ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 5 देवकांता संतति भाग 5वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
लेकिन वह यहां करे क्या? सीढ़ियों पर उतरने के अलावा और वह कर ही क्या सकता है? अगर वह अपने दिल को किसी तरह समझा-बुझाकर हॉल के फर्श पर कहीं आराम से बैठ भी जाए तो.. तो बैठने से होगा क्या? वह कब तक बैठा रहेगा? दरवाजा खुलेगा नहीं - सीढ़ियों की ओर वह जाएगा नहीं.. तो फिर वह यहां पर बैठकर करेगा ही क्या...? कब तक यहां पर बैठा रहेगा?
इस वक्त या कभी भी इस हॉल में करने के लिए एक काम है सीढ़ियों पर उतरना।' हॉल में बंद हुए किसी भी आदमी को हर हालत में देर-सवेर सीढ़ियों पर से उतरना ही होगा। हुचांग को मानना पड़ा कि तिलिस्म बनाने वाला कोई बहुत ही दिमागदार आदमी था। निश्चय ही उसने ये जगह इसलिए बनवाई होगी कि जो इस हॉल में आए, वह इन सीढ़ियों से जरूर उतरे और किसी भी आदमी को सीढ़ियां उतरने के लिए मजबूर करने के लिए बनाने वाले ने कितने गहरे मनोविज्ञान पर ये जगह बनाई होगी।
इन सब विचारों में उलझकर हुचांग को यह याद तनिक भी नहीं रही कि वह बागारोफ को उस कोठरी से निकालने के लिए पत्थर लेने आया है। उस वक्त तो उसे यह भी ध्यान नहीं रहा कि इस वक्त कोठरी में बैठा बागारोफ उनका इंतजार कर रहा होगा।
इन सब बातों की यादगार से बहुत दूर हुचांग इस वक्त अपने ही तरद्दुद में था।
मजबूर होकर हुचांग को उन सीढ़ियों की तरफ बढ़ना पड़ा।
कुछ देर तक तो वह फर्श वाले दरवाजे के पास खड़ा यह देखता रहा कि कहीं किसी ढंग से यह बंद तो न हो जाए। मगर उसे कहीं कोई ऐसा किवाड़ नजर नहीं आया, जिससे वह रास्ता बंद हो सके। मजबूर होकर उसने अपना दायां पैर बड़ी मुश्किल से पहली सीढ़ी पर रखा।
किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। फिर बायां पैर उसने नीचे वाली सीढ़ी पर रखा। कुछ नहीं हुआ।
इसी तरह से वह सम्भल-सम्भलकर पांच सीढ़ियां उतर गया और छठी सीढ़ी पर पैर रखते ही बहुत जोर से होने वाली गड़गड़ाहट ने उसे डरा दिया और एक खटके की आवाज के साथ वही हुआ, जिसका डर था... यानी हाल और सीढ़ियों का रास्ता बंद। बुरी तरह बौखला गया हुचांग।
एक बार को तो उसका मन किया कि वह जोर-जोर से रो पड़े.. किंतु रोने से होना क्या था?
कुछ पल पूर्व होने वाली गड़गड़ाहट के साथ उसका जिस्म कांप उठा था। गड़गड़ाहट के बंद होने के साथ ही उसका जिस्म स्थिर हो गया था। अब वह पांचवीं और छठी सीढ़ी पर पैर रखे खड़ा था और इस वक्त उसके चारों ओर काजल-सा अंधकार था। इस अंधेरे में उसे केवल अपने से आगे की सीढ़ियां चमक रही थीं। सीढ़ियां क्योंकि सफेद संगमरमर की थीं.. इसलिए अंधेरे के बावजूद उसे अपने से नीचे की तीन-चार सीढ़ियां चमक रही थीं। उसके पास उतरने के अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं था।
वह सीढ़ियां उतरने लगा।
जैसे ही चमकती हुई चार सीढ़ियां उसने तय कीं.. उनके नीचे की चार सीढ़ियां और चमकने लगीं।
इस तरह से कम-से-कम वह आठ सीढ़ियां उतर गया और अब भी उसे अपने आगे की चार सीढ़ियां चमक रही थीं। उनके अतिरिक्त उसे कुछ नहीं चमक रहा था। चमक रहा था तो चारों ओर गहन अंधकार! इतनी सीढ़ियां उतरने के बाद उसे और नीचे उतरने में डर-सा लगने लगा। उसके दिमाग में विचार आया कि ये सीढ़ियां उसे कहां ले जा रही हैं? क्या किसी कुएं में?
उसके दिल में उठने वाले विभिन्न प्रकार के विचार उसे डराने लगे। एक विचार आया कि वह लौट पड़े - मगर लौटकर वह करेगा क्या? काफी देर तक वह वहीं खड़ा न जाने क्या-क्या सोचता रहा.. लेकिन अंत में सीढ़ियां तय करने के अलावा उसके पास रास्ता ही क्या था?
इस तरह से वह लगभग दो सौ सीढ़ियां उतर गया। तब कहीं जाकर इन अजीबोगरीब सीढ़ियों का सिलसिला खत्म हुआ। इस वक्त भी उसके चारों ओर अंधेरा था, किंतु.. एक तरफ.. अंधेरे में एक चीज बहुत जगमगा रही थी।
मानो अंधकार में जगमगाते वे बहुत-से हीरे हों।
जहां सीढ़ियां खत्म हुई थीं - उसके ठीक सामने वाली दीवार पर बहुत-से हीरे एक खास आकृति में जड़े झिलमिला रहे थे। उनकी झिलमिलाहट इतनी तेज थी कि ज्यादा देर उन पर आखें नहीं टिकती थीं। इस भयानक अंधकार के बीच केवल वे हीरे ही चमक रहे थे। उनके अलावा आस-पास क्या है, कुछ नजर नहीं आ रहा था।
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