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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

बड़ी मुश्किल से - मैं आज से ठीक सैंतीस वर्ष पहले - उस रियासत के वारिस गौरवसिंह और वंदना को लेकर भाग गया था। उस वक्त हमारे पास इतनी ताकत नहीं थी कि हम दलीपसिंह से टकरा सकते। मगर आज - सैंतीस साल गुजर जाने के बाद हम दावे से कह सकते हैं कि इस जालिम सरकार का तख्ता पलटने के लिए हम पूरी तरह ताकतवर हैं...। गौरवसिंह और वंदना बड़े हो चुके हैं, मेरी शागिर्दी में उन्होंने ऐयारी सीखी है - पिछले सालों में हमारे बहुत-से दुश्मनों ने हमें ढूंढ़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे। आज से हम खुद ही सामने आ रहे हैं। गौरवसिंह और वंदना ने अपनी रियासत वापस लेने की प्रतिज्ञा की है। इतने सालों तक मैं किसी खास वजह से चुप था। अब वह वक्त आ गया है, जिसका हमें इंतजार था। इस सरकार को हमारा हक देना ही होगा - वर्ना दलीपसिंह के हर मुलाजिम की लाश इसी तरह किसी-न-किसी दरख्त पर लटकी पाई जाएगी।

गुरुवचनसिंह।

उस दिन की इस घटना ने सारे दलीप नगर में एक सनसनी-सी फैला दी। जितने भी लोगों को राजमहल में तलब किया गया था, सबके बीच तब गोष्ठी हुई। कुछ देर, तक तो वहां पर इसी बात पर आश्चर्य प्रकट किया जाता रहा कि ये लोग अचानक किस तरह उभर आए? इसके बाद वहां इस बात पर विचार होने लगा कि इन लोगों से कैसे निपटा जाए? अंत में यही फैसला हुआ कि अब आराम के दिन नहीं रहे। सभी ऐयारों को चौकस हो जाना है और इनका पता लगाना है। इस फैसले के बाद वह गोष्ठी खत्म हो गई।

अब मैं यहां पर आपके सामने अपने दिल का थोड़ा-सा हाल बयान कर देना चाहता हूं। बेशक उस वक्त मेरे दिल में बदी आ गई थी। रक्तकथा का असली महत्व मेरी समझ में आ चुका था। मेरा दिल ईमानदारी से हटने लगा था। मेरे दिल में यह विचार पनपने लगा था कि किसी को भी इस बात का गुमान नहीं है कि रक्तकथा हमारे पास है और वह इतनी महत्त्व की चीज है, फिर भला मैं उसे गौरवसिंह इत्यादि को क्यों दूं? क्यों न हम दोनों ही भाई मिलकर राक्षसनाथ के इस तिलिस्म को तोड़ें और तिलिस्म के मालिक कहलाएं?

मेरे दिमाग में इसी तरह के विचार पनपने लगे और एक दिन मैंने प्रेतनाथ से कहा- 'भैया...!'

'हां।' प्रेतनाथ ने मेरी तरफ देखते हुए कहा।

अब तो गौरवसिंह इत्यादि भी सामने आ रहे हैं। अब आपका क्या इरादा है?' मैंने उनके दिल की टोह लेने के लिए कहा।

लेकिन यह तो पता ही नहीं लगता कि वे लोग हैं कहां - उनका ठिकाना किस जगह है?' प्रेतनाथ ने कहा- 'अपना राज्य लेने के लिए उन्होंने कार्यवाही तो शुरू कर दी है - मगर दुश्मनों के हाथ न आने के सबब से वे अपना पता तो देते नहीं हैं, फिर हम उन तक कैसे पहुंचे?'

'उन तक पहुंचकर आप क्या करना चाहते हैं?' मैंने पूछा।

'तू क्या करेगा?' प्रेतनाथ के सवाल से मुझे ऐसा लगा, जैसे उनके दिल में भी मुझसे ही मिलते-जुलते विचार हैं और वे खुद भी मेरे मन की टोह लेना चाहते हैं। अत: मैं बोला- 'उन्हें वह रक्तकथा तो देनी ही है।'

“सुनो पिशाचनाथ।' प्रेतनाथ मुझे समझाने वाले ढंग से बोले- 'जरा सोचो - यह तिलिस्म हमारे पिता के दादा ने अपनी मेहनत से बनाया। बाप ने खून से रक्तकथा लिखी। सारे तिलिस्मी चक्कर हमारे पिता के दादा ने फैलाए, अमरसिंह ने क्या किया? केवल इतना ही कि उन्हें तिलिस्म बनाने की आज्ञा दे दी। इससे ज्यादा उन्होंने क्या किया?'

'आप कहना क्या चाहते हैं, भैया?' मैंने समझने के बाद भी सवाल किया।

'जरा ध्यान से सोचो पिशाच - राक्षसनाथ के तिलिस्म पर असली हक हमारा है या गौरवसिंह का?' प्रेतनाथ अपने दिल का हाल खोलते जा रहे थे - 'सारी मेहनत तो हमारे वंशजों ने की थी, फिर भला हम इतना बड़ा खजाना उनके हाथ क्यों लगने दें? क्या हम दोनों भाइयों में इतना दम नहीं कि उस तिलिस्म पर हम हक जमा लें और दुनिया के सबसे बड़े तिलिस्म के मालिक बन जाएं?'

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