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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

'हां, हम।'' कहने के साथ ही पिशाच ने एक जोर की लात बख्तावरसिंह के पेट में मारी। बख्तावरसिंह पीछे जा गिरा - उसी सायत विक्रमसिंह और बख्तावर के भेस में बेहोशी का नाटक करके पड़े गुलवदन उछलकर खड़े हो गए।

उसी सायत मेघराज ने ताली बजा दी थी।

अभी विक्रमसिंह और गुलबदन अपनी--अपनी तलवारे निकालकर पिशाचनाथ पर हमला करना ही चाहते थे कि कमरे के चारों ओर से निकलकर वहुत-से सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया। पिशाचनाथ ने बख्तावरसिंह को अपने कब्जे में कर लिया था।

मगर इस बीच बख्तावरसिंह के लिए एक बहुत ही तरद्दुद की बात हो गई थी। उसे अपने कब्जे में करते वक्त पिशाचनाथ ने उसके कान में धीरे से एक वाक्य कहा था। बख्तावरसिंह पिशाचनाथ के मुंह से अपने लिए उस वाक्य की उम्मीद कदापि नहीं कर सकता था। मगर उसने बहुत साफ सुना था—“घबराओ मत--मैं जो कुछ कर रहा हूं यह तुम्हारे फायदे के लिए है। मैं इस दारोगा के बच्चे को धोखा दूंगा।”

बस---पिशाचनाथ ने यही लफ्ज तो उसके कान में कहे थे।

लेकिन इन शब्दों को सुनकर बख्तावरसिंह के जेहन में जैसे धमाका-सा हुआ। उसकी समझ में नहीं आया कि उसके कान में लफ्ज कहने वाला पिशाचनाथ है। उसके दिमाग में यह बात जम नहीं पा रही थी कि पिशाचनाथ उसके कान में ऐसा कह सकता है। मगर यह बात भी सही थी कि पिशाचनाथ ने उसके कान में यह बात कही थी! चौंककर उसने पिशाच की तरफ देखा और अब उसके चेहरे से बखख्तावरसिंह के लिए यह अनुमान लगाना कठिन हो गया कि उसके कान में पिशाचनाथ ने यह बात कही थी या नहीं।

कुछ ही देर में बख्तावरसिँह, विक्रमसिंह और गुलबदनसिंह को भी गिरफ्तार कर लिया गया।

''उहूं - तो तुम मेरा भेस बदलकर दारोगा साब को धोखा देना चाहते थे?'' पिशाचनाथ ने गुर्राकर बख्तावर से कहा।

''लेकिन तुम्हें तो हम...।''

''हा...हा...हा।'' उसकी बात को बीच में ही काटकर पिशाचनाथ शैतानी हंसी हंसा! बोला- ''यही कहना चाहते हो ना कि तुम मुझे गिरफ्तार करके अपने कैदखाने में डाल आए हो। लेकिन यह सही नहीं है बख्तावर! जिस पिशाच को तुम कैद में डालकर आए हो, उसने तुमसे कहा होगा कि पिशाचनाथ को लोग एक ही समय में कई जगह देख लेते हैं!''

'जो भी हो।'' सैनिकों की गिरफ्त में फंसा विक्रमसिंह गुर्राया- ''लेकिन तुम्हें हम कभी अपने नापाक इरादों में कामयाब नहीं होने देंगे।''

''जब तुमसे अभी कुछ नहीं हुआ तो आगे क्या करोगे?'' मेघराज ने कहा-- ''तुम जान चुके हो कि मेरे राजा बनने में एकमात्र अड़चन वह कलमदान है और तुम ये भी जान चुके हो कि उसे भी हम आज की ही रात हासिल कर लेंगे। एक बार मैं राजा बन गया तो फिर किसी के करे से कुछ नहीं होगा! जो मेरे खिलाफ बोलेगा, वह सजाए मौत का हकदार होगा।''

''तू अपने नापाक इरादे में कभी कामयाब नहीं हो सकता।' बख्तावरसिंह चीख पड़ा।

''सो देखा जाएगा।'' पिशाचनाथ ने कहा-- ''फिलहाल तो हम कामयाब हैं ही।'' फिर वह मेघराज का तरफ मुखातिब होकर बोला--- ''दारोगा साहब, मेहमानों को मेहमानखाने में पहुंचाओ। फिर कलमदान का भी पता लगाना है।''

“सो ठीक--तुम यहीं बैठो --- मैं अभी इन्हें पहुंचाकर आता हूं।'' कहने के बाद मेघराज ने उन सिपाहियों को अपने साथ चलने का इशारा किया, जिन्होंने बख्तावर, गुलबदन और विक्रम को पकड़ रखा था। जब मेघराज उन्हें कमरे से लेकर निकल गया तो नम्बर आठ कमरे में आया। उस वक्त कमरे में उन दोनों के अलावा कोई दूसरा आदमी नहीं था। पिशाचनाथ ने उससे कहा- ''सुनो।''

नम्बर आठ पिशाचनाथ के करीब आ गया।

पिशाचनाथ ने उसके कान में कोई बात कही जिसे हम नहीं सुन पाए। हां, इतना जरूर बता सकते हैं कि पिशाचनाथ ने उसके कान में जो भी कुछ कहा, उसे सुनने के बाद नम्बर आठ ने उस कमरे में रहकर अपना एक भी सायत खराब नहीं किया और पिशाचनाथ को सलाम बजाकर फौरन वाहर निकल गया। पिशाचनाथ आराम से पलंग पर लेट गया और न जाने किन बातों पर विचार करने लगा।

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