लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 5

देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056
आईएसबीएन :0000000

Like this Hindi book 0

चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

इस सवाल का जवाब मुझे उससे आसानी से नहीं मिला। उसे कई तरह की खतरनाक यातनाएं देनी पड़ीं। अपने अल्फाजों को कम-से-कम पांच बार कहना पड़ा, तब कहीं जाकर उसने बताया- 'इस तहखाने के ऊपर जाकर - दाहिनी तरफ को एक लम्बी गैलरी जाती है। उसी गैलरी में अंत का कमरा महाराजा सुरेंद्रसिंह का ही है...। इस वक्त वे वहीं पर सो रहे होंगे।'

उसके गले की पुनः वे दोनों नसें दबाकर मैं तहखाने से बाहर आया। मैं उस कमरे के सामने पहुंच गया, जिसके बारे में उसने कहा था। कमरे का दरवाजा अंदर से बंद था। एक सायत तो मैं बंद दरवाजे के पास खड़ा हुआ यह सोचता रह गया कि क्या करना चाहिए। इसके बाद मैंने दरवाजे पर दस्तक दी। दो-तीन बार दस्तक देने के बाद अंदर से आवाज आई- 'कौन है?'

'मैं हूं दादाजी - दलीपसिंह।' मैंने दलीपसिंह की ही आवाज में कहा।

'अच्छा, खोलते हैं।' अंदर से आवाज आई और कुछ देर बाद दरवाजा खुल गया। मेरी आंखों के सामने बूढ़ा. सुरेंद्रसिंह खड़ा था। वही सुरेंद्रसिंह, जिसने मेरी हत्या की थी...। सुरेंद्रसिंह की उस जमाने और इस जमाने की सूरत में काफी फर्क आ गया था। कई सायत के लिए तो यह मेरी पहचान में नहीं आया, किंतु मुझे उसके चेहरे पर अपने हत्यारे के चेहरे की झलक मिल गई।

उसने भी जब अपने सामने दलीपसिंह की जगह मुझे देखा तो बोला- 'तुम कौन हो?'

उसकी आवाज सुनते ही जैसे मेरा खून उबल पड़ा। मैं अपने पिछले जन्म के हत्यारे की आवाज सुन रहा था। इस आवाज को सुनकर मैं अपने होश में नहीं रहा और दरवाजे में खड़े सुरेंद्रसिंह को मैंने इतनी जोर से धक्का दिया कि वह लड़खड़ाकर अंदर फर्श पर जा गिरा। मैंने फौरन कमरे में दाखिल होकर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया, अभी सुरेंद्रसिंह फर्श से उठने की कोशिश कर रहा था कि मैंने अपने बूट की ठोकर बहुत जोर से उसके चेहरे पर मारी।

उसके कण्ठ से एक चीख निकली और मुंह से खून बहने लगा। उसे सामने देखकर मुझ पर खून सा सवार होता जा रहा था। मैं आगे बढ़ा और उसका गिरेबान पकड़कर ऊपर उठाता हुआ बोला- 'पहचाना मुझे, कौन हूं मैं?'

'नहीं -- हम तुम्हें नहीं जानते। सुरेंद्रसिंह ने कहा- 'हमारी समझ में नहीं आता कि तुम हमारे साथ ऐसा बर्ताव क्यों कर रहे हो? तुम्हारी हमसे दुश्मनी क्या है? हमने अपने जीवन में आज तुम्हें देखा भी पहली बार है।'

'शेरसिंह तो याद होगा?' मैंने दांत भींचकर उससे सवाल किया। यह नाम सुनकर सुरेंद्रसिंह चौंका और बोला- 'हां - एक जमाने में शेरसिंह हमारे खास ऐयार हुआ करते थे। बड़े-बड़े काम चुटकियों में पूरा कर देने की उनकी आदत थी। उन्हीं के डर से कोई हमारी ओर तिरछी आंख उठाकर भी देखने की जुर्रत नहीं करता था।'

'और फिर उसी शेरसिंह को ही तूने मार डाला..!' अब मेरी आवाज खुद-बखुद ही गुर्राहट में बदलती जा रही थी।

'नहीं....!'

'बको मत सुरेंद्रसिंह।' उसकी बात बीच में ही काटकर मैं दहाड़ उठा- 'मेरे सामने झूठ नहीं चलेगा। मैं खुद शेरसिंह हूं। मेरी पत्नी फूलवती का हत्यारा भी तू ही है। गौर से देख - मैं वही शेरसिंह हूं जिसके खून से तूने आज से चालीस साल पहले अपने हाथ रंगे थे।'

'ये तुम क्या कह रहे हो...?' मेरे उपरोक्त शब्द सुनते ही सुरेंद्रसिंह बुरी तरह चौक पड़ा- 'तुम शेरसिंह।'

'हां, हम ही शेरसिंह हैं।' मैं बोला- 'पिछले जन्म की एक-एक बात हमें अच्छी तरह से याद है। हम तुझे छोड़ेंगे नहीं, लेकिन इतनी आसानी से मारेंगे भी नहीं। हम ये कभी गवारा नहीं करेंगे कि हमारा हत्यारा इतनी आसान मौत पा जाए...। हम तुझे इस तरह तड़पा-तड़पाकर मारेंगे कि न केवल तू मौत को हासिल करने के लिए बेचैन हो उठे - बल्कि तेरे सगे संबंधी तेरी मौत चाहने लगें। इतनी आसानी से मैं तुझे नहीं मारूंगा - तेरे पास इस तरह धीरे-धीरे मौत आएगी कि तू खुद मौत से लिपट जाने के लिए बेचैन हो उठेगा - मैं तुझे यहां से ले भी नहीं जाऊंगा - तू यहीं रहेगा। अपने राज्य में - मैं यहां रोज आया करूंगा, तुझसे अपना बदला लेने, मैं तुझे एक नहीं, अनेक मौतें दूंगा - रोजाना एक मौत।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

Bhatat Kankhara

Dec kantt santii6