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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

विकास इस जन्म के विजय यानी पिछले जन्म के देवसिंह का भानजा है, रघुनाथ विजय का जीजा है। अजय विजय का भाई है और ठाकुर निर्भयसिंह विजय के पिता हैं। यह बंदर इनका साथी है। ठाकुर निर्भयसिंह राजनगर पुलिस के आईजी हैं.. रघुनाथ सुपरिटेंडेट। राजनगर में यही लोग विजय के मददगार थे। इसे तो सभी जानते हैं... ये वंदना है।

'क्या तुम विजय को पकड़ने में कामयाब न हो सकीं?'' उमादत्त ने पूछा।

'जी नहीं! गोमती ने कहा-- ''गौरवसिंह विजय और रैना नामक उसकी बहन को ले जाने में कामयाब हो गया।''

'क्या!'' गणेशदत्त के मुंह से यह भेद खुलते ही अलफांसे उछल पड़ा - विजय को गौरवसिंह निकालकर लाने में कामयाब हो गया है, वह एकदम गौरवसिंह की ओर मुखातिब होकर जोश में बोला- ''क्यों गौरव.. क्या विजय को तुम यहां ले आए हो?''

'हां चाचा!'' गौरवसिंह बोला- ''पिताजी और चाची (रैना) को मैं ले आया हूं।''

''गुड!' अलफांसे उछल पड़ा- ''कहां है.. विजय कहां है मेरा भाई कहां है?''

''जरा शांति रखिए शेरसिंहजी।'' गुरुवचनसिंह बोले-- ''देवसिंह अब हिफाजत में हैं। हम जल्दी ही आपको उनसे मिलवाएंगे, पहले आप गणेशदत्त का पूरा हाल तो सुन लें -- महाराज देवसिंह यहीं रमणी घाटी में मौजूद हैं।''

''नहीं - पहले मैं अपने भाई से मिलूंगा।'' अलफांसे जैसे पागल हो गया- ''देवसिंह के गले से लगे एक जन्म बीत गया है। सारे किस्से मैं फिर सुनूंगा। सबसे पहले मैं देवसिंह से मिलूंगा। जल्दी बताओ गुरुवचनसिंह - कहां है मेरा भाई?''

''आप पहले सुनिए तो।'' गुरुवचनसिंह ने कुछ कहना चाहा।

''गुरुवचन!'' अलफांसे गुर्रा उठा--- ''आज तक तुमने हमारी हुक्मउदूली नहीं की, ये हमारा हुक्म है कि हमें फौरन देवसिंह से मिलाया जाए।''

''जैसा हुक्म, महाराज।'' गुरुवचनसिंह ने नम्रता के साथ कहा- ''आइए हमारे साथ।'' कहने के साथ ही गुरुवचनसिंह उठकर खड़े हो गए। उनके साथ ही अलफांसे, गौरवसिंह, गणेशदत्त और महाकाल भी चल दिए। गुरुवचनसिंह अलफांसे को साथ लेकर पहाड़ी की तरफ चल दिए। रमणी घाटी की पेचीदा सुरंगों में से होते हुए वे उस कोठरी के पास पहुंच गए जहां विजय गुरुवचन का दिया हुआ वह ग्रन्थ पढ़ रहा था।

'उस कोठरी में देवसिंह है।'' गुरुवचनसिंह ने इशारा करके अलफांसे को बताया।

अलफांसे एकदम पागलों की भांति उस कोठरी की तरफ दौड़ता हुआ चीखा- ''विजय.. विजय...!''

(पाठक ध्यान करें कि यह आवाज विजय ने तीसरे भाग के बाहरवें बयान के अंत में सुनी थी। उस वक्त विजय उस कमरे में बैठा हुआ गुरुवचनसिंह का दिया हुआ वह ग्रंथ पढ़ रहा था जो विजय और अलफांसे के पूर्वजन्म की घटनाओं पर खुद गुरुवचनसिंह ने लिखा था।)

उस वक्त विजय किताब में नन्नी और रमाकांत से ताल्लुक रखने वाला बयान पढ़ रहा था। पाठकों को याद होगा कि नदी किनारे बनी एक कब्र के पास नन्नी और रमाकांत की बातें हो रही थीं। नन्नी रक्तकथा का लालच देकर रमाकांत को कब्र के अंदर ले गई। उसी वक्त कब्र के पीछे से एक साथ दो नकाबपोश खड़े हुए और उनमें से एक दूसरे से बोला- 'ये नन्नी तो बड़ी बद्कार है.. क्यों झूठी-सच्ची बातें बनाकर रमाकांत को ले गई है?'

उसके जवाब में दूसरे नकाबपोश ने कहा था- 'लेकिन ये समझ में नहीं आता कि इस तरह की झूठी बातें बनाकर वह रमाकांत से क्या चाहती हैं?' बस - अभी विजय ग्रंथ में लिखा नकाबपोश द्वारा बोला गया यही वाक्य पढ़ पाया था कि उसके कानों में आवाज पड़ी- 'विजय-विजय!'

पाठक यह जानने के लिए तीसरे भाग का बारहवाँ बयान देख सकते हैं। आवाज सुनते ही विजय ने किताब से नजरें हटाकर उधर देखा - सामने से अलफांसे दौड़ता हुआ उसकी तरफ आ रहा था। जोश में विजय ने ग्रन्थ एक तरफ पटका और उछलकर खड़ा हो गया। उसने एकदम नारा लगाया- ''अबे लूमड़ मियां - तुम?''

''हां, विजय!'' अलफांसे उसकी तरफ भागता हुआ चीखा- ''मैं - तेरा भाई शेरसिंह!''

''शेरसिंह!'' यह नाम सुनते ही विजय भी जैसे पागल हो गया- 'मैं आ रहा हूं।' चीखता हुआ विजय अलफांसे की तरफ दौड़ पड़ा।

विजय और अलफांसे। इस जन्म के विचित्र से दोस्त और दुश्मन! देवसिंह और शेरसिंह! पूर्व जन्म के दो सगे भाई!

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