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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''हम तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जानते हैं, पिशाच।'' अर्जुनसिंह ने पुन: उसकी बात काटकर कहा- ''और, तुम जो कुछ हमें इस वक्त बताना चाहते हो - वह हम फिर कभी फुर्सत में सुनेंगे। इस वक्त सबसे जरूरी काम नानक और प्रगति को लाना है।''

हम यहां यह कह सकते हैं कि पिशाचनाथ उन्हें कोई बहुत ही जरूरी बात बताने जा रहा था। उसने बहुत कोशिश की कि अर्जुनसिंह उनकी बात सुन लें - परन्तु वे नहीं माने और आखिर में पिशाचनाथ को इसी बात के लिए तैयार होना पड़ा कि वह पहले नानक और प्रगति को रिहा करवाने में अर्जुनसिंह का साथ दे।

उसे अर्जुनसिंह की इस जिद के सामने झुकना ही पड़ा।

अब पिशाचनाथ का काम था.. अर्जुनसिंह को साथ लेकर यहां से चलना। पाठक बखूबी जानते हैं कि असल में नानक और प्रगति पिशाचनाथ की ही कैद में हैं। वह उमादत्त से अर्जुनसिंह का सौदा भी करके आया है। मगर अब अर्जुनसिंह की जानकारी में वह उन्हें दलीपसिंह के महल में ले जाना चाहता है। पिशाचनाथ अर्जुनसिंह को अपनी कैद में ले जाता है, या उमादत्त से किया सौदा निभाता है अथवा उन्हें राजा दलीपसिंह को सौंपकर ही अपना कोई कार्य सफल करना चाहता है? हम पिशाचनाथ के साथ आगे चलकर यही जानना चाहते हैं।

हम देखते हैं कि अर्जुनसिंह और पिशाचनाथ जंगल में एक तरफ रवाना हो गए।

पिशाचनाथ ने तरकीब के मुताबिक अपना भेस नानक जैसा बना लिया है और वे राजा दलीपसिंह के महल की तरफ जा रहे हैं। चलते-चलते उन्हें शाम हो जाती है और जिस वक्त सूरज डूबना चाहता है, वे एक नदी किनारे पहुंच जाते हैं।

''थोड़ी भूख-सी महसूस हो रही है, अर्जुनसिंह जी।'' पिशाचनाथ बोला- ''थक गए हैं, आराम भी हो जाएगा। मेरे बटुए में कुछ फल और मेवे पड़े हैं, नदी भी है ही, सोचता हूं थोड़ा-सा खाकर भूख को शांत करूं।''

''हम भी भूख के ही बारे में सोच रहे थे।'' अर्जुनसिंह ने समर्थन दिया।

इस तरह दोनों की राय से वे नदी किनारे बैठ गए और पिशाचनाथ ने बटुए में से खाने का सामान निकाला। अर्जुनसिंह ने अभी दो-चार पेड़े ही खाए थे कि उनका सिर चकराने लगा और अगले ही सायत वे बेहोश हो गए। पिशाचनाथ ने फौरन पोटली बांधी और बटुए में रखी। अर्जुनसिंह की गठरी बनाकर अपने कंधे पर लादी और पहले से ज्यादा तेज चाल से एक तरफ को चल दिया।

जिस वक्त अर्जुनसिंह को होश आया तो उन्होंने खुद को पिशाचनाथ के ही सामने पाया। उन्हें यह मालूम नहीं था कि वे कितनी देर बेहोश रहे। हां, होश में आते ही वे एकदम उठ खड़े हुए और सामने पिशाचनाश को देखकर बोले- ''तुम.. धोखेबाज, तुमने हमें...!''

''अभी आप मुझे कुछ न कहें अर्जुनसिंहजी।'' पिशाचनाथ बोला- ''पहले मेरी पूरी बात सुन लें। मैं आपको अपनी जिंदगी की कहानी वहीं सुनाना चाहता था - किंतु आपने गवारा न किया। इसलिए मजबूरन मुझे आपको यहां लाना पड़ा।''

'नानक और प्रगति कहां हैं?'' अर्जुनसिंह गुस्से में चीख पड़े। - ''उनकी आप चिंता मत कीजिए। वे दोनों हिफाजत से हैं। उन्हें दलीपसिंह ने नहीं - मैंने खुद पकड़ा है।''

''क्या बकते हो?''

''हम ठीक ही कहते हैं।'' पिशाचनाथ ने कहा- ''यह सब हमने आपको अपनी जिंदगी की कहानी सुनाने के लिए ही किया है।''

अर्जुनसिंह उसका एक-एक लफ्ज सुनकर बुरी तरह भड़क रहे थे - मगर पिशाचनाथ इस वक्त गजबनाक तरीके से शांत था। अंत में अर्जुनसिंह को उसकी बात सुनने के लिए मजबूर होना ही पड़ा। पिशाचनाथ अपने बारे में जो भी कुछ बताने जा रहा है, वह हम अगले बयान में लिखेंगे। मगर पिशाचनाथ कब कहां झूठ और सच बोलता है.. यह हम भी दावे से नहीं बता सकते।

 

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