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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

ऐसा भी कई बार होता था, इसलिए मैं बिना किसी शक के वहां पहुंच गया। अपने खास कमरे में कंचन मेरा इंतजार कर रही थी। वह सामने ही पलंग पर बैठी दरवाजे की तरफ देख रही थी। मेरे दाखिल होते ही उसकी नजरें मेरी आंखों से मिल गईं। उस वक्त मैंने कंचन के चेहरे पर ऐसी कठोरता देखी, जैसी अपनी जिंदगी में पहले कभी नहीं देखी थी। गोरा और मासूम चेहरा गुस्से से दहककर लाल हो रहा था। जबड़े की हड्डियां गालों को जैसे फाड़ डालना चाहती थीं। आंखें लाल होकर ऐसी पथराई-सी हो रही थीं - मानो लाल संगमरमर की बनी हों। एक बार को तो मैं अपनी बड़ी बहन की यह मुद्रा देखकर कांप उठा।

''दरवाजा बंद कर दो।'' कंचन की आवाज जैसे किसी खतरनाक शातिर से जा मिली थी।

मैं दहल-सा गया। यह आवाज मुझे अपनी बहन कंचन जैसी न लगी। एक बार को तो मैं सोचकर घबरा गया कि कंचन आखिर दरवाजा बंद करने के लिए क्यों कह रही है? बोला- ''क्यों बहन - ऐसी क्या बात है?''

''सुना नहीं, दारोगा साहब!'' कंचन सख्त लहजे में बोली- ''दरवाजा बंद कर दो - यह हुक्म बहन का नहीं महारानी का है - लेकिन न चाहते हुए भी हमारे सीने में धड़कता बहन का दिल रहम करने के लिए कह रहा है। यही सबब है कि हम तुमसे दरवाजा बंद करने के लिए कह रहे हैं - ताकि हमारी बातें हम तक ही रहें।''

कंचन की आवाज में कुछ ऐसी बात थी कि मुझे हुक्म की तामील करनी पड़ी।

जैसे ही मैं दरवाजा बंद करके उसकी तरफ मुड़ा, उसने सवाल किया- ''मैं तुम्हारी क्या हूं?''

एक शायत के लिए तो मेरा दिमाग बुरी तरह से चकरा गया था। परन्तु खुद को संभालकर बोला- ''ये तुम कैसी बातें कर रही हो, बहन?''

'मैं सवाल के जवाब में सवाल नही मेघराज--जवाव चाहती हूं।'' कंचन ने गुर्राकर कहा- ''साफ और ठीक-ठीक जवाब दो। मैं कौन हूं तुम्हारी?''

'बहन!''

'क्या तुम इसी बहन से हर साल अपने हाथ में राखी बंधवाते हो?''

''इसमें क्या शक है?''

''तो अपनी बहन के लिए तुम्हारा फर्ज क्या बनता है?''

'बहन की हिफाजत करना।''

''शादी के बाद किसी की बहन को सबसे प्यारा कौन होता है?''

'पति।'' कहते-कहते मेरा दिल कांप उठा।

''और तुम अपनी बहन के पति की हत्या करके बहन की हिफाजत का फर्ज अदा करना चाहते हो?'' कंचन गुर्रा उठी- ''अपनी बहन की सिंदूर से भरी मांग में उन्हीं हाथों से राख भर देना चाहते हो - जिस हाथ में बहन राखी बांधती है।'' मेरे पैरों-तले से जैसे धरती खिसक गई। दिमाग बुरी तरह से चकरा गया। लगने लगा - जैसे सारा कमरा बुरी तरह से घूम रहा है। सारा संसार चकरा रहा है। मुझे खुद को संभालना भारी हो रहा था। मेरे कानों में जैसे बहुत दूर से आती हुई कंचन की आवाज पड़ रही थी- ''वाह मेघराज, तू खूब भाई का फर्ज अदा कर रहा है। गद्दी के लिए ये भी भूल गया कि उमादत्त तेरी बहन का सुहाग है। तेरा जीजा है। तेरी बहन की ये भरी हुई मांग, ये सिन्दूरी बिंदिया, ये चूड़ियां, सब कुछ उसी के लिए है, जिसे तू राजगद्दी के लिए मार डालना चाहता है। तू सब कुछ भूल गया। तू ये भी भूल गया तेरा जीजा अगर तुझे यहां का दारोगा न बनाता तो आज तेरी क्या हालत होती - तू कहां-कहां मारा फिरता? क्या तू सब कुछ भूल गया? क्या - तुझे कुछ भी याद नहीं रहा?''

कंचन के इन अलफाजों ने मेरी अंतर-आत्मा को झंझोड़ कर रख दिया। इस वक्त तक मैं खुद को काफी हद तक संभाल चुका था। मैंने खुद को संभालते हुए कहा- ''ये तुम क्या कह रही हो बहन, ऐसा तो मैं कभी ख्वाब में भी नहीं सोच सकता। मुझ पर इतने बड़े पाप का बोझ मत लादो। मैं ऐसा नहीं कर सकता, तुम्हें यह वहम क्यों हो गया? आखिर तुम ऐसा क्यों सोचने लगीं कि मैं इतना बड़ा पाप कर सकता हूं?''

''झूठ बोलकर अपनी बहन का दिल मत दुखाओ मेघराज।'' कंचन जैसे तड़पकर कह उठी- ''मुझे सब कुछ मालूम हो चुका है। तुमने उनके खिलाफ बगावत करने की योजना बना रखी है। तुम राजा दलीपसिंह से मिले हुए हो। बोलो, क्या ये सब झूठ है?''

'इसमें कुछ सही और कुछ गलत भी है बहन।'' मैंने संभलकर कहा- ''लेकिन कुछ कहो तो सही कि तुम्हें यह भेद की बात किसने बताई?''

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