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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

(प्रिय पाठको, नाराज मत होइएगा। यहां हम कुछ क्षणों के लिए कथानक का सिलसिला रोककर कुछ जरूरी बातें आपको बता देना चाहते हैं। पिछले पेज के थोड़े से हरफों में गणेशदत्त और महाकाल ने जो हाल बयान किया है वह मुख्तसर में आप, पहला भाग.. दूसरा बयान, दसवाँ बयान और तेरहवाँ बयान तथा दूसरे भाग के ग्यारहवें बयान में पढ़ आए हैं। पूरी तरह से दिमाग में बैठाने के लिए इन बयानों को दिमाग में घुमा लें। यह तो पाठक समझ ही गए होंगे कि 'काला चोर' महाकाल था। इस वक्त आगे का जो हाल हम महाकाल के मुंह से बयान करवा रहे हैं, वह दूसरे भाग के ग्यारहवें बयान का ही समझना चाहिए।)

महाकाल बता रहा था, दरबार में आते ही बलवंतसिंह बोला- ''इस समय दरबार में काफी तगड़ी ऐयारी चल रही है। दरबार में पहले से मौजूद बलवंत, ये व्यापारी और ये जो खुद को नजारासिंह कहता है-सभी दुश्मन के ऐयार हैं। इन सबको गिरफ्तार कर लिया जाए। ये सब अपने-अपने उद्देश्य से दरबार में आए हैं।''

उसके यह कहते ही हम चौंक पड़े। दलीपसिंह ने कहा- ''तुम्हारे पास क्या सुबूत है कि तुम असली बलवंतसिंह हो?''

''आप इस चक्कर में फिलहाल मत पड़िए महाकाल जी'' - बलवतसिंह बोला- ''इस वक्त यहां बड़े-बड़े खतरनाक ऐयार मौजूद हैं और जरा-सा वक्त मिलते ही वे बहुत कुछ चमत्कार दिखा सकते हैं। व्यापारी बनी हुई ये बेगम बेनजूर की ऐयारा है, यहां मौजूद बलवंत गौरवसिंह का ऐयार गणेशदत्त है। नजारासिंह महाकाल है और गौरवसिंह, जो कैद में है.. वह केवलसिंह है। ये सभी यहां मुकरन्द हासिल करने आए हैं। बिना किसी तरह की देर के इन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए, वर्ना मुकरन्द हमारे हाथ से निकल जाएगा।''

और. ..बलवंतसिंह के इतने अलफाज सुनकर मैं समझ गया कि वह बलवंतसिंह असली है और किसी तरह से वह हमारे साथियों को धोखा देकर यहां पहुंचने में कामयाब हो गया है। मैं समझ गया कि हमारा भेद खुलना ही चाहता है। अब किसी भी तरह का बहाना काम नहीं आएगा। बलवंत बने गणेशदत्त के चेहरे पर भी पीलापन था और मायादेवी के चेहरे पर भी। अब और ज्यादा देर करना मैंने मुनासिब नहीं समझा और अपने बटुए से धुएं का बम निकालकर तेजी के साथ फर्श पर दे मारा।

एक धमाके के साथ दरबार धुएं से भर गया।

''भागो गणेशदत्त!'' मैं चिल्लाया और अपनी तलवार निकालकर दरवाजे की ओर झपटा। दरबार में मौजूद ज्यादातर लोगों की आंखों में धुएं के सबब से आंसू आ गए थे और उनके लिए आंख खोलना कठिन था। इन्हीं सब मजबूरियों का फायदा उठाता हुआ मैं महल से बाहर आ गया। गणेशदत्त भी सफलता के साथ बाहर आ गया था। हम दोनों मिलकर जल्दी ही दलीप नगर से बाहर निकल गए।

''ठहरो, मेरे दिमाग में एक उलझन है।'' अलफांसे ने महाकाल को टोककर कहा।

''कहिए?'' गुरुवचनसिंह बोले।

''पहले जिस जमाने में वहां के राजा सुरेंद्रसिंह थे उस वक्त रियासत का नाम भरतपुर था। लेकिन अब आप सब लोग दलीपसिंह की रियासत को दलीप नगर कहकर पुकारते हैं, इसका क्या सबब है?''

''आपने ठीक ही सोचा है शेरसिंह जी।'' गुरुवचनसिंह बोले- ''पहले इस रियासत का नाम भरतपुर ही था.. लेकिन दलीपसिंह इतना दुष्ट है कि गद्दी पर बैठते ही उसने रियासत का नाम भी अपने नाम पर रख दिया। इसलिए हम सब भरतपुर को दलीप नगर कहकर पुकारते हैं।''

''इस दुष्ट ने हमारी रियासत का नाम बदला है, हम इसका ही नाम बदले'' - अलफांसे ताव खाकर बोला- ''खैर, महाकालजी - आप अपना हाल आगे बयान कीजिए। अभी आप वहां तो पहुंचे ही नहीं हैं, जहां से यह पता लगेगा कि तुम्हें उमादत्त के दरबार का हाल कैसे पता लगा?''

महाकाल ने आगे कहना शुरू किया-

दलीपसिंह के सिपाहियों और ऐयारों के बीच से निकलने के बाद मैं गणेशदत्त को साथ लेकर सीधा जंगल में उस जगह पहुंचा, जहां मैंने अपने उन तीनों साथियों को बलवंत के साथ पहुंचने के लिए कहा था। वहां मैंने अपने साथियों से मुलाकात की तो पता लगा कि बलवंतसिंह को बेहोशी की हालत में उन्होंने एक कोठरी में बंद कर दिया था। इस बात का तो उन्हें सपने में भी गुमान नहीं था कि बलवंतसिंह भाग भी सकता है। वे उस कमरे में उसे बंद करके, दूसरी तरफ रसोई बनाने चले गए। जब वे रसोई बना चुके तो इरादा दूसरा बना कि बलवंत को भी होश में लाकर थोड़े से चावल खिला दिए जाएं। वे चावल लेकर जब वहां पहुंचे तो उस कमरे का दरवाजा टूटा हुआ पाया। उन्होंने बहुत तलाश किया लेकिन वह नहीं मिला।

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