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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

(प्रिय पाठको, आपको तीसरे और चौथे भाग में पूछे गए दो प्रश्नों में से एक का जवाब मिल गया है। बह्रुत से पाठकों ने इस प्रश्न के जवाब में खूंटी इत्यादि का जिक्र किया है, उनसे मैं क्षमा चाहूंगा। दरअसल सवाल में प्रयोग किए गए तरकीब शब्द पर ध्यान देना चाहिए था। अगर हम यह काम किसी तिलिस्मी मदद से दिखाएं तो तरकीब शब्द नहीं जमता, क्योंकि वह जड़ाऊ डिब्बा हासिल करने के लिए कोई भी तिलिस्मी ढंग तरकीब नहीं, बल्कि विधि कहलाती है, धन्यवाद।)

'मैं समझ गई हूं।' धन्नो बोली-- 'वाकई दिमाग में आने के वाद उसे हासिल करना आसान था।'

“इस तरह से मैंने गौरवसिंह के उन चारों ऐयारों को धोखा दे दिया।' पिशाचनाथ वोला- 'इधर मैंने अपना दूसरा मतलब हल किया, यानी शैतानसिंह को राक्षसनाथ के तिलिस्म में डाल आया। उसके बाद दलीपसिंह को यह बता दिया कि रक्तकथा इस-इस ढंग से मेरे यहां से चोरी चली गई है। इस तरह से उसे मुझ पर शक भी नहीं हुआ और धोखा खा गया। मेरा इरादा अब कुछ दिनों के लिए दुनिया की नजरों से गायब हो जाने का है...ताकि आराम से रक्तकथा पढ़कर राक्षसनाथ के तिलिस्म के बारे में जान सकूं।”

'लेकिन तुमने तारा, गिरधारी, बागीसिंह, शामासिंह और बलदेवसिंह वाली साजिश क्यों रची?' धन्नो ने सवाल किया।

'असल में बात ये थी कि... हां, तुम तो जानती ही हो कि हम सब दलीपसिंह के ऐयार हैं।' पिशाचनाथ ने बताया--- 'आजकल क्योंकि दलीपसिंह इनसे ज्यादा मुझे मानने लगा था और इसी से जलकर शामासिंह और गिरधारीसिंह दलीपसिंह के दरबार में मेरी काट करने लगे थे। वे इस बात से जलने लगे थे कि दलीपसिंह उनके रहते मुझे अपना सबसे बड़ा ऐयार समझे। दिल-ही-दिल में वे लोग मेरे खिलाफ थे और मैं इस भेद को जानता था। उन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिए मैंने उन्हीं के साथ ऐयारी खेली। ऐयारी भी ऐसी कि एक ही वार में सारे-के-सारे चारों खाने चित गिरे। मैंने काफी पहले ही उन लोगों का यह उपाय करने की सोच ली थी। यही सोचकर मैंने तारा से सम्बन्ध बढ़ाए थे। कल की रात को मैंने अच्छी तरह से समझ-बूझकर शामासिंह और बलदेवसिंह को बेगम बेनजूर के महल की हिफाजत करने के लिए भेजा। फिर दलीपसिंह से बात करने के बाद मैं किस तरह मठ के रास्ते से तारा के पास पहुंचा। किस तरह से उसे फंसाया और नाटक किया - वह सबकुछ मैं तुम्हें बता ही चुका हूं। मेरा नाटक पूरी तरह सफल रहा। तारा वह समझती रही कि मैं वाकई उसे साथ लेकर दूर भागा जा रहा हूं। किंतु उस वक्त जब मैं उसे घोड़े पर लेकर भाग रहा था और शामासिंह मेरा पीछा कर 'रहा था तो मैंने तारा को मारकर फेंक दिया। इस तरह से तारा से भी मेरा पिंड छूटा और शामासिंह ने भी अपनी बीबी की लाश के चक्कर में पड़कर मेरा पीछा करना छोड़ दिया। अब उसकी दुश्मनी मुझसे नहीं, गिरधारीसिंह से होगी। मुझे पता है कि आज सुबह बलदेवसिंह ने बागीसिंह को गिरफ्तार कर लिया है। इस चक्कर में उलझकर वे सबकुछ भूल जाएंगे। उनमें से कभी किसी को ख्वाब में भी पता नहीं लग सकता कि यह सब मेरा - यानी पिशाचनाथ का किया-धरा है। मेरे चारों दुश्मन आपस में लड़-लड़कर मर जाएंगे।'

‘चालें तो तुमने खूब गहरी-गहरी चलीं।‘ धन्नो तारीफ करती हुई बोली- ‘अपनी ऐयारी से तुमने भीमसिंह, बेनीसिंह, गुलशन और नाहरसिंह के अलवा गौरवसिंह की सारी मंडली को, राजा दलीपसिंह को, शैतानसिंह और बिहारी को, बलदेव, बागी, शामा और गिरधारीसिंह को और तारा को भी धोखे में डालकर अपना काम बड़ी खूबसूरती से निकाला।‘

‘अगर मैं अपने काम इस तरह न निकालूं तो मझे पिशाचनाथ ही कौन कहे?’ वह गर्व के साथ बोला।

(पाठको, पिशाचनाथ द्वारा सबको धोखा देने का भेद जो यहां खोला गया है, उसका संकेत चौथे भाग के सातवें बयान में ही दे दिया गया था। देखें, वहां पिशाचनाथ के मुंह से निकले निम्न शब्द छपे हैं- ‘’वाह पिशाच.. क्या कमाल किया है.. उन चारों ..को.. भी.. धोखा! नकली.. रक्तकथा. और. ..अब दलीपसिंह.. उधर.. शैतान.. बिहारी! वाह, क्या ऐयारी...!’’)

(समझने वाले पाठकों के लिए पिशाचनाथ की सारी काली करतूतें पहले ही लिख दी गई थी।)

 

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