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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''कह नहीं सकते...!'' गौरवसिंह ने जवाब दिया- ''हमने उन्हें बहुत तलाश किया...। सारी रात आस-पास के सागर में चक्कर काटते रहे - दिन निकल आया - मगर उजाले में भी दूर-दूर तक सागर में उसका पता नहीं था - पिताजी उन लोगों को इस तरह छोड़कर मेरे साथ आना नहीं चाहते थे - इसलिए ही लगातार तीन दिन और तीन रात उन्हें सागर में ढूंढ़ते रहे - लेकिन फिर भी नाकाम ही रहे...! तब मजबूर होकर म्रुझे इधर का रास्ता पकड़ना पड़ा - आज बीसवें दिन हम इस टापू पर आकर लगे।''

'रास्ते में भी कहीं उनका स्टीमर नजर न आया?'' महाकाल ने सवाल किया।

'नहीं...!' गौरवसिंह ने बताया- ''इस स्टीमर पर हम तीन ही रह गए थे - यानी मैं, पिताजी और चाची (रैना)। मैंने स्टीमर नागला पर रुकवाया और वहां से पैदल ही यहां आए। इन्द्र देवता की मेहरबानी रही, कि वहां रास्ते में हमारा किसी से टकराव न हुआ और हम यहां पहुंचे।

यहां आकर सबसे पहले मैं गुरुजी से मिला और पिताजी को उन्हें सौंपकर यहां आ गया।''

''क्या अभी गुरुजी से तुम्हारी बातें नहीं हुईं?'' महाकाल ने पूछा।

''केवल उतनी ही बातें हुई हैं, जितनी कि मैं तुम्हें बता चुका हूं।'

''क्या उन्होंने यहां के बारे में तुम्हें अभी तक कुछ भी नहीं बताया है...?'' महाकाल ने ये कहकर फिर अगला सवाल किया।

''उन्होंने कहा है कि मेरी गैरहाजिरी में यहां बहुत बड़े बड़े बखेड़े हो गए हैं।'' गौरवसिंह ने कहा- ''मैंने उनसे उन बखेड़ों के बारे में पूछा तो कहने लगे - तुम झरने के किनारे बैठो, मैं वहीं आता हूं..।''

''और यहां पर बैठा हुआ मैं तुम्हें मिल गया...।'' कहकर महाकाल मुस्कराया।

''अब तुम ही बताओ ना कि मेरे बाद यहां क्या कुछ हो गया है?'' गौरवसिंह ने व्यग्रता से पूछा- ''अपने साथी तो सब ठीक हैं?'' अभी महाकाल कुछ जवाब देना ही चाहता था कि एक ओर से गुरुवचनसिंह आते दिखाई दिए। उन पर नजर पड़ते ही महाकाल बोला- ''लो, गुरुजी आ रहे हैं! अब उनसे ही पूछ लीजिए - वे खुद ही बता देंगे!''

देखते-देखते गुरुवचनसिंह भी उनके पास आ गए। दोनों ने श्रद्धा से उनके पैर छुये और सम्मान से उन्हें अपने पास बैठाया - और फिर - गौरवसिंह ने नए सिरे से इस सवाल के साथ बातचीत शुरू की- ''पिताजी और चाचीजी को आप कहां छोड़ आए?''

रैना बिटिया तो पैदल के लम्बे सफर से थक गई थी ना, इसलिए उसे एक कमरे में आराम से लिटा आया हूं।'' गुरुवचनसिंह ने कहा- ''देवसिंह को पढ़ने के लिए वह ग्रंथ दे आया हूं जो मैंने उनके पिछले जन्म की घटनाओं के बारे में लिखा है। वह कोठरी नम्बर दस में आराम से बैठे उस ग्रंथ को पढ़ रहे हैं। उन्हें वहीं पढ़ता छोड़कर मैं तुम्हारे पास तुमसे कुछ जरूरी बातें करने चला आया हूं।''

''लेकिन उन्हें वह ग्रंथ पढ़ाने से क्या लाभ, गुरुजी..?'' गौरवसिंह ने पूछा।

''ग्रंथ पढ़कर - उन्हें अपने पिछले जन्म की सारी बातें अच्छी तरह से याद आ जाएंगी।'' गुरुवचनसिंह ने कहा- ''और उन सब जानकारियों के बाद उन्हें यहां अपने दोस्त और दुश्मन की पहचान होगी। उन्हें यहां क्या करना है - यह भी वे खुद ही जान जाएंगे।''

''खैर...!'' गौरवसिंह बोला- ''पिताजी को तो मैं ले आया - मगर आपने कहा था कि हमारे बाद यहां बहुत-से बखेड़े हो गए हैं। मैं वही सुनना चाहता हूं। शेरसिंह चाचा का कुछ पता लगा या नहीं, मुकरंद और रक्तकथा का क्या हुआ? हमारे सब साथी तो ठीक हैं?'' - ''और सब बातें तो बाद में बताएंगे, सबसे पहले तो यही सुनो कि हमें शेरसिंह मिल चुके हैं।'' गुरुवचनसिंह ने बताया।

'कहां हैं वो...? कैसे हैं...? किस तरह मिले..?'' जज्बाती अंदाज में - एक ही सांस में गौरवसिंह ने कई सवाल कर डाले।

''सब्र से काम लो, अभी बताते हैं।'' गुरवचनसिंह ने कहा- ''वे हमें मिल गए हैं - उन्हें अपने पिछले जन्म की सारी बातें याद भी आ गई हैं। मगर फिर भी न जाने कौन ऐयार उन्हें यहां से धोखा देकर ले गया!''

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