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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

अभी रामरतन उसकी बात् का कोई जवाब देना ही चाहता था कि उन्हें किसी तरह के खटके की आवाज आई। यह आवाज उसी तरफ से आई थी, जिधर वह दरवाजा था, जिससे मेघराज यहां आया-जाया करता था। --- ''लो.. कोई और तो नहीं-वह दुष्ट आ गया जान पड़ता है।'' चंद्रप्रभा बुदबुदा उठी।

उसी पल वह रास्ता खुला और सीढ़ियों पर खड़ा एक नकाबपोश नजर आया। चंद्रप्रभा और रामरतन ने उसे देखा तो कई सायत तक लगातार देखते ही रह गए। वह नकाबपोश तेजी से चलकर कोठरी में आ गया। रामरतन उठकर खड़ा हो चुका था। वह रामरतन के ठीक सामने आकर खड़ा हो गया। नकाब में से झांकती उसकी आंखों में आंखें डालकर रामरतन ने पूछा- ''कौन हो तुम?''

''रामरतन तुम.. मेरे बच्चे!'' कहते हुए नकाबपोश ने अपनी नकाब उतार दी- ''ये तुम्हारा क्या हाल हो गया है?''

जमीन पर लेटी चंद्रप्रभा ने जब यह आवाज सुनी तो न जाने उसके बेजान जिस्म में कहां से जान आ गई कि वह भी एकदम खड़ी हो गई - जहां रामरतन खड़ा हुआ अपलक बख्तावरसिंह को देख रहा था, वहां चंद्रप्रभा भावुकता में चीख पड़ी- ''पिताजी आप?''

''हां बेटी।'' बख्तावरसिंह की आंखो में आंसू आ गए- ''तेरी ऐसी हालत...!''

''पिताजी...!'' भावावेश में चीखकर चंद्रप्रभा बख्तावरसिंह के गले से लिपट गई।

बख्तावरसिंह ने उसे स्नेह से अपने गले से लगा लिया और बोला- ''तुम्हारी यह हालत देखकर मेरा दिल फटा जा रहा है, मेरे बच्चो, उस दुष्ट और जालिम दारोगा से मैं तुम पर हुए एक-एक अत्याचार का बदला लूंगा।''

रामरतन ने भी आगे बढ़कर बख्तावरसिंह के पैर छुए। बख्तावरसिंह ने उसे भी अपने गले से लगा लिया।

कुछ देर यूं ही उनके बीच दुःख-दर्द की बातें होती रहीं, अंत में बख्तावरसिंह ने कहा- ''मुझे काफी पहले मालूम हो गया था कि उस जालिम मेघराज ने तुम्हें इस तिलिस्म में कैद कर रखा है, लेकिन क्या करता, बिना इस तिलिस्म की मुनासिब जानकारी के मैं यहां नहीं आ सकता था। बड़ी मेहनत के बाद मैं मेघराज के घर से, इस तिलिस्म से संबंधित एक किताब चुराने में कामयाब हुआ। तब कहीं जाकर आज यहां पहुंचा हूं। इस वक्त भी यहां ज्यादा देर रहना मुनासिब नहीं है। हमें जल्दी इस तिलिस्म से बाहर निकल जाना चाहिए...। दारोगा किसी भी सायत यहां पहुंच सकता है। वैसे हम चाहे उससे कितने भी ज्यादा ताकतवर हों, लेकिन इस तिलिस्म में दारोगा की ताकत हर हालत में हमसे ज्यादा है। दारोगा का डर हमें तभी तक है, जब तक कि हम यहां हैं। एक बार हम हिफाजत के साथ इस तिलिस्म से बाहर निकल जाएं तो हम उसे देख लेंगे।''

''चलिए - हम यहां से बाहर निकलने के लिए तैयार हैं।'' रामरतन ने कहा।

''क्या तुममें कुछ दूर पैदल चलने की ताकत है?'' बख्तावरसिंह बने पिशाचनाथ ने पूछा।

''अभी उस दारोगा की कैद ने मुझे इतना कमजोर नहीं किया है पिताजी।” रामरतन जोश में बोला-- ''मुझमें न केवल पैदल चलने की ताकत है, बल्कि अभी तो इतनी ताकत है कि दारोगा का गला अपने हथों से घोंट सकता हूं।''

''लेकिन चंद्रप्रभा में हमें इतनी ताकत नहीं लगती कि वह पैदल चल सके।'' पिशाचनाथ ने कहा---- ''फिर हमारी बिटिया वैसे भी बुखार में तप रही है। इसे हम अपने कन्धे पर डालकर ले चलेंगे।'' कहते हुए पिशाचनाथ ने उसे कन्धों पर डाल लिया और रामरतन से बोला--- ''चलो।''

अब पिशाचनाथ उन दोनों को लेकर सीढ़ियों की तरफ बढ़ा।

सीढ़ियां तय करने के बाद वे एक कोठरी में आ गए। कोठरी के एक खुले हुए दरवाजे से जब वे बाहर आए तो एक बारादरी में थे। रोशनी के लिए रामरतन के हाथ में वह लालटेन थी जो उस तहखाने में जला करती थी, जिसमें कि वे लोग कैद थे।

उस वक्त वे लोग रात में से गुजर रहे थे कि अचानक एक मोड़ पर घूमते ही एकदम ठिठक गए।

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