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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

चित्रकूट में निवास, कोल-भीलों के द्वारा सेवा



चित्रकूट गिरि करहु निवासू।
तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥
सैलु सुहावन कानन चारू।
करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥

आप चित्रकूट पर्वतपर निवास कीजिये, वहाँ आपके लिये सब प्रकारकी सुविधा है। सुहावना पर्वत है और सुन्दर वन है। वह हाथी, सिंह, हिरन और पक्षियोंका विहारस्थल है॥२॥

नदी पुनीत पुरान बखानी।
अत्रिप्रिया निज तप बल आनी॥
सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि।
जो सब पातक पोतक डाकिनि॥

वहाँ पवित्र नदी है, जिसकी पुराणोंने प्रशंसा की है, और जिसको अत्रि ऋषिकी पत्नी अनसूयाजी अपने तपोबलसेलायी थीं।वह गङ्गाजीकी धारा है, उसका मन्दाकिनी नाम है। वह सब पापरूपी बालकोंको खा डालनेके लिये डाकिनी (डाइन) रूप है॥३॥

अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं।
करहिं जोग जप तप तन कसहीं।
चलहु सफल श्रम सब कर करहू।
राम देहु गौरव गिरिबरहू॥


अत्रि आदि बहुत-से श्रेष्ठ मुनि वहाँ निवास करते हैं, जो योग, जप और तप करते हुए शरीर को कसते हैं। हे रामजी! चलिये, सबके परिश्रम को सफल कीजिये और पर्वतश्रेष्ठ चित्रकूट को भी गौरव दीजिये॥४॥

दो०- चित्रकूट महिमा अमित कही महामुनि गाइ।
आइ नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ॥१३२॥


महामुनि वाल्मीकिजीने चित्रकूटकी अपरिमित महिमा बखानकर कही। तब सीताजीसहित दोनों भाइयोंने आकर श्रेष्ठ नदी मन्दाकिनीमें स्नान किया॥१३२॥

रघुबर कहेउ लखन भल घाटू।
करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥
लखन दीख पय उतर करारा।
चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥


श्रीरामचन्द्रजीने कहा-लक्ष्मण ! बड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो। तब लक्ष्मणजी ने पयस्विनी नदी के उत्तर के ऊँचे किनारे को देखा [और कहा कि-] इसके चारों ओर धनुष के-जैसा एक नाला फिरा हुआ है॥१॥

नदी पनच सर सम दम दाना।
सकल कलुष कलि साउज नाना॥
चित्रकूट जनु अचल अहेरी।
चुकइ न घात मार मुठभेरी॥

नदी (मन्दाकिनी) उस धनुष की प्रत्यञ्चा (डोरी) है और शम, दम, दान बाण हैं। कलियुग के समस्त पाप उसके अनेकों हिंसक पशु [रूप निशाने] हैं। चित्रकूट ही मानो अचल शिकारी है, जिसका निशाना कभी चूकता नहीं, और जो सामने से मारता है॥२॥

अस कहि लखन ठाउँ देखरावा।
थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा॥
रमेउ राम मनु देवन्ह जाना।
चले सहित सुर थपति प्रधाना॥

ऐसा कहकर लक्ष्मणजी ने स्थान दिखलाया। स्थान को देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने सुख पाया। जब देवताओं ने जाना कि श्रीरामचन्द्रजी का मन यहाँ रम गया तब वे देवताओं के प्रधान थवई (मकान बनानेवाले) विश्वकर्माको साथ लेकर चले॥३॥

कोल किरात बेष सब आए।
रचे परन तृन सदन सुहाए।
बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला।
एक ललित लघु एक बिसाला॥

सब देवता कोल-भीलोंके वेषमें आये और उन्होंने [दिव्य] पत्तों और घासोंके सुन्दर घर बना दिये। दो ऐसी सुन्दर कुटियाँ बनायीं जिनका वर्णन नहीं हो सकता। उनमें एक बड़ी सुन्दर छोटी-सी थी और दूसरी बड़ी थी॥ ४॥

दो०- लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत।
सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत॥१३३॥

लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर घास-पत्तों के घर में शोभायमान हैं। मानो कामदेव मुनि का वेष धारण करके पत्नी रति और वसन्त-ऋतु के साथ सुशोभित हो। १३३॥

मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम

अमर नाग किंनर दिसिपाला।
चित्रकूट आए तेहि काला॥
राम प्रनामु कीन्ह सब काहू।
मुदित देव लहि लोचन लाहू॥


उस समय देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूटमें आये और श्रीरामचन्द्रजीने सब किसीको प्रणाम किया। देवता नेत्रोंका लाभ पाकर आनन्दित हुए॥१॥

बरषि सुमन कह देव समाजू।
नाथ सनाथ भए हम आजू॥
करि बिनती दुख दुसह सुनाए।
हरषित निज निज सदन सिधाए॥

फूलों की वर्षा करके देवसमाज ने कहा-हे नाथ! आज [आपका दर्शन पाकर] हम सनाथ हो गये। फिर विनती करके उन्होंने अपने दुःसह दुःख सुनाये और [दुःखों के
नाश का आश्वासन पाकर] हर्षित होकर अपने-अपने स्थानों को चले गये॥२॥

चित्रकूट रघुनंदनु छाए।
समाचार सुनि सुनि मुनि आए।
आवत देखि मुदित मुनिबंदा।
कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा॥


श्रीरघुनाथजी चित्रकूट में आ बसे हैं, यह समाचार सुन-सुनकर बहुत-से मुनि आये। रघुकुल के चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी ने मुदित हुई मुनिमण्डली को आते देखकर दण्डवत् प्रणाम किया।॥३॥

मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं।
सुफल होन हित आसिष देहीं॥
सिय सौमित्रि राम छबि देखहिं।
साधन सकल सफल करि लेखहिं।


मुनिगण श्रीरामजी को हृदय से लगा लेते हैं और सफल होने के लिये आशीर्वाद देते हैं। वे सीताजी, लक्ष्मणजी और श्रीरामचन्द्रजी की छवि देखते हैं और अपने सारे साधनों को सफल हुआ समझते हैं॥४॥

दो०- जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबंद।
करहिं जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद॥१३४॥


प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने यथायोग्य सम्मान करके मुनिमण्डली को विदा किया। [श्रीरामचन्द्रजी के आ जानेसे] वे सब अपने-अपने आश्रमों में अब स्वतन्त्रता के साथ योग, जप, यज्ञ और तप करने लगे॥ १३४॥

यह सुधि कोल किरातन्ह पाई।
हरषे जनु नव निधि घर आई।
कंद मूल फल भरि भरि दोना।
चले रंक जनु लूटन सोना॥


यह (श्रीरामजीके आगमनका) समाचार जब कोल-भीलों ने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियाँ उनके घरहीपर आ गयी हों। वे दोनों में कन्द, मूल, फल भर-भरकर चले। मानो दरिद्र सोना लूटने चले हों॥१॥

तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता।
अपर तिन्हहि पूँछहिं मगु जाता॥
कहत सुनत रघुबीर निकाई।
आइ सबन्हि देखे रघुराई॥


उनमें से जो दोनों भाइयों को [पहले] देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी की सुन्दरता कहते-सुनते सबने आकर श्रीरघुनाथजी के दर्शन किये॥२॥

करहिं जोहारु भेंट धरि आगे।
प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे॥
चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े।
पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥


भेंट आगे रखकर वे लोग जोहार करते हैं और अत्यन्त अनुराग के साथ प्रभु को देखते हैं। वे मुग्ध हुए जहाँ-के-तहाँ मानो चित्रलिखे-से खड़े हैं। उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है॥ ३॥

राम सनेह मगन सब जाने।
कहि प्रिय बचन सकल सनमाने।
प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी।
बचन बिनीत कहहिं कर जोरी॥


श्रीरामजी ने उन सबको प्रेम में मग्न जाना, और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। वे बार-बार प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनीत वचन कहते हैं-॥४॥
 
दो०- अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय।
भाग हमारें आगमनु राउर कोसलराय॥१३५॥


हे नाथ! प्रभु (आप) के चरणोंका दर्शन पाकर अब हम सब सनाथ हो गये। हे कोसलराज! हमारे ही भाग्यसे आपका यहाँ शुभागमन हुआ है।। १३५।।

धन्य भूमि बन पंथ पहारा।
जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥
धन्य बिहग मृग काननचारी।
सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥


हे नाथ! जहाँ-जहाँ आपने अपने चरण रखे हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और पहाड़ धन्य हैं, वे वन में विचरने वाले पक्षी और पशु धन्य हैं, जो आपको देखकर सफल जन्म हो गये॥१॥
हम सब धन्य सहित परिवारा।
दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा॥
कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी।
इहाँ सकल रितु रहब सुखारी॥


हम सब भी अपने परिवार सहित धन्य हैं, जिन्होंने नेत्र भरकर आपका दर्शन किया। आपने बड़ी अच्छी जगह विचारकर निवास किया है। यहाँ सभी ऋतुओं में
आप सुखी रहियेगा॥२॥

हम सब भाँति करब सेवकाई।
करि केहरि अहि बाघ बराई।
बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा।
सब हमार प्रभु पग पग जोहा॥


हमलोग सब प्रकार से हाथी, सिंह, सर्प और बाघों से बचाकर आपकी सेवा करेंगे। हे प्रभो! यहाँ के बीहड़ वन, पहाड़, गुफाएँ और खोह (रे) सब पग-पग हमारे देखे हुए हैं॥३॥

तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब।
सर निरझर जलठाउँ देखाउब॥
हम सेवक परिवार समेता।
नाथ न सकुचब आयसु देता।


हम वहाँ-वहाँ (उन-उन स्थानों में) आपको शिकार खिलावेंगे और तालाब, झरने आदि जलाशयों को दिखावेंगे। हम कुटुम्ब समेत आपके सेवक हैं। हे नाथ! इसलिये हमें आज्ञा देने में संकोच न कीजियेगा॥४॥

दो०- बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥१३६॥


जो वेदोंके वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैं, वे करुणा के धाम प्रभु श्रीरामचन्द्रजी भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैं जैसे पिता बालकों के वचन सुनता है।। १३६॥

रामहि केवल प्रेमु पिआरा।
जानि लेउ जो जाननिहारा॥
राम सकल बनचर तब तोषे।
कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥


श्रीरामचन्द्रजी को केवल प्रेम प्यारा है; जो जानने वाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब श्रीरामचन्द्रजी ने प्रेम से परिपुष्ट हुए (प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करने वाले लोगों को संतुष्ट किया॥१॥

बिदा किए सिर नाइ सिधाए।
प्रभु गुन कहत सुनत घर आए।
एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई।
बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥


फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले और प्रभुके गुण कहते-सुनते घर आये। इस प्रकार देवता और मुनियों को सुख देने वाले दोनों भाई सीताजी समेत वन में निवास करने लगे॥२॥

जब तें आइ रहे रघुनायकु।
तब तें भयउ बनु मंगलदायकु॥
फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना।
मंजु बलित बर बेलि बिताना॥


जबसे श्रीरघुनाथजी वन में आकर रहे तब से वन मङ्गलदायक हो गया। अनेकों प्रकार के वृक्ष फूलते और फलते हैं और उनपर लिपटी हुई सुन्दर बेलोंके मण्डप तने हैं॥३॥

सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए।
मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए।
गुंज मंजुतर मधुकर श्रेनी।
त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥


वे कल्पवृक्षके समान स्वाभाविक ही सुन्दर हैं। मानो वे देवताओंके वन (नन्दनवन) को छोड़कर आये हों। भौंरोंकी पंक्तियाँ बहुत ही सुन्दर गुंजार करती हैं और सुख देनेवाली शीतल, मन्द, सुगन्धित हवा चलती रहती है।॥ ४॥

दो०- नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर।
भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर॥१३७॥


नीलकण्ठ, कोयल, तोते, पपीहे, चकवे और चकोर आदि पक्षी कानों को सुख देनेवाली और चित्त को चुरानेवाली तरह-तरह की बोलियाँ बोलते हैं॥ १३७॥

करि केहरि कपि कोल कुरंगा।
बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥
फिरत अहेर राम छबि देखी।
होहिं मुदित मृग बंद बिसेषी॥


हाथी, सिंह, बंदर, सूअर और हिरन, ये सब वैर छोड़कर साथ-साथ विचरते हैं। शिकार के लिये फिरते हुए श्रीरामचन्द्रजी की छवि को देखकर पशुओं के समूह विशेष आनन्दित होते हैं॥१॥

बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं।
देखि रामबनु सकल सिहाहीं॥
सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या।
मेकलसुता गोदावरि धन्या॥


जगत्में जहाँतक (जितने) देवताओंके वन हैं, सब श्रीरामजीके वनको देखकर सिहाते हैं। गङ्गा, सरस्वती, सूर्यकुमारी यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि धन्य (पुण्यमयी) नदियाँ,॥ २॥

सब सर सिंधु नदी नद नाना।
मंदाकिनि कर करहिं बखाना॥
उदय अस्त गिरि अरु कैलासू।
मंदर मेरु सकल सुरबासू॥


सारे तालाब, समुद्र, नदी और अनेकों नद सब मन्दाकिनीकी बड़ाई करते हैं। उदयाचल, अस्ताचल, कैलास, मन्दराचल और सुमेरु आदि सब, जो देवताओं के रहने के स्थान हैं,॥३॥

सैल हिमाचल आदिक जेते।
चित्रकूट जसु गावहिं तेते॥
बिंधि मुदित मन सुखु न समाई।
श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई॥


और हिमालय आदि जितने पर्वत हैं, सभी चित्रकूट का यश गाते हैं। विन्ध्याचल बड़ा आनन्दित है, उसके मन में सुख समाता नहीं; क्योंकि उसने बिना परिश्रम ही बहुत बड़ी बड़ाई पा ली है।॥ ४॥

दो०- चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति।
पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति॥१३८॥


चित्रकूटके पक्षी, पशु, बेल, वृक्ष, तृण-अंकुरादिकी सभी जातियाँ पुण्य की राशि हैं और धन्य हैं-देवता दिन-रात ऐसा कहते हैं॥१३८॥

नयनवंत रघुबरहि बिलोकी।
पाइ जनम फल होहिं बिसोकी।
परसि चरन रज अचर सुखारी।
भए परम पद के अधिकारी।


आँखोंवाले जीव श्रीरामचन्द्रजीको देखकर जन्मका फल पाकर शोकरहित हो जाते हैं, और अचर (पर्वत, वृक्ष, भूमि, नदी आदि) भगवान्की चरण-रजका स्पर्श पाकर सुखी होते हैं। यों सभी परमपद (मोक्ष) के अधिकारी हो गये॥ १॥

सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन।
मंगलमय अति पावन पावन॥
महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू।
सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू॥


वह वन और पर्वत स्वाभाविक ही सुन्दर, मङ्गलमय और अत्यन्त पवित्रों को भी पवित्र करनेवाला है। उसकी महिमा किस प्रकार कही जाय, जहाँ सुख के समुद्र श्रीरामजी ने निवास किया है॥२॥

पय पयोधि तजि अवध बिहाई।
जहँ सिय लखनु रामु रहे आई॥
कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन।
जौं सत सहस होहिं सहसानन॥


क्षीरसागरको त्यागकर और अयोध्या को छोड़कर जहाँ सीताजी, लक्ष्मणजी और श्रीरामचन्द्रजी आकर रहे, उस वन की जैसी परम शोभा है, उसको हजार मुख वाले जो लाख शेषजी हों तो वे भी नहीं कह सकते॥३॥

सो मैं बरनि कहाँ बिधि केहीं।
डाबर कमठ कि मंदर लेहीं॥
सेवहिं लखनु करम मन बानी।
जाइ न सीलु सनेहु बखानी॥


उसे भला, मैं किस प्रकार से वर्णन करके कह सकता हूँ। कहीं पोखरे का [क्षुद्र] कछुआ भी मन्दराचल उठा सकता है? लक्ष्मणजी मन, वचन और कर्म से श्रीरामचन्द्रजी की सेवा करते हैं। उनके शील और स्नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता॥४॥

दो०- छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु।
करत न सपनेहुँ लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु॥१३९॥


क्षण-क्षण पर श्रीसीतारामजी के चरणों को देखकर और अपने ऊपर उनका स्नेह जानकर लक्ष्मणजी स्वप्न में भी भाइयों, माता-पिता और घर की याद नहीं करते॥१३९॥

राम संग सिय रहति सुखारी।
पुर परिजन गृह सुरति बिसारी॥
छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी।
प्रमुदित मनहुँ चकोर कुमारी॥


श्रीरामचन्द्रजी के साथ सीताजी अयोध्यापुरी, कुटुम्ब के लोग और घर की याद भूलकर बहुत ही सुखी रहती हैं। क्षण-क्षणपर पति श्रीरामचन्द्रजी के चन्द्रमाके समान मुखको देखकर वे वैसे ही परम प्रसन्न रहती हैं जैसे चकोरकुमारी (चकोरी) चन्द्रमा को देखकर!॥१॥

नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी।
हरषित रहति दिवस जिमि कोकी।
सिय मनु राम चरन अनुरागा।
अवध सहस सम बनु प्रिय लागा॥


स्वामीका प्रेम अपने प्रति नित्य बढ़ता हुआ देखकर सीताजी ऐसी हर्षित रहती हैं जैसे दिन में चकवी! सीताजी का मन श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में अनुरक्त है इससे उनको वन हजारों अवधके समान प्रिय लगता है॥२॥

परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा।
प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा॥
सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर।
असनु अमिअ सम कंद मूल फर॥


प्रियतम (श्रीरामचन्द्रजी) के साथ पर्णकुटी प्यारी लगती है। मृग और पक्षी प्यारे कुटुम्बियों के समान लगते हैं। मुनियों की स्त्रियाँ सास के समान, श्रेष्ठ मुनि ससुर के समान और कन्द-मूल-फलोंका आहार उनको अमृत के समान लगता है॥३॥

नाथ साथ साँथरी सुहाई।
मयन सयन सय सम सुखदाई॥
लोकप होहिं बिलोकत जासू।
तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू॥


स्वामी के साथ सुन्दर साथरी (कुश और पत्तोंकी सेज) सैकड़ों कामदेव की सेजों के समान सुख देने वाली है। जिनके [कृपापूर्वक] देखने मात्रसे जीव लोकपाल हो जाते हैं, उनको कहीं भोग-विलास मोहित कर सकते हैं !॥४॥
 
दो०- सुमिरत रामहि तजहिं जन तून सम बिषय बिलासु।
रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु॥१४०॥

जिन श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करने से ही भक्तजन तमाम भोग-विलास को तिनके के समान त्याग देते हैं, उन श्रीरामचन्द्रजी की प्रिय पत्नी और जगत् की माता सीताजी के लिये यह [भोग-विलास का त्याग] कुछ भी आश्चर्य नहीं है।। १४०।।

सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं।
सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥
कहहिं पुरातन कथा कहानी।
सुनहिं लखनु सिय अति सुखुमानी॥


सीताजी और लक्ष्मणजी को जिस प्रकार सुख मिले, श्रीरघुनाथजी वही करते और वही कहते हैं। भगवान् प्राचीन कथाएँ और कहानियाँ कहते हैं और लक्ष्मणजी तथा सीताजी अत्यन्त सुख मानकर सुनते हैं॥१॥

जब जब रामु अवध सुधि करहीं।
तब तब बारि बिलोचन भरहीं।
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई।
भरत सनेहु सीलु सेवकाई॥


जब-जब श्रीरामचन्द्रजी अयोध्याकी याद करते हैं, तब-तब उनके नेत्रोंमें जल भर आता है। माता-पिता, कुटुम्बियों और भाइयों तथा भरत के प्रेम, शील और सेवाभाव को याद करके-॥२॥

कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी।
धीरजु धरहिं कुसमउ बिचारी॥
लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं।
जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं॥


कृपाके समुद्र प्रभु श्रीरामचन्द्रजी दुःखी हो जाते हैं, किन्तु फिर कुसमय समझकर धीरज धारण कर लेते हैं। श्रीरामचन्द्रजी को दुःखी देखकर सीताजी और लक्ष्मणजी भी व्याकुल हो जाते हैं, जैसे किसी मनुष्य की परछाहीं उस मनुष्य के समान ही चेष्टा करती है॥३॥

प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु।
धीर कृपाल भगत उर चंदनु॥
लगे कहन कछु कथा पुनीता।
सुनि सुख लहहिं लखनु अरु सीता।


तब धीर,कृपालु और भक्तोंके हृदयों को शीतल करनेके लिये चन्दनरूप रघुकुल को आनन्दित करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी प्यारी पत्नी और भाई लक्ष्मण की दशा देखकर कुछ पवित्र कथाएँ कहने लगते हैं,जिन्हें सुनकर लक्ष्मणजी और सीताजी सुख प्राप्त करते हैं।। ४॥

दो०- रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत॥१४१॥


लक्ष्मणजी और सीताजी सहित श्रीरामचन्द्रजी पर्णकुटीमें ऐसे सुशोभित हैं जैसे अमरावतीमें इन्द्र अपनी पत्नी शची और पुत्र जयन्त सहित बसता है॥ १४१॥

जोगवहिं प्रभु सिय लखनहि कैसें।
पलक बिलोचन गोलक जैसें॥
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि।
जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥


प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी की कैसी सँभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की। इधर लक्ष्मणजी श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्रजीकी [अथवा लक्ष्मणजी और सीताजी श्रीरामचन्द्रजी की] ऐसी सेवा करते हैं जैसे अज्ञानी मनुष्य शरीर की करते हैं॥१॥

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