सनेहू।
अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला।
सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥


तू स्वयं भी रामकी सराहना करती और उनपर स्नेह किया करती थी। अब यह सुनकर मुझे सन्देह हो गया है [कि तुम्हारी प्रशंसा और स्नेह कहीं झूठे तो न थे?] जिसका स्वभाव शत्रुको भी अनुकूल है, वह माताके प्रतिकूल आचरण क्योंकर करेगा?॥४॥

दो०- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
जेहिं देखौं अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥३२॥

हे प्रिये! हँसी और क्रोध छोड़ दे और विवेक (उचित-अनुचित) विचारकर वर माँग, जिससे अब मैं नेत्र भरकर भरतका राज्याभिषेक देख सकूँ।। ३२॥

जिऐ मीन बरु बारि बिहीना।
मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं।
जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥

मछली चाहे बिना पानीके जीती रहे और साँप भी चाहे बिना मणिके दीन दु:खी होकर जीता रहे। परन्तु मैं स्वभावसे ही कहता हूँ, मनमें [जरा भी] छल रखकर नहीं कि मेरा जीवन रामके बिना नहीं है॥१॥

समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना।
जीवनु राम दरस आधीना॥
सुनि मृदु बचन कुमति अति जरई।
मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥


हे चतुर प्रिये! जीमें समझ देख, मेरा जीवन श्रीरामके दर्शनके अधीन है। राजाके कोमल वचन सुनकर दुर्बुद्धि कैकेयी अत्यन्त जल रही है। मानो अग्निमें घीकी आहुतियाँ पड़ रही हैं॥२॥

कहइ करहु किन कोटि उपाया।
इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं।
मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं॥


[कैकेयी कहती है.-] आप करोड़ों उपाय क्यों न करें, यहाँ आपकी माया (चालबाजी) नहीं लगेगी। या तो मैंने जो माँगा है सो दीजिये, नहीं तो 'नाही' करके अपयश लीजिये। मुझे बहुत प्रपञ्च (बखेड़े) नहीं सुहाते॥३॥

रामु साधु तुम्ह साधु सयाने।
राममातु भलि सब पहिचाने।
जस कौसिलाँ मोर भल ताका।
तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥


राम साधु हैं, आप सयाने साधु हैं और रामकी माता भी भली हैं; मैंने सबको पहचान लिया है। कौसल्याने मेरा जैसा भला चाहा है, मैं भी साका करके (याद रखनेयोग्य) उन्हें वैसा ही फल दूंगी॥४॥

दो०- होत प्रातु मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥३३॥


सबेरा होते ही मुनिका वेष धारणकर यदि राम वन को नहीं जाते, तो हे राजन्! मनमें [निश्चय] समझ लीजिये कि मेरा मरना होगा और आपका अपयश!॥३३॥

अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी।
मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी।
पाप पहार प्रगट भइ सोई।
भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥


ऐसा कहकर कुटिल कैकेयी उठ खड़ी हुई, मानो क्रोधकी नदी उमड़ी हो। वह नदी पापरूपी पहाड़से प्रकट हुई है और क्रोधरूपी जलसे भरी है; [ऐसी भयानक है कि] देखी नहीं जाती!॥१॥

दोउ बर कूल कठिन हठ धारा।
भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला।
चली बिपति बारिधि अनुकूला।


दोनों वरदान उस नदीके दो किनारे हैं, कैकेयीका कठिन हठ ही उसकी [तीव्र] धारा है और कुबरी (मन्थरा) के वचनोंकी प्रेरणा ही भँवर है। [वह क्रोधरूपी नदी] राजा दशरथरूपी वृक्षको जड़-मूलसे ढहाती हुई विपत्तिरूपी समुद्रकी ओर [सीधी] चली है॥२॥

लखी नरेस बात फुरि साँची।तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥


राजाने समझ लिया कि बात सचमुच (वास्तवमें) सच्ची है, स्त्रीके बहाने मेरी मृत्यु ही सिरपर नाच रही है। [तदनन्तर राजाने कैकेयीके] चरण पकड़कर उसे बिठाकर विनती की कि तू सूर्यकुल [रूपी वृक्ष] के लिये कुल्हाड़ी मत बन॥३॥

मागु माथ अबहीं देउँ तोही।
राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती।
नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥


तू मेरा मस्तक माँग ले, मैं तुझे अभी दे दूँ। पर रामके विरहमें मुझे मत मार। जिस किसी प्रकारसे हो तू रामको रख ले। नहीं तो जन्मभर तेरी छाती जलेगी॥४॥

दो०-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥३४॥

राजा ने देखा कि रोग असाध्य है, तब वे अत्यन्त आर्तवाणीसे 'हा राम! हा राम! हा रघुनाथ!' कहते हुए सिर पीटकर जमीनपर गिर पड़े॥३४॥

ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता।
करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
कंठु सूख मुख आव न बानी।
जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥


राजा व्याकुल हो गये, उनका सारा शरीर शिथिल पड़ गया, मानो हथिनीने कल्पवृक्षको उखाड़ फेंका हो। कण्ठ सूख गया, मुखसे बात नहीं निकलती, मानो पानीके बिना पहिना नामक मछली तड़प रही हो॥१॥

पुनि कह कटु कठोर कैकेई।
मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ।
मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥


कैकेयी फिर कड़वे और कठोर वचन बोली, मानो घावमें जहर भर रही हो। [कहती है-] जो अन्तमें ऐसा ही करना था, तो आपने 'माँग, माँग' किस बलपर कहा था॥२॥

दुइ कि होइ एक समय भुआला।
हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई।
होइ कि खेम कुसल रौताई।


हे राजा! ठहाका मारकर हँसना और गाल फुलाना-क्या ये दोनों एक साथ हो सकते हैं? दानी भी कहाना और कंजूसी भी करना। क्या रजपूतीमें क्षेम-कुशल भी रह सकती है? (लड़ाई में बहादुरी भी दिखावें और कहीं चोट भी न लगे!)॥ ३॥

छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू।
जनि अबला जिमि करुना करहू॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी।
सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥


या तो वचन (प्रतिज्ञा) ही छोड़ दीजिये या धैर्य धारण कीजिये। यों असहाय स्त्रीकी भाँति रोइये-पीटिये नहीं। सत्यव्रतीके लिये तो शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, धन और पृथ्वी-सब तिनकेके बराबर कहे गये हैं॥४॥
 
दो०- मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥३५॥


कैकेयीके मर्मभेदी वचन सुनकर राजाने कहा कि तू जो चाहे कह, तेरा कुछ भी दोष नहीं है। मेरा काल तुझे मानो पिशाच होकर लग गया है, वही तुझसे यह सब कहला रहा है॥ ३५॥

चहत न भरत भूपतहि भोरें।
बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें।
सो सबु मोर पाप परिनामू।
भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥


भरत तो भूलकर भी राजपद नहीं चाहते। होनहारवश तेरे ही जीमें कुमति आ बसी। यह सब मेरे पापोंका परिणाम है, जिससे कुसमयमें (बेमौके) विधाता विपरीत हो गया॥१॥

सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई।
सब गुन धाम राम प्रभुताई॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई।
होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।


[तेरी उजाड़ी हुई] यह सुन्दर अयोध्या फिर भलीभाँति बसेगी और समस्त गुणोंके धाम श्रीरामकी प्रभुता भी होगी। सब भाई उनकी सेवा करेंगे और तीनों लोकोंमें श्रीरामकी बड़ाई होगी॥२॥

तोर कलंकु मोर पछिताऊ।
मुएहुँ न मिटिहि न जाइहि काऊ॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई।
लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥


केवल तेरा कलंक और मेरा पछतावा मरनेपर भी नहीं मिटेगा, यह किसी तरह नहीं जायगा। अब तुझे जो अच्छा लगे वही कर। मुँह छिपाकर मेरी आँखोंकी ओट जा बैठ (अर्थात् मेरे सामनेसे हट जा, मुझे मुंह न दिखा)॥३॥

जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी।
तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥
फिरि पछितैहसि अंत अभागी।
मारसि गाइ नहारू लागी॥


मैं हाथ जोड़कर कहता हूँ कि जबतक मैं जीता रहूँ, तबतक फिर कुछ न कहना (अर्थात् मुझसे न बोलना)। अरी अभागिनी! फिर तू अन्तमें पछतायेगी जो तू नहारू (ताँत) के लिये गायको मार रही है॥४॥

दो०- परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥३६॥


राजा करोड़ों प्रकारसे (बहुत तरहसे) समझाकर [और यह कहकर] कि तू क्यों सर्वनाश कर रही है, पृथ्वीपर गिर पड़े। पर कपट करनेमें चतुर कैकेयी कुछ बोलती नहीं, मानो [मौन होकर] मसान जगा रही हो (श्मशानमें बैठकर प्रेतमन्त्र सिद्ध कर रही हो)॥३६॥

राम राम रट बिकल भुआलू।
जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई।
रामहि जाइ कहै जनि कोई॥


राजा 'राम-राम' रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंखके बिना बेहाल हो। वे अपने हृदयमें मनाते हैं कि सबेरा न हो, और कोई जाकर श्रीरामचन्द्रजीसे यह बात न कहे॥१॥

उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर।
अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥
भूप प्रीति कैकई कठिनाई।
उभय अवधि बिधि रची बनाई॥


हे रघुकुलके गुरु (बड़ेरे मूलपुरुष) सूर्यभगवान्! आप अपना उदय न करें। अयोध्याको [बेहाल] देखकर आपके हृदयमें बड़ी पीड़ा होगी। राजाकी प्रीति और कैकेयीकी निष्ठुरता दोनोंको ब्रह्माने सीमातक रचकर बनाया है (अर्थात् राजा प्रेमकी सीमा हैं और कैकेयी निष्ठुरताकी)॥२॥

बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा।
बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक।
सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक।


विलाप करते-करते ही राजाको सबेरा हो गया। राजद्वारपर वीणा, बाँसुरी और शंखकी ध्वनि होने लगी। भाटलोग विरुदावली पढ़ रहे हैं और गवैये गुणोंका गान कर रहे हैं। सुननेपर राजाको वे बाण-जैसे लगते हैं॥३॥

मंगल सकल सोहाहिं न कैसें।
सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥
तेहि निसि नीद परी नहिं काहू।
राम दरस लालसा उछाहू।

राजाको ये सब मङ्गल-साज कैसे नहीं सुहा रहे हैं, जैसे पतिके साथ सती होनेवाली स्त्रीको आभूषण! श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकी लालसा और उत्साहके कारण उस रात्रिमें किसीको भी नींद नहीं आयी॥४॥

दो०- द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥३७॥

 
राजद्वारपर मन्त्रियों और सेवकोंकी भीड़ लगी है। वे सब सूर्यको उदय हुआ देखकर कहते हैं कि ऐसा कौन-सा विशेष कारण है कि अवधपति दशरथजी अभीतक नहीं जागे?॥ ३७॥

पछिले पहर भूपु नित जागा।
आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई।
कीजिअ काजु रजायसु पाई॥


राजा नित्य ही रातके पिछले पहर जाग जाया करते हैं, किन्तु आज हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। हे सुमन्त्र! जाओ, जाकर राजाको जगाओ। उनकी आज्ञा पाकर हम सब काम करें॥१॥

गए सुमंत्रु तब राउर माहीं।
देखि भयावन जात डेराहीं॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा।
मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥


तब सुमन्त्र रावले (राजमहल)में गये, पर महलको भयानक देखकर वे जाते हुए डर रहे हैं। [ऐसा लगता है] मानो दौड़कर काट खायेगा, उसकी ओर देखा भी नहीं जाता। मानो विपत्ति और विषादने वहाँ डेरा डाल रखा हो॥२॥

पूछे कोउ न ऊतरु देई।
गए जेहिं भवन भूप कैकेई॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई।
देखि भूप गति गयउ सुखाई॥


पूछनेपर कोई जवाब नहीं देता; वे उस महलमें गये, जहाँ राजा और कैकेयी थे। 'जय-जीव' कहकर सिर नवाकर (वन्दना करके) बैठे और राजाकी दशा देखकर तो वे सूख ही गये॥३॥

सोच बिकल बिबरन महि परेऊ।
मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। ब
ोली असुभ भरी सुभ छूछी।


[देखा कि-] राजा सोचसे व्याकुल हैं, चेहरेका रंग उड़ गया है। जमीनपर ऐसे पड़े हैं मानो कमल जड़ छोड़कर (जड़से उखड़कर) [मुाया] पड़ा हो। मन्त्री मारे डरके कुछ पूछ नहीं सकते। तब अशुभसे भरी हुई और शुभसे विहीन कैकेयी बोली-॥४॥

दो०- परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु॥३८॥

राजाको रातभर नींद नहीं आयी, इसका कारण जगदीश्वर ही जानें। इन्होंने 'राम राम' रटकर सबेरा कर दिया, परन्तु इसका भेद राजा कुछ भी नहीं बतलाते॥३८॥

आनहु रामहि बेगि बोलाई।
समाचार तब पूँछेहु आई।
चलेउ सुमंत्रु राय रुख जानी।
लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥


तुम जल्दी रामको बुला लाओ। तब आकर समाचार पूछना। राजाका रुख जानकर सुमन्त्रजी चले, समझ गये कि रानीने कुछ कुचाल की है॥ १॥

सोच बिकल मग परइ न पाऊ।
रामहि बोलि कहिहि का राऊ।।
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें।
पूँछहिं सकल देखि मनु मारें॥


सुमन्त्र सोचसे व्याकुल हैं, रास्तेपर पैर नहीं पड़ता (आगे बढ़ा नहीं जाता), [सोचते हैं-] रामजीको बुलाकर राजा क्या कहेंगे? किसी तरह हृदयमें धीरज धरकर वे द्वारपर गये। सब लोग उनको मनमारे (उदास) देखकर पूछने लगे॥ २॥

समाधानु करि सो सबही का।
गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका।
राम सुमंत्रहि आवत देखा।
आदरु कीन्ह पिता सम लेखा।


सब लोगोंका समाधान करके (किसी तरह समझा-बुझाकर) सुमन्त्र वहाँ गये, जहाँ सूर्यकुलके तिलक श्रीरामचन्द्रजी थे। श्रीरामचन्द्रजीने सुमन्त्रको आते देखा तो पिताके समान समझकर उनका आदर किया॥३॥

निरखि बदनु कहि भूप रजाई।
रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं।
देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥


श्रीरामचन्द्रजीके मुखको देखकर और राजाकी आज्ञा सुनाकर वे रघुकुलके दीपक श्रीरामचन्द्रजीको [अपने साथ] लिवा चले। श्रीरामचन्द्रजी मन्त्रीके साथ बुरी तरहसे (बिना किसी लवाजमेके) जा रहे हैं, यह देखकर लोग जहाँ-तहाँ विषाद कर रहे हैं॥ ४॥


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