लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

भरत-कौसल्या-संवाद और दशरथ की अन्त्येष्टि क्रिया



दो०- सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥१५९॥


पुत्रके स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रोंमें कपटका जल भरकर पापिनी कैकेयी भरतके कानोंमें और मनमें शूलके समान चुभनेवाले वचन बोली-॥ १५९॥

तात बात मैं सकल सँवारी।
भै मंथरा सहाय बिचारी।
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ।
भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥


हे तात! मैंने सारी बात बना ली थी। बेचारी मन्थरा सहायक हुई। पर विधाताने बीचमें जरा-सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोकको पधार गये॥१॥

सुनत भरतु भए बिबस बिषादा।
जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥
तात तात हा तात पुकारी।
परे भूमितल ब्याकुल भारी॥


भरत यह सुनते ही विषादके मारे विवश (बेहाल) हो गये। मानो सिंहकी गर्जना सुनकर हाथी सहम गया हो। वे 'तात! तात! हा तात!' पुकारते हुए अत्यन्त व्याकुल होकर जमीनपर गिर पड़े॥२॥

चलत न देखन पायउँ तोही।
तात न रामहि सौंपेहु मोही॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी।
कहु पितु मरन हेतु महतारी॥


[और विलाप करने लगे कि] हे तात! मैं आपको [स्वर्गके लिये] चलते समय देख भी न सका। [हाय!] आप मुझे श्रीरामजीको सौंप भी नहीं गये! फिर धीरज धरकर वे सँभलकर उठे और बोले-माता! पिताके मरनेका कारण तो बताओ॥३॥

सुनि सुत बचन कहति कैकेई।
मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥
आदिहु तें सब आपनि करनी।
कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥


पुत्रका वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी। मानो मर्मस्थान को पाछकर (चाकूसे चीरकर) उसमें जहर भर रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरूसे [आखीर तक बड़े] प्रसन्न मनसे सुना दी॥४॥
 
दो०- भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥१६०॥


श्रीरामचन्द्रजी का वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया और हृदय में इस सारे अनर्थ का कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर स्तम्भित रह गये (अर्थात् उनकी बोली बंद हो गयी और वे सन्न रह गये)॥१६०॥

बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति।
मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥
तात राउ नहिं सोचै जोगू।
बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥


पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही हो। [वह बोली-] हे तात! राजा सोच करने योग्य नहीं हैं। उन्होंने पुण्य और यश कमाकर उसका पर्याप्त भोग किया॥१॥

जीवत सकल जनम फल पाए।
अंत अमरपति सदन सिधाए॥
अस अनुमानि सोच परिहरहू।
सहित समाज राज पुर करहू॥


जीवनकालमें ही उन्होंने जन्म लेनेके सम्पूर्ण फल पा लिये और अन्तमें वे इन्द्रलोकको चले गये। ऐसा विचारकर सोच छोड़ दो और समाजसहित नगरका राज्य करो॥२॥

सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू।
पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा।
पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥


राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गये। मानो पके घाव पर अंगार छू गया हो। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लंबी साँस लेते हुए कहा-पापिनी! तूने सभी तरहसे कुलका नाश कर दिया॥३॥

जौं पै कुरुचि रही अति तोही।
जनमत काहे न मारे मोही॥
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा।
मीन जिअन निति बारि उलीचा॥


हाय! यदि तेरी ऐसी ही अत्यन्त बुरी रुचि (दुष्ट इच्छा) थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला? तूने पेड़को काटकर पत्तेको सींचा है और मछलीके जीनेके लिये पानीको उलीच डाला! (अर्थात् मेरा हित करने जाकर उलटा तूने मेरा
अहित कर डाला)॥४॥

दो०- हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूं जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ॥१६१॥


मुझे सूर्यवंश [-सा वंश], दशरथजी [-सरीखे] पिता और राम-लक्ष्मण-से भाई मिले। पर हे जननी! मुझे जन्म देनेवाली माता तू हुई! [क्या किया जाय!] विधातासे कुछ भी वश नहीं चलता॥ १६१॥

जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ।
खंड खंड होइ हृदउ न गयऊ।
बर मागत मन भइ नहिं पीरा।
गरि न जीह महँ परेउ न कीरा॥


अरी कुमति ! जब तूने हृदयमें यह बुरा विचार (निश्चय) ठाना, उसी समय तेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े [क्यों] न हो गये? वरदान माँगते समय तेरे मनमें कुछ भी पीड़ा नहीं हुई? तेरी जीभ गल नहीं गयी? तेरे मुँहमें कीड़े नहीं पड़ गये?॥१॥

भूपँ प्रतीति तोरि किमि कीन्ही।
मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही॥
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी।
सकल कपट अघ अवगुन खानी॥


राजाने तेरा विश्वास कैसे कर लिया? [जान पड़ता है,] विधाताने मरनेके समय उनकी बुद्धि हर ली थी। स्त्रियोंके हृदयकी गति (चाल) विधाता भी नहीं जान सके। वह सम्पूर्ण कपट, पाप और अवगुणोंकी खान है॥२॥

सरल सुसील धरम रत राऊ।
सो किमि जानै तीय सुभाऊ॥
अस को जीव जंतु जग माहीं।
जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं।।


फिर राजा तो सीधे, सुशील और धर्मपरायण थे। वे भला, स्त्री-स्वभावको कैसे जानते? अरे, जगत के जीव-जन्तुओंमें ऐसा कौन है जिसे श्रीरघुनाथजी प्राणोंके समान प्यारे नहीं हैं॥३॥

भे अति अहित रामु तेउ तोही।
को तू अहसि सत्य कहु मोही॥
जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई।
आँखि ओट उठि बैठहि जाई॥


वे श्रीरामजी भी तुझे अहित हो गये (वैरी लगे) ! तू कौन है? मुझे सच-सच कह! तू जो है, सो है, अब मुँह में स्याही पोतकर (मुँह काला करके) उठकर मेरी आँखों की ओटमें जा बैठ॥४॥

दो०- राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि॥१६२॥


विधाता ने मुझे श्रीरामजी से विरोध करने वाले (तेरे) हृदय से उत्पन्न किया [अथवा विधाताने मुझे हृदयसे रामका विरोधी जाहिर कर दिया]। मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है? मैं व्यर्थ ही तुझे कुछ कहता हूँ॥१६२॥

सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई।
जरहिं गात रिस कछु न बसाई॥
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई।
बसन बिभूषन बिबिध बनाई।


माताकी कुटिलता सुनकर शत्रुघ्नजीके सब अङ्ग क्रोधसे जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता। उसी समय भाँति-भाँतिके कपड़ों और गहनोंसे सजकर कुबरी (मन्थरा) वहाँ आयी॥१॥

लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई।
बरत अनल घृत आहुति पाई।
हुमगि लात तकि कूबर मारा।
परि मुह भर महि करत पुकारा॥


उसे [सजी] देखकर लक्ष्मणके छोटे भाई शत्रुघ्नजी क्रोध में भर गये। मानो जलती हुई आग को घी की आहुति मिल गयी हो। उन्होंने जोर से तक कर कूबड़ पर एक लात जमा दी। वह चिल्लाती हुई मुँह के बल जमीनपर गिर पड़ी॥२॥

कूबर टूटेउ फूट कपारू।
दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू॥
आह दइअ मैं काह नसावा।
करत नीक फलु अनइस पावा।।


उसका कूबड़ टूट गया, कपाल फूट गया, दाँत टूट गये और मुँह से खून बहने लगा। [वह कराहती हुई बोली-] हाय दैव! मैंने क्या बिगाड़ा? जो भला करते बुरा फल पाया॥३॥

सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी।
लगे घसीटन धरि धरि झोंटी॥
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई।
कौसल्या पहिं गे दोउ भाई।


उसकी यह बात सुनकर और उसे नखसे शिखातक दुष्ट जानकर शत्रुघ्नजी झोंटा पकड़-पकड़कर उसे घसीटने लगे। तब दयानिधि भरतजी ने उसको छुड़ा दिया और दोनों भाई [तुरंत] कौसल्याजी के पास गये॥४॥

दो०- मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार।
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार॥१६३॥


कौसल्याजी मैले वस्त्र पहने हैं, चेहरे का रंग बदला हुआ है, व्याकुल हो रही हैं, दुःख के बोझ से शरीर सूख गया है। ऐसी दीख रही हैं मानो सोनेकी सुन्दर कल्पलताको वनमें पाला मार गया हो॥१६३॥

भरतहि देखि मातु उठि धाई।
मुरुछित अवनि परी झइँ आई॥
देखत भरतु बिकल भए भारी।
परे चरन तन दसा बिसारी॥


भरतको देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ी। पर चक्कर आ जाने से मूछित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गये और शरीर को सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े॥१॥

मातु तात कहँ देहि देखाई।
कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा।
जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा।


[फिर बोले-] माता! पिताजी कहाँ हैं? उन्हें दिखा दे। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्रीराम-लक्ष्मण कहाँ हैं? [उन्हें दिखा दे।] कैकेयी जगत में क्यों जनमी! और यदि जनमी ही तो फिर बाँझ क्यों न हुई?-॥२॥

कुल कलंक जेहिं जनमेउ मोही।
अपजस भाजन प्रियजन द्रोही।
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी।
गति असि तोरि मातु जेहि लागी॥


जिसने कुलके कलंक, अपयशके भाँड़े और प्रियजनोंके द्रोही मुझ-जैसे पुत्रको उत्पन्न किया। तीनों लोकोंमें मेरे समान अभागा कौन है? जिसके कारण, हे माता! तेरी यह दशा हुई!॥३॥

पितु सुरपुर बन रघुबर केतू।
मैं केवल सब अनरथ हेतू॥
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी।
दुसह दाह दुख दूषन भागी॥


पिताजी स्वर्गमें हैं और श्रीरामजी वनमें हैं। केतुके समान केवल मैं ही इन सब अनर्थोंका कारण हूँ। मुझे धिक्कार है ! मैं बाँसके वनमें आग उत्पन्न हुआ और कठिन दाह, दुःख और दोषोंका भागी बना॥४॥

दो०-मातु भरत के बचन मृदु सुनि पुनि उठी सँभारि।
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि॥१६४॥


भरतजीके कोमल वचन सुनकर माता कौसल्याजी फिर सँभलकर उठीं। उन्होंने भरतको उठाकर छातीसे लगा लिया और नेत्रोंसे आँसू बहाने लगीं॥ १६४।।

सरल सुभाय मायँ हियँ लाए।
अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई।
सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥


सरल स्वभाववाली माताने बड़े प्रेमसे भरतजीको छातीसे लगा लिया, मानो श्रीरामजी ही लौटकर आ गये हों। फिर लक्ष्मणजीके छोटे भाई शत्रुघ्नको हृदयसे लगाया। शोक और स्नेह हृदयमें समाता नहीं है॥१॥

देखि सुभाउ कहत सबु कोई।
राम मातु अस काहे न होई॥
माताँ भरतु गोद बैठारे।
आँसु पोंछि मृदु बचन उचारे।


कौसल्याजीका स्वभाव देखकर सब कोई कह रहे हैं- श्रीरामकी माताका ऐसा स्वभाव क्यों न हो। माताने भरतजीको गोदमें बैठा लिया और उनके आँसू पोंछकर कोमल वचन बोलीं-॥२॥

अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू।
कुसमउ समुझि सोक परिहरहू॥
जनि मानहु हियँ हानि गलानी।
काल करम गति अघटित जानी।


हे वत्स! मैं बलैया लेती हूँ। तुम अब भी धीरज धरो। बुरा समय जानकर शोक त्याग दो। काल और कर्मकी गति अमिट जानकर हृदयमें हानि और ग्लानि मत मानो॥३॥

काहुहि दोसु देहु जनि ताता।
भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता॥
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा।
अजहुँ को जानइ का तेहि भावा॥


हे तात! किसीको दोष मत दो। विधाता मुझको सब प्रकारसे उलटा हो गया है, जो इतने दु:खपर भी मुझे जिला रहा है। अब भी कौन जानता है, उसे क्या
भा रहा है?॥ ४॥
 
दो०- पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर॥१६५॥


हे तात! पिताकी आज्ञा से श्रीरघुवीर ने भूषण-वस्त्र त्याग दिये और वल्कल-वस्त्र पहन लिये। उनके हृदयमें न कुछ विषाद था, न हर्ष!॥१६५॥

मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू।
सब कर सब बिधि करि परितोषू॥
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी।
रहइ न राम चरन अनुरागी॥


उनका मुख प्रसन्न था; मनमें न आसक्ति थी, न रोष (द्वेष)। सबका सब तरहसे सन्तोष कराकर वे वन को चले। यह सुनकर सीता भी उनके साथ लग गयीं। श्रीराम के चरणोंकी अनुरागिणी वे किसी तरह न रहीं॥१॥

सुनतहिं लखनु चले उठि साथा।
रहहिं न जतन किए रघुनाथा॥
तब रघुपति सबही सिरु नाई।
चले संग सिय अरु लघु भाई॥


सुनते ही लक्ष्मण भी साथ ही उठ चले। श्रीरघुनाथने उन्हें रोकनेके बहुत यत्न किये, पर वे न रहे। तब श्रीरघुनाथजी सबको सिर नवाकर सीता और छोटे भाई लक्ष्मण को साथ लेकर चले गये॥२॥

रामु लखनु सिय बनहि सिधाए।
गइउँ न संग न प्रान पठाए।
यह सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें।
तउ न तजा तनु जीव अभागें।


श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वनको चले गये। मैं न तो साथ ही गयी और न मैंने अपने प्राण ही उनके साथ भेजे। यह सब इन्हीं आँखों के सामने हुआ। तो भी अभागे जीवने शरीर नहीं छोड़ा॥३॥

मोहि न लाज निज नेहु निहारी।
राम सरिस सुत मैं महतारी॥
जिऐ मरै भल भूपति जाना।
मोर हृदय सत कुलिस समाना।


अपने स्नेह की ओर देखकर मुझे लाज भी नहीं आती; राम-सरीखे पुत्र की मैं माता! जीना और मरना तो राजाने खूब जाना। मेरा हृदय तो सैकड़ों वज्रों के समान कठोर है॥४॥

दो०- कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवासु।
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु॥१६६॥


कौसल्याजी के वचनोंको सुनकर भरत सहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा। राजमहल मानो शोकका निवास बन गया।। १६६॥

बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई।
कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई।
भाँति अनेक भरतु समुझाए।
कहि बिबेकमय बचन सुनाए।


भरत, शत्रुघ्न दोनों भाई विकल होकर विलाप करने लगे। तब कौसल्याजी ने उनको हृदय से लगा लिया। अनेकों प्रकार से भरतजी को समझाया और बहुत-सी विवेकभरी बातें उन्हें कहकर सुनायीं॥१॥

भरतहुँ मातु सकल समुझाई।
कहि पुरान श्रुति कथा सुहाई॥
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी।
बोले भरत जोरि जुग पानी॥


भरतजीने भी सब माताओंको पुराण और वेदोंकी सुन्दर कथाएँ कहकर समझाया। दोनों हाथ जोड़कर भरतजी छलरहित, पवित्र और सीधी सुन्दर वाणी बोले-॥२॥

जे अघ मातु पिता सुत मारें।
गाइ गोठ महिसुर पुर जारें।
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें।
मीत महीपति माहुर दीन्हें॥


जो पाप माता-पिता और पुत्र के मारने से होते हैं और जो गोशाला और ब्राह्मणों के नगर जलाने से होते हैं; जो पाप स्त्री और बालक की हत्या करने से होते हैं और जो मित्र और राजा को जहर देने से होते हैं-॥३॥

जे पातक उपपातक अहहीं।
करम बचन मन भव कबि कहहीं॥
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता।
जौं यहु होइ मोर मत माता॥


कर्म, वचन और मन से होने वाले जितने पातक एवं उपपातक (बड़े-छोटे पाप) हैं, जिनको कवि लोग कहते हैं, हे विधाता! यदि इस काम में मेरा मत हो, तो हे माता! वे सब पाप मुझे लगें॥४॥

दो०- जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर॥१६७॥


जो लोग श्रीहरि और श्रीशंकरजीके चरणोंको छोड़कर भयानक भूत-प्रेतोंको भजते हैं, हे माता! यदि इसमें मेरा मत हो तो विधाता मुझे उनकी गति दे॥१६७॥

बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं।
पिसुन पराय पाप कहि देहीं।
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी।
बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥


जो लोग वेदों को बेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं, चुगलखोर हैं, दूसरों के पापों को कह देते हैं; जो कपटी, कुटिल, कलहप्रिय और क्रोधी हैं, तथा जो वेदों की निन्दा करनेवाले और विश्वभर के विरोधी हैं;॥१॥

लोभी लंपट लोलुपचारा।
जे ताकहिं परधनु परदारा॥
पावौं मैं तिन्ह कै गति घोरा।
जौं जननी यहु संमत मोरा॥


जो लोभी, लम्पट और लालचियों का आचरण करने वाले हैं; जो पराये धन और परायी स्त्री की ताक में रहते हैं; हे जननी! यदि इस काम में मेरी सम्मति हो तो मैं उनकी भयानक गति को पाऊँ॥२॥

जे नहिं साधुसंग अनुरागे।
परमारथ पथ बिमुख अभागे॥
जे न भजहिं हरि नरतनु पाई।
जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई॥


जिनका सत्सङ्ग में प्रेम नहीं है; जो अभागे परमार्थ के मार्ग से विमुख हैं; जो मनुष्य शरीर पाकर श्रीहरि का भजन नहीं करते; जिनको हरि-हर (भगवान् विष्णु और शंकरजी) का सुयश नहीं सुहाता;॥३॥

तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं।
बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं।
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ।
जननी जौं यहु जानौं भेऊ॥


जो वेदमार्गको छोड़कर वाम (वेदप्रतिकूल) मार्गपर चलते हैं; जो ठग हैं और वेष बनाकर जगत्को छलते हैं; हे माता! यदि मैं इस भेदको जानता भी होऊँ तो शंकरजी मुझे उन लोगोंकी गति दें॥४॥

दो०- मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ॥१६८॥


माता कौसल्याजी भरतजी के स्वाभाविक ही सच्चे और सरल वचनों को सुनकर कहने लगीं-हे तात! तुम तो मन, वचन और शरीरसे सदा ही श्रीरामचन्द्रके प्यारे हो। १६८॥

राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे।
तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥
बिधु बिष चवै सवै हिमु आगी।
होइ बारिचर बारि बिरागी॥


श्रीराम तुम्हारे प्राणों से भी बढ़कर प्राण (प्रिय) हैं और तुम भी श्रीरघुनाथ को प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। चन्द्रमा चाहे विष चुआने लगे और पाला आग बरसाने लगे; जलचर जीव जलसे विरक्त हो जाय,॥१॥

भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू।
तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू॥
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं।
सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥


और ज्ञान हो जाने पर भी चाहे मोह न मिटे; पर तुम श्रीरामचन्द्र के प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते। इसमें तुम्हारी सम्मति है, जगत्में जो कोई ऐसा कहते हैं वे स्वप्नमें भी सुख और शुभ गति नहीं पावेंगे॥२॥

अस कहि मातु भरतु हियँ लाए।
थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए॥
करत बिलाप बहुत एहि भाँती।
बैठेहिं बीति गई सब राती॥


ऐसा कहकर माता कौसल्या ने भरतजी को हृदयसे लगा लिया। उनके स्तनों से दूध बहने लगा और नेत्रों में [प्रेमाश्रुओंका] जल छा गया। इस प्रकार बहुत विलाप करते हुए सारी रात बैठे-ही-बैठे बीत गयी॥३॥

बामदेउ बसिष्ठ तब आए।
सचिव महाजन सकल बोलाए॥
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे।
कहि परमारथ बचन सुदेसे॥


तब वामदेवजी और वसिष्ठजी आये। उन्होंने सब मन्त्रियों तथा महाजनों को बुलवाया। फिर मुनि वसिष्ठजी ने परमार्थ के सुन्दर समयानुकूल वचन कहकर बहुत प्रकार से भरतजी को उपदेश दिया॥४॥

दो०- तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु॥१६९॥


[वसिष्ठजीने कहा-] हे तात! हृदय में धीरज धरो और आज जिस कार्य के करने का अवसर है, उसे करो। गुरुजी के वचन सुनकर भरतजी उठे और उन्होंने सब तैयारी करनेके लिये कहा॥ १६९॥

नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा।
परम बिचित्र बिमानु बनावा।
गहि पद भरत मातु सब राखी।
रहीं रानि दरसन अभिलाषी॥


वेदों में बतायी हुई विधि से राजा की देहको स्नान कराया गया और परम विचित्र विमान बनाया गया। भरतजी ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा (अर्थात् प्रार्थना करके उनको सती होनेसे रोक लिया)। वे रानियाँ भी [श्रीरामके] दर्शन की अभिलाषा से रह गयीं॥१॥

चंदन अगर भार बहु आए।
अमित अनेक सुगंध सुहाए।
सरजु तीर रचि चिता बनाई।
जनु सुरपुर सोपान सुहाई॥


चन्दन और अगर के तथा और भी अनेकों प्रकार के अपार [कपूर, गुग्गुल, केसर आदि] सुगन्ध-द्रव्यों के बहुत-से बोझ आये। सरयूजी के तटपर सुन्दर चिता रचकर बनायी गयी, [जो ऐसी मालूम होती थी] मानो स्वर्ग की सुन्दर सीढ़ी हो॥२॥

एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही।
बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही॥
सोधि सुमृति सब बेद पुराना।
कीन्ह भरत दसगात बिधाना॥


इस प्रकार सब दाहक्रिया की गयी और सबने विधिपूर्वक स्नान करके तिलाञ्जलि दी। फिर वेद, स्मृति और पुराण सबका मत निश्चय करके उसके अनुसार भरतजी ने पिता का दशगात्र-विधान (दस दिनोंके कृत्य) किया॥३॥

जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा।
तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा॥
भए बिसुद्ध दिए सब दाना।
धेनु बाजि गज बाहन नाना॥


मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी ने जहाँ जैसी आज्ञा दी, वहाँ भरत जी ने सब वैसा ही हजारों प्रकार से किया। शुद्ध हो जानेपर [विधिपूर्वक] सब दान दिये। गौएँ तथा घोड़े, हाथी आदि अनेक प्रकार की सवारियाँ,॥४॥

सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम।
दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम॥१७०॥


सिंहासन, गहने, कपड़े, अन्न, पृथ्वी, धन और मकान भरतजीने दिये; भूदेव ब्राह्मण दान पाकर परिपूर्णकाम हो गये (अर्थात् उनकी सारी मनोकामनाएँ अच्छी तरहसे पूरी हो गयीं) ॥ १७० ॥

पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी।
सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी॥
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए।
सचिव महाजन सकल बोलाए॥


पिताजी के लिये भरतजी ने जैसी करनी की वह लाखों मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठजी आये और उन्होंने मन्त्रियों तथा सब महाजनों को बुलवाया॥१॥

बैठे राजसभाँ सब जाई।
पठए बोलि भरत दोउ भाई॥
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे।
नीति धरममय बचन उचारे।


सब लोग राजसभामें जाकर बैठ गये। तब मुनि ने भरतजी तथा शत्रुघ्नजी दोनों भाइयों को बुलवा भेजा। भरतजी को वसिष्ठजी ने अपने पास बैठा लिया और नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे ॥२॥

प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी।
कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी॥
भूप धरमुबतु सत्य सराहा।
जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा॥


पहले तो कैकेयीने जैसी कुटिल करनी की थी, श्रेष्ठ मुनिने वह सारी कथा कही। फिर राजाके धर्मव्रत और सत्यकी सराहना की, जिन्होंने शरीर त्यागकर प्रेमको निबाहा॥३॥

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book