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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

(इन पांचों पात्रों से संबंधित हाल आप पहले भाग के चौथे और पंद्रहवें बयान, दूसरे भाग का पहला और आठवाँ बयान पढ़कर बखूबी जान चुके हैं। अगर किन्हीं महाशय को याद न हो तो उपरोक्त बयानों को सरसरी नजर से देख जाएं।)

जिस वक्त टुम्बकटू ने अपनी कमर में रेशम की डोरी बांधकर बारादरी में घूमना शुरू किया तो उस कोठरी में पहुंच गया - जहां उसके घुसते ही कोठरी का लोहे वाला दरवाजा बंद हो गया और उसके जिस्म पर चपत पे चपत पड़ने लगे।

हमेशा चपत मारने वाला टुम्बकटू इस बार बहुत गलत फंसा था। उसे अपने बचाव का कोई और रास्ता न सूझा तो फटाक से फर्श पर लेट गया। उसके लेटते ही जैसे करिश्मा हुआ - उसके जिस्म पर चपत पड़ने एकदम बंद हो गए। वह आंखें बंद करके फर्श पर पट अवस्था में पड़ा था। जब चपत लगने बंद हुए तो उसके दिमाग ने काम करना शुरू किया। वह धीरे-धीरे पलटा और चित अवस्था में हो गया। उसने देखा -- यह एक काफी छोटी कोठरी थी। आठ फुट की वर्गाकार कोठरी। यह देखते ही टुम्बकटू दंग रह गया कि कोठरी की दीवारों में जगह-जगह लम्बे-लम्बे स्प्रिंग लगे हुए थे। उन स्प्रिगों के अगले भागों पर इंसानी हाथ की शक्ल के चमड़े के हाथ थे। स्प्रिंग में लगे इन हाथों की लम्बाई चार-चार फुट थी। दीवारों के विभित्र स्थानों से ये हाथ निकले हुए थे। टुम्बकटू को इस वक्त कोठरी की वायु में लहराते ये हाथ बड़े विचित्र लग रहे थे। उनमें से कोई भी हाथ इस ढंग से किसी भी दीवार में फिट नहीं था कि कोठरी के फर्श तक पहुंच सकता, वह समझ गया कि कुछ ही देर 'पहले उसके जिस्म पर पड़ने वाले चपत इन्हीं हाथों का कमाल था।

''अजीब करामाती मामला है मियां।'' फर्श पर पड़ा हुआ टुम्बकटू जैसे खुद से ही बोला- ''साले, जबसे चांद से आए हैं, धरती पर सबसे अनोखी जगह यही मिली है, यहां अपनी भी सारी लफ्फाड़ेबाजी फेल हो गई।''

टुम्बकटू अपने स्थान पर उसी स्थिति में बुदबुदा रहा था--- ''मगर मियां, अब इस झमेले से निकलोगे कैसे?''

अभी वह यह सोच ही रहा था कि-

''अबे कार्टून!'' उसके कानों में आवाज आई- ''वहां क्या कर रहा है!

टुम्बकटू ने देखा - ये आवाज उस कोठरी की छत में से आई थी। कोठरी की छत के ठीक बीच में एक मोखला था और उसी में से बागारोफ झांक रहा था...। उसे देखते ही टुम्बकटू बोला- ''अबे मियां बुजुर्गवार, जरा अपने बारे में भी सोचो।''

''अपने बारे में सोचते-सोचते तो उम्र निकल गई कार्टून भाई।'' -- ''अबे अपने बारे में नहीं गंजे, मेरे बारे में।'' टुम्बकटू झुंझलाकर आगे कुछ कइना ही चाहता था कि--

'अबे ओ उल्लू की दुम!'' बागारोफ उसकी बात बीच में ही काटकर चीखा-- ''साले, गंजा कहता है --- गंजा होगा तेरा बाप।''

'मेरी मां भी गंजी थी बड़े मियां।'' टुम्बकटू रोनी सूरत बनाकर बोला- ''चाहे यूं कहलवा लो मेरा तो खानदान ही गंजा था, लेकिन इस वक्त जरा मेरे बारे में सोचो -- कसम से तुम हुए सो हुए लेकिन तुम्हारी औलाद गंजी नहीं होगी!''

''अबे मदद मांगता है चटनी के, और ऊपर से गाली देता है!'' बागारोफ गुर्राया।

''ऊपर तो तुम हो बुजुर्ग मियां -- हम तो, नीचे हैं - फिर भला ऊपर से गाली हम कैसे देंगे?'' टुम्बकटू ने कहा-- 'सवाल तो ये है कि हम यहां अजीब अफलातून में फंस गए हैं। हमें यहां से निकालो।''

''तू वहां से निकलने लायक ही नहीं है ऊंटनी की औलाद।''

बागारोफ वहीं से दहाड़ा- “भूतनी के... गाली देता है -- और ऊपर से मदद मांगता है। नहीं निकालता, जा-देखता हूं तू क्या कर लेगा? ”

“वहीं पड़ा रह।''

''अबे अकल तेरी सठिया गई है बुड्ढे!'' टुम्बकटू भी जैसे ताव खा गया--- ''गाली खुद देता है और बदनाम निहायत ही शरीफ आदमी को करता है। चल भाग यहां से -- मुझे नहीं निकलना।''

'बुड्ढा कहता है हरामजादे।'' बागारोफ भी उफन पड़ा-- ''हमें खुंदक दिलाता है। अभी ले चमगादड़ की दुम, हम तेरा कल्याण करते हैं।'' कहते हुए उसने एक मोटी रस्सी उस मोखले में से नीचे कमरे में लटका दी।

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