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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

पहला बयान

 

''खबरदार! होशियार!!''

तुम्हारा आखिरी वक्त आ गया है। जिस रियासत की गद्दी के तुम राजा बने बैठे हुए हो, उसके मालिक हम हैं। तुम्हारे दादा ने यह गद्दी हमसे छीनकर हासिल की थी। राक्षसनाथ का तिलिस्म हमारा है। मैं ये भी तुम्हें बताए देता हूं कि उस तिलिस्म में मेरी भाभी कैद है। मुझे मालूम है, तुम जानते हो कि यह सब तुम्हारे इस बदकार दादा सुरेन्द्रसिंह ने किया था। हमारे माता-पिता की हत्या! मेरी पत्नी की हत्या! हम दोनों भाइयों का कातिल सुरेंद्रसिंह है। बदला लेने के लिए मैंने दुबारा जन्म लिया है! सुरेंद्रसिंह से तो मैं ऐसा बदला लूंगा कि देखने वाला हर इंसान कांप उठेगा। देखो - इस बार मैंने सुरेंद्रसिंह की नाक काट ली है। वह नाक तुम्हें अपने कमरे में जरूर मिल गई होगी, न मिली हो तो ढूंढ़ लेना - तुम्हारे दादा की नाक तुम्हारे अपने ही कमरे में पड़ी है। हो सके तो उसे दोबारा उसके चेहरे पर चिपका देना। और हां -- याद रखो, सुरेंद्रसिंह की हिफाजत के जितने इंतजाम तुमसे हो सकें कर लो, क्योंकि मैं चौबीस घण्टे में एक बार तुम्हारे महल में आऊंगा और मेरे आने के साथ तुम्हारे दादा के जिस्म का एक-न-एक अंग गायब हो जाएगा। अगर मुझे पकड़ सको तो पकड़ लो। न पकड़ सको तो गैरतमंद की तरह चुल्लू-भर पानी में डूब मरना।

तुम समझ तो गए होगे कि मैं कौन हूं - लेकिन फिर भी अपना नाम लिखे देता हूँ - मेरा नाम शेरसिंह है

शेरसिंह!''

चमनगढ़ के दारोगा मेघराज ने इस खत को पढ़ा और चुप हो गया। उसके चेहरे पर कई तरह के उतार-चढ़ाव आते रहे और उसके सामने बैठा दलीपसिंह उन भावों को देखता रहा। इस वक्त दोनों राजा दलीपसिंह के सजे-सजाए खास कमरे में बैठे हुए थे। इस कमरे के सारे खिड़की-दरवाजे बंद थे और चारों तरफ कड़े पहरे का इंतजाम था। दलीपसिंह ने कुछ ही देर पहले हुक्म दिया था कि वे मेघराज से कुछ खास बातें कर रहे हैं और बिना किसी बहुत ही खास वजह के उन्हें दखल न किया जाए। अपनी बात शुरू करने से पहले दलीपसिंह ने मेघराज को यह पत्र दिखाया था।

उस पत्र को एक बार फिर पढ़ने के बाद मेघराज बोला- ''आपको यह पत्र कब मिला?''

''कल सुबह ही।'' दलीपसिंह ने कहा- ''हम उस वक्त अपने कमरे में सोए हुए ही थे कि कमरे के बाहर से हमारे कानों में ऐसी आवाज पड़ने लगी, मानो किसी तरह की अनहोनी घट गई हो। अभी हम बिस्तर पर पड़े इसका सबब खोज ही रहे थे कि किसी ने जोर से हमारा द्वार खटखटाया। हमने आगे बढ़कर खोला तो अपने सामने एक सूबेदार को खड़ा पाया। उसका चेहरा बहुत घबराया हुआ-सा था। आंखों से खौफ झांक रहा था। वह कुछ कहना चाह रहा था, किंतु हिचकिचा रहा था। हमने पूछा- 'क्या बात है -- तुम इतने घबराए हुए-से क्यों हो'?'

''गजब हो गया महाराज!' डर और घबराहट के सबब से वह हमें सलाम बजाना भी भूल गया- 'किसी ने महाराज सुरेन्द्रसिंह की नाक काट ली है। उनके मुंह में कोई जालिम कपड़ा ठूंस गया है। वे चीख भी नहीं सकते हैं।'

''क्या...?' उसकी बात सुनकर मैं एकदम बुरी तरह चौंक पड़ा।

''और - उसी वक्त मैंने सूबेदार के चेहरे पर ऐसे भाव देखे, मानो उसके चेहरे का सारा खून निचुड़ता जा रहा है। वह एकटक मेरे पीछे कमरे के फर्श पर कुछ देखे जा रहा था। उसका चेहरा इस कदर पीला पड़ता जा रहा था - मानो मेरे कमरे के फर्श पर पड़ी वह अपनी मौत देख रहा हो।”

''मैंने जब घूमकर उसकी नजरों का पीछा किया तो दिल धक-से रह गया।”

''एक सायत के लिए सांस जैसे रुक गई। वहीं दादा की कटी हुई नाक पड़ी थी।”

''इस तरह से सारे राजमहल में यह खबर आग की तरह फैल गई। चारों तरफ अफरा-तफरी मच गई। थोड़ी ही देर में राजमहल के चारों तरफ से लोग दौड़-दौड़कर दादा के कमरे तक आने लगे। वहां हुजूम इकट्ठा हो गया। उसी कमरे में शेरसिंह का यह खत मिला। चारों ओर एक हंगामा-सा खड़ा हो गया। राजमहल के वातावरण पर भय और आतंक-सा छाने लगा। मुझे कुछ नहीं सूझा तो अपने ऐयार को तुम्हारे पास भेजा।''

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