लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 4

देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

Like this Hindi book 0

चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

गुरुवचनसिंह ने ताली की मदद से ताला खोल दिया। अलफांसे अपनी उत्सुकता पर काबू नहीं रख सका और उसने दरवाजे में ठोकर मारकर उसे खोल दिया। अब... अलफांसे के सामने एक छोटी-सी कोठरी थी। सारी कोठरी में जाले लगे हुए थे... वहां की कैफियत देखकर एक बार को तो अलफांसे जैसा आदमी भी घबराकर पीछे हट गया। कोठरी के बीचोबीच एक नरकंकाल लटक रहा था। न जाने कैसे वह नरकंकाल बड़ी तेजी से हिला। नरकंकाल पर नजर पड़ते ही अलफांसे के दिमाग को एक बहुत तेज झटका लगा। उसी वक्त उसकी नजर उस कंकाल के बराबर में लटके हुए दूसरे कंकाल पर गई। वह कंकाल भी हिल रहा था। उनकी हड्डियों के आपस में टकराने से डरावनी और अजीब-सी कड़-कड़ की आवाज हो रही थी। उस दूसरे कंकाल के हड्डियों भरे हाथ में कुछ चूड़ियां पड़ी हुई थी... इसका साफ मतलब था... कि वह कंकाल किसी औरत का ही था...। इसके बाद... अलफांसे को जैसे कुछ होश न रहा। अब... जैसे वह उस कोठरी में घुसने के लिए बेचैन हो गया। गुरुवचनसिंह की भी परवाह न करके वह एक झटके के साथ कोठरी में घुस गया। कोठरी के दरवाजे पर लगे मकड़ी के जाले उससे लिपट गए। जालों को चीरकर वह बेधड़क भीतर घुस गया। कोठरी की दीवारों पर पचासों पेंटिंग्स लगी हुई थीं। अचानक... एक पेंटिंग पर उसकी नजर रुक गई। उस पेटिंग में... एक आदमी कटार से एक औरत की हत्या कर रहा था...। कई सायत तक अलफांसे उस पेंटिंग को देखता रहा। फिर उसकी नजर बराबर में लगी एक दूसरी पेंटिंग पर जम गई। उसमें एक आदमी को पूरी सेना ने घेर रखा था... वह आदमी निहत्था था। ... सैनिक घोड़ों पर थे... और सैनिक उस आदमी को भालों से मार रहे थे। तीसरी पेंटिंग में एक बूढ़ा-सा जोड़ा जंजीरों में जकड़ा हुआ था...।

अलफांसे का चेहरा लाल सुर्ख हो गया। आखें... जैसे सागर के तट पर खड़े होकर सागर के तल को घूर रही थीं। उसके दिमाग में एक भूकम्प-सा आ गया। उसके मस्तिष्क की कोई पर्त जैसे एकदम उलट गई। उसे लगा... जैसे पेंटिंग हकीकत में बदलती जा रही है... एक मैदान-गर्द-से भरा--चारों तरफ सैनिक... एक अकेला आदमी... उफ! भाले...मौत...उधर... हत्यारे की कटार के नीचे दबी औरत मानो चीख पड़ी... 'शेरसिंह!'

वह बूढ़ा जोड़ा जैसे चीख रहा था- 'शेरसिंह - शेरसिंह - शेरसिंह!'

जैसे सारा कमरा चीख पड़ा... हर पेटिंग चीख पड़ी। अलफांसे पागल-सा होकर उन कंकालों की ओर घूम गया। उसने देखा... औरत के कंकाल के मुंह में एक काला सांप घुस रहा था। अपनी लाल-लाल आंखों से अलफांसे उसे घूरता रहा... सांप कंकाल के मुंह के अन्दर से रेंगता हुआ दाईं आंख वाले गड्ढे से फन निकालकर झांकने लगा। अलफांसे जैसे पागल हो गया... कंकाल की आंख में से रेंगता हुआ सांप बाहर आने लगा।

''फूलवती'' पागल-सा होकर अपनी पूरी शक्ति से चीखा अलफांसे- ''सांप.. सांप...!''

और बड़ी तेजी से झपटकर अलफांसे ने उस साँप का फन पकड़कर खींच लिया। पागलों की-सी स्थिति में उसने बेखौफ सांप को एक तरफ उछाल दिया और- ''फूलवती-फूलवती!'' बुरी तरह से चीखकर वह कंकाल से लिपट गया।

गुरुवचनसिंह कोठरी के दरवाजे पर खड़े हुए ध्यान से अलफांसे को देख रहे थे।

अलफांसे पागलों की तरह उस औरत के कंकाल से लिपट गया था। चीखता-चीखता वह रो पड़ा। अलफांसे... जो आज तक नहीं रोया-- आज रो पड़ा। फूट-फूटकर... जोर-जोर से। कंकाल से लिपटकर वह जोर-जोर से बुरी तरह रो रहा था। अलफांसे जैसे पागल हो गया... रोता-रोता कंकाल की हड्डियों पर अपना माथा मारने लगा। कोठरी में बेहद डरावनी आवाजें गूंजने लगीं... कंकाल की कई हड्डियां टूट गईं। अलफांसे के सिर से खून बहने लगा। मगर अलफांसे कोँ इसकी चिन्ता नहीं थी... जैसे मर जाना चाहता हो... आज ही ... अभी।

दहाड़ें मार-मारकर रोता हुआ अलफांसे बेहोश हो गया।

वह कोठरी की धूल-भरी धरती पर गिर गया। वहां एकदम सन्नाटा छा गया। कंकाल अभी तक हिल रहे थे, जबकि गुरुवचनसिंह उसकी ओर बढ़े।

 

० ० ०

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book