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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

श्रीरामजी को कोल किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध



छं०- सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उतर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए।
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे।


देवताओंका सम्मान (पूजन) और मुनियोंकी वन्दना करके श्रीरामचन्द्रजी बैठ गये और उत्तर दिशाकी ओर देखने लगे। आकाशमें धूल छा रही है; बहुत-से पक्षी और पशु व्याकुल होकर भागे हुए प्रभुके आश्रमको आ रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी यह देखकर उठे और सोचने लगे कि क्या कारण है? वे चित्तमें आश्चर्ययुक्त हो गये। उसी समय कोल-भीलोंने आकर सब समाचार कहे।

सो०- सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥२२६॥


तुलसीदासजी कहते हैं कि सुन्दर मङ्गल वचन सुनते ही श्रीरामजीके मनमें बड़ा आनन्द हुआ। शरीरमें पुलकावली छा गयी, और शरद्-ऋतुके कमलके समान नेत्र प्रेमाश्रुओंसे भर गये ॥ २२६ ॥

बहुरि सोचबस भे सियरवनू।
कारन कवन भरत आगवनू।।
एक आइ अस कहा बहोरी।
सेन संग चतुरंग न थोरी॥

सीतापति श्रीरामचन्द्रजी पुनः सोचके वश हो गये कि भरतके आनेका क्या कारण है ? फिर एकने आकर ऐसा कहा कि उनके साथमें बड़ी भारी चतुरङ्गिणी सेना भी है॥१॥

सो सुनि रामहि भा अति सोचू।
इत पितु बच इत बंधु सकोचू॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं।
प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥

यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीको अत्यन्त सोच हुआ। इधर तो पिताके वचन और इधर भाई भरतजीका संकोच! भरतजीके स्वभावको मनमें समझकर तो प्रभु श्रीरामचन्द्रजी चित्तको ठहरानेके लिये कोई स्थान ही नहीं पाते हैं ॥ २ ॥

समाधान तब भा यह जाने।
भरतु कहे महुँ साधु सयाने।
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू।
कहत समय सम नीति बिचारू॥


तब यह जानकर समाधान हो गया कि भरत साधु और सयाने हैं तथा मेरे कहनेमें (आज्ञाकारी) हैं। लक्ष्मणजीने देखा कि प्रभु श्रीरामजीके हृदयमें चिन्ता है तो वे समयके अनुसार अपना नीतियुक्त विचार कहने लगे--- || ३ ॥

बिनु पूछे कछु कहउँ गोसाईं।
सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाईं।
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी।
आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥


हे स्वामी! आपके बिना ही पूछे मैं कुछ कहता हूँ; सेवक समयपर ढिठाई करनेसे ढीठ नहीं समझा जाता (अर्थात् आप पूछे तब मैं कहूँ, ऐसा अवसर नहीं है; इसीलिये यह मेरा कहना ढिठाई नहीं होगा)। हे स्वामी ! आप सर्वज्ञोंमें शिरोमणि हैं (सब जानते ही हैं)। मैं सेवक तो अपनी समझकी बात कहता हूँ॥४॥

नाथ सुहृद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥२२७॥

हे नाथ! आप परम सुहृद् (बिना ही कारण परम हित करनेवाले), सरलहृदय तथा शील और स्नेहके भण्डार हैं, आपका सभीपर प्रेम और विश्वास है, और अपने हृदयमें सबको अपने ही समान जानते हैं ॥ २२७॥

बिषई जीव पाइ प्रभुताई।
मूढ़ मोह बस होहिं जनाई॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना।
प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥


परन्तु मूढ़ विषयी जीव प्रभुता पाकर मोहवश अपने असली स्वरूपको प्रकट कर देते हैं। भरत नीतिपरायण, साधु और चतुर हैं तथा प्रभु (आप) के चरणोंमें उनका प्रेम है, इस बातको सारा जगत् जानता है ॥ १॥

तेऊ आजु राम पदु पाई।
चले धरम मरजाद मेटाई।
कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी।
जानि राम बनबास एकाकी॥


वे भरत भी आज श्रीरामजी (आप) का पद (सिंहासन या अधिकार) पाकर धर्मकी मर्यादाको मिटाकर चले हैं। कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि रामजी (आप) वनवासमें अकेले (असहाय) हैं, ॥२॥

करि कुमंत्रु मन साजि समाजू।
आए करै अकंटक राजू।
कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई।
आए दल बटोरि दोउ भाई॥


अपने मनमें बुरा विचार करके, समाज जोड़कर राज्यको निष्कण्टक करनेके लिये यहाँ आये हैं। करोड़ों (अनेकों) प्रकारकी कुटिलताएँ रचकर सेना बटोरकर दोनों भाई आये हैं॥३॥

जौं जियँ होति न कपट कुचाली।
केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।
भरतहि दोसु देइ को जाएँ।
जग बौराइ राज पदु पाएँ।


यदि इनके हृदयमें कपट और कुचाल न होती, तो रथ, घोड़े और हाथियों की कतार [ऐसे समय] किसे सुहाती? परन्तु भरतको ही व्यर्थ कौन दोष दे? राजपद पा जानेपर सारा जगत् ही पागल (मतवाला) हो जाता है॥४॥

ससि गुर तिय गामी नधुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान॥२२८॥

चन्द्रमा गुरुपत्नीगामी हुआ, राजा नहुष ब्राह्मणोंकी पालकीपर चढ़ा। और राजा वेन के समान नीच तो कोई नहीं होगा, जो लोक और वेद दोनों से विमुख हो गया।॥ २२८॥

सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू।
केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ।
रिपु रिन रंच न राखब काऊ॥

सहस्रबाहु, देवराज इन्द्र और त्रिशंकु आदि किसको राजमद ने कलङ्क नहीं दिया? भरतने यह उपाय उचित ही किया है। क्योंकि शत्रु और ऋण को कभी जरा भी शेष नहीं रखना चाहिये ॥१॥

एक कीन्हि नहिं भरत भलाई।
निदरे रामु जानि असहाई॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी।
समर सरोष राम मुखु पेखी।


हाँ, भरत ने एक बात अच्छी नहीं की, जो रामजी (आप) को असहाय जानकर उनका निरादर किया! पर आज संग्राम में श्रीरामजी (आप) का क्रोधपूर्ण मुख देखकर यह बात भी उनकी समझ में विशेषरूप से आ जायगी (अर्थात् इस निरादरका फल भी वे अच्छी तरह पा जायँगे) ॥ २॥

एतना कहत नीति रस भूला।
रन रस बिटपु पुलक मिस फूला॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी।


इतना कहते ही लक्ष्मणजी नीतिरस भूल गये और युद्धरसरूपी वृक्ष पुलकावली के बहाने से फूल उठा (अर्थात् नीति की बात कहते-कहते उनके शरीर में वीर-रस छा गया)। वे प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के चरणों की वन्दना करके, चरण-रज को सिरपर रखकर सच्चा और स्वाभाविक बल कहते हुए बोले॥३॥

अनुचित नाथ न मानब मोरा।
भरत हमहि उपचार न थोरा॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें।
नाथ साथ धनु हाथ हमारें।


हे नाथ! मेरा कहना अनुचित न मानियेगा। भरत ने हमें कम नहीं प्रचारा है (हमारे साथ कम छेड़छाड़ नहीं की है)। आखिर कहाँ तक सहा जाय और मन मारे रहा जाय, जब स्वामी हमारे साथ हैं और धनुष हमारे हाथ में है!॥४॥

छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥२२९॥


क्षत्रिय जाति, रघुकुलमें जन्म और फिर मैं श्रीरामजी (आप) का अनुगामी (सेवक) हूँ, यह जगत् जानता है। [फिर भला कैसे सहा जाय?] धूल के समान नीच कौन है, परन्तु वह भी लात मारने पर सिर ही चढ़ती है ॥ २२९ ॥

उठि कर जोरि रजायसु मागा।
मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा।
साजि सरासनु सायकु हाथा॥


यों कहकर लक्ष्मणजीने उठकर, हाथ जोड़कर आज्ञा माँगी। मानो वीररस सोतेसे जाग उठा हो। सिरपर जटा बाँधकर कमरमें तरकस कस लिया और धनुषको सजकर तथा बाण को हाथमें लेकर कहा-- ॥१॥

आजु राम सेवक जसु लेऊँ।
भरतहि समर सिखावन देऊँ॥
राम निरादर कर फलु पाई।
सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥


आज मैं श्रीराम (आप) का सेवक होनेका यश लूँ और भरतको संग्राममें शिक्षा दूं। श्रीरामचन्द्रजी (आप) के निरादरका फल पाकर दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) रण-शय्यापर सोवें!॥२॥

आइ बना भल सकल समाजू।
प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू।
लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥


अच्छा हुआ जो सारा समाज आकर एकत्र हो गया। आज मैं पिछला सब क्रोध प्रकट करूँगा। जैसे सिंह हाथियोंके झुंडको कुचल डालता है और बाज जैसे लवेको लपेटमें ले लेता है॥३॥

तैसेहिं भरतहि सेन समेता।
सानुज निदरि निपातउँ खेता॥
जौं सहाय कर संकरु आई।
तौ मारउँ रन राम दोहाई॥


वैसे ही भरत को सेनासमेत और छोटे भाई सहित तिरस्कार करके मैदानमें पछाडूँगा। यदि शङ्करजी भी आकर उनकी सहायता करें, तो भी, मुझे रामजी की सौगन्ध है, मैं उन्हें युद्धमें [अवश्य] मार डालूँगा (छोडूंगा नहीं)॥४॥

अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥२३०॥

लक्ष्मणजीको अत्यन्त क्रोधसे तमतमाया हुआ देखकर और उनकी प्रामाणिक (सत्य) सौगन्ध सुनकर सब लोग भयभीत हो जाते हैं और लोकपाल घबड़ाकर भागना चाहते हैं।। २३०॥

जगु भय मगन गगन भइ बानी।
लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा।
को कहि सकइ को जाननिहारा॥


सारा जगत् भयमें डूब गया। तब लक्ष्मणजीके अपार बाहुबलकी प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई-हे तात ! तुम्हारे प्रताप और प्रभावको कौन कह सकता है और कौन जान सकता है? ॥१॥

अनुचित उचित काजु किछु होऊ।
समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ॥
सहसा करि पाछे पछिताहीं।
कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥


परन्तु कोई भी काम हो, उसे अनुचित-उचित खूब समझ-बूझकर किया जाय तो सब कोई अच्छा कहते हैं। वेद और विद्वान् कहते हैं कि जो बिना विचारे जल्दीमें किसी कामको करके पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान् नहीं हैं॥२॥

सुनि सुर बचन लखन सकुचाने।
राम सीयँ सादर सनमाने॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई।
सब तें कठिन राजमदु भाई॥


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