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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''नहीं।' बिहारीसिंह ने जमना की आंखों में झांकते हुए कहा- 'आपने ठीक कहा।'

''तो बोलो?' मैंने पूछा- 'इस वक्त जमना के साथ रहना पसन्द करोगे या पिता से मिलना?'

''अभी वह मेरे इस सवाल का जवाब सोच ही रहा था कि मैंने अगली चोट की... 'मेरे ख्याल से तो इस वक्त उनके सामने जाना ठीक नहीं होगा... क्योंकि वह बहुत गुस्से में हैं और तुम्हारी मुहब्बत के बारे में वह सोचने की हालत में नहीं हैं। तुम कुछ दिन ठहरो, बाद में मैं खुद उनसे मिलकर बातें करूंगा और उन्हें इस शादी के लिए राजी करने की कोशिश करूंगा। मेरा ख्याल है कि कुछ दिनों बाद वे इस बात को ठीक ढंग से सोच पाएंगे।'

''लेकिन आपको तो वे अपना दुश्मन समझते हैं।' बिहारीसिंह बोला- 'मेरा पहला ख्याल तो यही है कि वे आपसे बात ही नहीं करेंगे और अगर किसी तरह आपने उनसे जबरदस्ती बात कर ली तब भी वे अपने दुश्मन की लड़की से मेरी शादी नहीं करेंगे।'

''मेरे पास उसके इस सवाल का जवाब पहले ही से तैयार था... 'सोचने की बात तो ये है कि मेरी और उनकी दुश्मनी ही क्या है... हमारे बीच दुश्मनी का सबब केवल रक्तकथा ही तो थी। जब उन्हें मालूम हो जाएगा कि रक्तकथा मेरे पास से गौरवसिंह के ऐयारों ने गायब कर ली है तो हमारी दुश्मनी ही क्यों रहेगी?' इसी तरह की हजारों ऊलजलूल बातें समझाकर मैंने बिहारीसिंह के दिमाग को हिलाकर रख दिया। हकीकत में वह जमना के प्यार में दीवाना-सा हो गया है। आखिर में मैंने उसे इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वह अपने घर नहीं जाएगा, बल्कि मेरे, रामकली के और जमना के साथ रहेगा।''

''लेकिन उसे अपने पास रखने से तुम्हें फायदा क्या होगा पिशाच?'' दलीपसिंह ने उससे पूछा!

''शैतानसिंह जैसे दुश्मन का लड़का अगर मेरे घर में गुलाम बनकर रहे तो क्या कम फायदे हैं?'' पिशाचनाथ ने आगे की दास्तान सुनानी शुरू की- ''उसके जरिए मैं शैतानसिंह का कोई ऐसा गुप्त भेद मालूम कर सकता हूं जिससे शैतानसिंह की नस मेरे हाथ में आ जाए। इसके अलावा ऐसे अनेक फायदे हैं... खैर.. मुख्तसर यह है कि मैंने उसे अपनी बातों के जाल में फंसाकर अपने साथ रहने के लिए तैयार कर लिया और रामकली को बुलाकर उससे कहा... 'अब यहां से चलने की तैयारी करो... हम गंगा के किनारे वाले मकान में रहेंगे।' मेरी यह राय रामकली, जमना और बिहारी को भी पसन्द आई।

''कुछ देर बाद मैंने शामासिंह से कहा... 'तुम जरा तखलिए में मेरी एक बात सुनो।' इस तरह मैं उसे उन सभी के बीच से अलग ले गया और धीरे-धीरे उसे बताया कि... 'मैंने शैतानसिंह को तिलिस्म में डाल दिया है। ये सब बातें बताकर मैंने बिहारीसिंह को बहुत जबरदस्त धोखा दिया है।' इस तरह से उन्हें सारी हकीकत बताकर मैंने उससे कहा... 'आज की रात तुम और बलदेवसिंह बेगम बेनजूर के महल के आसपास बालादवी करो और यह टोह लेने की कोशिश करो कि वहां पर शैतानसिंह के न लौटने पर क्या चहल-पहल होती है।' इस तरह मैं शामासिंह और उसके लड़के बलदेवसिंह को इस काम से लगा आया। इसके बाद कुछ देर तक हम इधर-उधर की बातें करते रहे। मैंने रामकली, जमना और बिहारीसिंह को अपने साथ लिया और घर की तरफ चला। उधर शामासिंह और उसका लड़का बलदेवसिंह बेगम बेनजूर के महल की तरफ रवाना हुए। गिरधारीसिंह और उसका लड़का बागीसिंह अपने घर की ओर रवाना हो गए। मैंने रामकली, जमना और बिहारीसिंह को अपने गंगा किनारे वाले मकान में छोड़ा, और मैं खुद सारी बातें बताने के लिए यहां आपके पास चला आया।'' इस तरह से पूरी बात बताने के बाद पिशाच ने राजा दलीपसिंह का चेहरा देखा।

उनके चेहरे पर मौजूद भाव ये बता रहे थे कि सारा किस्सा सुनने के बाद उन्हें बहुत ही दुःख हुआ है। कदाचित् यह दुःख इस बात का गवाह था कि उन्हें रक्तकथा के चले जाने का बेहद रंज है। ऐसा लगता था जैसे आगे की बातें उन्होंने ध्यान से सुनी ही न हों। जब उन्होंने देखा कि अब पिशाचनाथ काफी देर से चुप है और वह आगे और कुछ भी नहीं कहना चाहता, तो बोले- ''अब तुम कुछ भी कहते फिरो पिशाचनाथ, रक्तकथा तो हमारे हाथ से निकल ही गईं।'' - ''आप इस बात की फिक्र क्यों करते. हैं महाराज!'' पिशाचनाथ ने कहा- ''चाहे जैसे भी हो, मैं गौरवसिंह के कब्जे से रक्तकथा निकालकर ही दम लूंगा।''

''अब ये सब बेकार की बातें हैं पिशाच।'' दलीपसिंह बोले- ''तुम अच्छी तरह जानते हो कि गौरवसिंह के कब्जे से कोई चीज निकालनी कितनी मुश्किल है। अब वह पिछले जन्म के अपने पिता देवसिंह... यानी विजय और अलफांसे को ढूंढ़ निकालेगा और तिलिस्म तोड़कर...।''

''आप इस बात से बेफिक्र रहें.. मैं गौरवसिंह को कभी उसके इरादों में कामयाब नहीं होने दूंगा।'' इस तरह की न जाने कितनी बातें बनाकर उसने दलीपसिंह को समझाना चाहा, लेकिन वे आखिर तक मायूस ही रहे। कुछ देर बाद पिशाचनाथ उनसे विदा लेकर बाहर आ गया और वह जंगल की ओर रवाना हुआ। पिशाचनाथ इस समय बहुत खुश नजर आ रहा था। वह अपनी खुशी में डूबकर कुछ बुदबुदाता हुआ जा रहा था... वाह पिशाच... क्या कमाल किया है... उन चारों... को... भी धोखा... नकली... रक्तकथा... और अब दलीपसिंह... उधर... शैतान... बिहारी... वाह... क्या ऐयारी!'

अभी रात का थोड़ा-सा अंश बाकी बचा है। पिशाचनाथ अपनी ही धुन में बढ़ा चला जा रहा है... मठ की तरफ। हो सकता है कि पिशाच यह समझता हो कि वह बड़ा दबंग ऐयार है, लेकिन हम ये नहीं मान सकते। क्योंकि इस वक्त उसके पीछे एक रहस्यमय आदमी है और उसकी एक-एक हरकत नोट कर रहा है। पिशाचनाथ को उसकी कुछ भी खबर नहीं है... फिर वह ऐयारी के फन में सबसे आगे कहां हुआ? लगता है, वह कहीं-न-कहीं धोखा खा गया है।

 

० ० ०

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