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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

कदाचित् तुम मतलब नहीं समझे होगे।

समझने की कोशिश करो.. तुम उमादत्त की फौजों ऐयारों और राजमहल के दूसरे लोगों में से अपने पक्ष के लोग तोड़ते रहो। जब तुम महसूस करो कि तुम्हारी ताकत बगावत कर देने लायक हो गई है तो यह खबर तुम हमें भेज देना। हम उसी दिन से अपनी फौज के जबरदस्त बहादुरों को साधारण भेस में चमनगढ़ भेजना शुरू कर देंगे। जल्दी ही गुप्त रूप से हमारी फौज चमनगढ़ में पहुंच जाएगी और तुम्हारी बगावत में वह तुम्हारा साथ देगी। किसी को मालूम भी नहीं होगा कि इस बगावत में हम तुम्हारा. साथ दे रहे हैं और इस मदद से तुम्हारा काम भी बखूबी निकल आएगा।

लिखना कि तुम्हें तुम्हारी योजना में हमारा जरा-सा बदलाव कैसा लगा।

अगर मंजूर हो तो लिखना। वैसे अगर मौका निकालकर हम आमने-सामने मिल लें तो ज्यादा मुनासिब रहेगा। सारी योजना आराम से बैठकर बना लें और फिर उसी के मुताबिक काम हो। कब और कहां मिल सकते हो, अगले खत में जरूर लिखना।

हम तुम्हारे दोस्त बनकर तुम्हारे साथ हैं।

- दलीपसिंह।

अगले पेज पर बंसीलाल ने लिखा था-

है ना ये कमबख्त दलीपसिंह दारोगा से भी खतरनाक! उसने दारोगा की योजना में मौजूद छोटी-सी गलती भी सुधार दी। मुझे महसूस हो रहा था कि ये दोनों दुष्ट मिलकर वाकई बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा कर सकते हैं। मैंने उपरोक्त खत की नकल करके दारोगा को दे तो दी.. लेकिन डर रहा था। दलीपसिंह ने अपने इस खत में दारोगा से मिलने की इच्छा जाहिर की थी। मैंने सोचा-अगर ये मिल गए और किसी तरह से अगर इनके बीच खतों का भेद खुल गया तो मेरी खैर नहीं है। लेकिन जब मैं इतनी मजबूरियों के बाद भी यह गड़बड़ कर ही रहा था तो इन मुसीबतों से क्या घबराता?

राजा उमादत्त ने मुझे मेघराज की सेवा का ही काम सौंपा था और एक मेघराज की ही सेवा करना जैसे मेरा धर्म बन गया था। उन दोनों के खतों की नकल करके एक-दूसरे तक पहुंचाना। वैसे उनके बीच आने-जाने वाले सारे खत इन कागजों के बीच लगे हैं, लेकिन उनमें कोई खास बात नहीं है। बस, इन खतों में वे योजना ही बनाते रहे हैं। जिस वक्त मैंने दलीपसिंह के उपरोक्त खत का जवाब पढ़ा - जो मुझे तीसरे दिन दारोगा ने दलीपसिंह तक पहुंचाने के लिए दिया था तो मुझे बेहद खुशी हुई। उनमें एक अंश ये था-

हां - बगावत से पहले हमारा एक बार तो मिलना बहुत जरूरी है। मगर मेरी नजर में अभी मिलना ठीक नहीं है। अगर हमारे मिलन का भेद किसी तरह राजा उमादत्त को मिल गया तो वक्त से पहले ही सबकुछ चौपट हो जाएगा। आपसे मिलने की मेरी भी इच्छा है, लेकिन अभी मिलना खतरनाक है। जब मैं ठीक समझूंगा, बगावत से पहले एक बार आपसे जरूर मिलूंगा। ताकि सारी बातों पर मुख्तसर में विचार किया जा सके। कुछ दिनों तक खतों के जरिए ही हम एक-दूसरे को खबर भेजते रहेंगे।

बाद का यह अंश पढ़कर मुझे बेहद खुशी हुई।

कदाचित् यह सोचकर कि उनकी मुलाकात कुछ दिनों के लिए टल गई थी। कुछ दिनों के लिए खतों का भेद खुलने की उम्मीद खत्म हो गई थी। लेकिन ये हालात ज्यादा दिन तक नहीं रहे। अभी उनके आठ-आठ खतों की नकल ही एक-दूसरे तक पहुंचाए थे कि एक दिन अचानक ही मेघराज मुझसे बोला- ''बंसीलाल हम दलीपसिंह से मिलना चाहते हैं।'' मेरी रूह कांप उठी। लेकिन कहता क्या, बोला- ''जैसा आप ठीक समझें।''

'लेकिन तुम्हारी क्या राय है?'' दारोगा ने पूछा- ''अब तो इस लड़ाई में तुम भी हमारे साथ हो। हम सोचते हैं कि तुम वह मजबूरी अपने दिमाग से निकाल दो - जिस वजह से तुमने हमारा साथ देना शुरू किया था। हम चाहते हैं कि तुम दिल से हमारे साथ आ जाओ। हमने अभी तक जो भी कुछ किया है - वह तुमसे तो छुपा हुआ है नहीं। तुम सब कुछ उतना ही जानते हो जितना मैं और दलीपसिंह। यह यकीन भी तुम्हें हो ही गया होगा कि हम दलीपसिंह की मदद से अपने उद्देश्य में कामयाब हो ही जाएंगे। बोलो - अब तक तो हालात हैं, क्या उनमें तुम्हें किसी बात का शक है?''

''जी नहीं!'' मैंने बेदिली से कहा।

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