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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

'कमाल हो गया !' शीला के मुंह से इस बार मर्दानी आवाज निकली - दलीपसिंह ने इसकी तारीफ तो इतनी की थी कि हमें यह हब्वा नजर आने लगा। ये शेरसिंह, शेर तो क्या गीदड़ भी नहीं निकला। इसे तो हमने बड़ी आसानी से अपने धोखे में फंसा लिया। रमणी घाटी से यहां तक ऐसी-ऐसी बातों में फंसाकर हम इसे यहां तक ले आए कि गुरुवचनसिंह को यह नकली समझने लगा। हम तो सोच रहे थे कि न जाने यह किस-किस तरह से कब्जे में आएगा.. लेकिन यह तो कुछ भी नहीं निकला। दलीपसिंह से कहना कि हमें वह ऐसे काम सौंपा करे, जो वाकई उनका कोई दूसरा ऐयार न कर सके।' कहते हुए उसने अपने जिस्म से जनाने कपड़े उतार दिए। उन कपड़ों के नीचे उसने मर्दाने कपड़े पहन रखे थे। लम्बे बालों की विग उतारी। मैंने उसे पहचाना तो नहीं लेकिन था वह मर्द ही।

(पाठको, भले ही अलफांसे ने उसे न पहचाना हो, मगर आप उसे जरूर पहचानते हैं। क्योंकि वह उमादत्त का दारोगा मेघराज है।)

लेकिन दारोगा साहब, आपने इसे फंसाया कैसे?' उनमें से एक घुड़सवार ने पूछा।

'अगर तुम्हें यही बातें बता दें तो आगे से दलीपसिंह कभी किसी काम के लिए हमें याद न करे।' दारोगा ने कहा-- 'इस बात को छोड़ो, जब मैं दलीपसिंह से मिलूंगा.. खुद बता दूंगा। फिलहाल तुम इतना करो कि इसे यहां से उठाकर दलीपसिंह के पास ले जाओ। कहना कि मैं सुबह को उनसे मिल लूंगा.. अब मैं चमनगढ़ की तरफ जा रहा हूं।' कहते हुए दारोगा ने अपना घोड़ा दरख्त की जड़ से खोला और उस पर सवार हो गया।

'कुछ थोड़ा-सा तो बता दो दारोगा सा'ब कि आपने इतने बड़े ऐयार को इतनी आसानी से किस तरह फंसा लिया?'

'ज्यादा ही जिद करते हो तो इस वक्त तुम्हें केवल इतना ही बता सकता हूं कि मैंने इसे एक ऐसी कहानी सुनाई कि यह अच्छे-खासे गुरुवचनसिंह को सिंगही समझ बैठा। पहले मैंने अपनी बातों से इस पर पूरा यकीन जमाया, फिर यहां लाकर उस यकीन का फायदा उठा लिया।' इसी तरह.. थोड़ी देर तक दारोगा अपनी ऐयारी की गप हांकता रहा और फिर बोला- 'अच्छा, तो हम चलें।'

जवाब में चारों घुड़सवारों ने उसे सलाम बजा दिया। मैं आराम से जमीन पर लेटा हुआ उनकी एक-एक हरकत देख रहा था। दारोगा ने अपना घोड़ा मोड़ा तो मेरा दिल ऐसा चाहा कि इसे वापस न जाने दूं और आज इसे यहीं मजा चखाऊं, लेकिन उसी वक्त मेरे दिमाग में विचार उठा कि अगर मैं जोश में आया.. तो फिलहाल असली आदमी तक पहुंचने से महरूम हो जाऊंगा। मैं उनकी बातों से समझ चुका था कि यह सब कार्यवाही सुरेंद्रसिंह का पोता दलीपसिंह करवा रहा है। मैं उसी तक पहुंचना चाहता था.. और इसी सबब से मैंने दारोगा को उसकी करनी का फल चखाने की इच्छा फिर किसी मौके के लिए त्याग दी और उसी तरह चुपचाप जमीन पर पड़ा रहा।

दारोगा उनसे यह कहकर चला गया- 'राजा दलीपसिंह से हमारा सलाम बोलना।'

उसके जाने के बाद एक घुड़सवार दूसरे से बोला- 'वाकई शेरसिंह जैसे ऐयार को फंसाकर दारोगा सा'ब ने इनाम का काम किया है।'

'सो तो है।' दूसरा घुड़सवार बोला- 'लेकिन ये समझ में नहीं आता कि दारोगा साब हमारे राजा का काम क्यों कर करते हैं? वे दारोगा तो राजा उमादत्त के हैं और उमादत्त से हमारे राजा दलीपसिंह की लड़ाई है, फिर न जाने क्यों दारोगा सा'ब हमारे राजा के साथ...।'

'ये राज-काज की बातें हैं, अगर हमारी समझ में आने लगें तो हम ही राजा हों।' तीसरे घुड़सवार ने कहा- 'चलो... इसे उठाओ और दलीप नगर की ओर चलो। अपना काम पूरा करने के बाद आराम से अपने घर जाकर सोएंगे।'

“उन्होंने बेहोश जानकर मेरी गठरी बनाई और मुझे लेकर रवाना हो गए।”

''तो इसका मतलब आपको यहीं से ले जाने वाला मेघराज था।'' गुरुवचनसिंह बोले।

''कौन मेघराज?'' अलफांसे ने सवाल किया।

'यह राजा उमादत्त का साला और दारोगा है। वह एक छोटे-से तिलिस्म का दारोगा भी है। मेघराज एक नम्बर का धूर्त और चालाक है। वह बात वाकई सोचने लायक है कि उमादत्त का दारोगा होकर.. वह राजा दलीपसिंह के लिए काम क्यों करता है?''

''और यह भी सोचने लायक बात है गुरुजी कि मेघराज को रमणी घाटी के रास्तों का पता कैसे लगा?'' गौरवसिंह ने कहा।

''कहीं दलीपसिंह और मेघराज मिलकर कोई नया बखेड़ा तो नहीं करना चाहते हैं?'' महाकाल ने भी एक सवाल खड़ा कर दिया।

''खैर !' गुरुवचनसिंह बोले- ''इन सब सवालों के जवाब बाद में खोजेंगे।'' इसके बाद उन्होंने अलफांसे की तरफ देखकर कहा- ''आपके हाल में बड़ा आनंद आ रहा है। आगे कहिए.. क्या हुआ?''

 

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