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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

सातवाँ बयान


यह रात का आखिरी पहर है। राज दलीपसिंह के उस खास  मुलाकाती कमरे में बेहद खूबसूरत कन्दील जल रही है। छत में बड़ा-सा फानूस लटक रहा है, जिस पर चारों ओर बारह मोमबत्तियां जगमगा रही हैं। दरवाजे और खिड़कियों पर पर्दे पड़े हैं, जो कमरे की रोशनी को कमरे से बाहर झांकने की इजाजत नहीं देते। सारा कमरा एक-से-एक नायाब चीजों से सजा हुआ है। एक कोने में गद्देदार बिस्तर पड़ा है, उस पर कीमती शनील की चादर बिछी हुई है। उस बिस्तर के पास ही तीन गद्देदार कुर्सियां पड़ी हैं। उनमें से एक पर इस समय हम दलीपसिंह के खास ऐयार पिशाचनाथ को बैठा हुआ देख रहे हैं। गद्देदार बिस्तर पर खुद दलीपंसिह बैठे हैं। दलीपसिंह का यह कमरा इसीलिए बनाया गया है कि यहां बैठकर वह अपने खास आदमियों से भेद की वातें कर सकें। इस कमरे के चारों ओर सेना का खास पहरा है। दलीपसिंह के चेहरे और खास तौर पर उनके बालों की अवस्था बताती है कि पिशाचनाथ ने उन्हें कुछ खास बातें बताने के लिए सोते से उठाया है। दलीपसिंह की पत्नी का कमरा इस कमरे के बराबर में ही है।

रात के कोई तीसरे पहर में पिशाचनाथ महल में आया और राजा दलीपसिंह को उठाने का हुक्म उसने दलीपसिंह के खास चोबदार को दिया। पिशाच से बातें करने के लिए दलीपसिंह फौरन उठकर आए और इस समय कमरे और उन दोनों के चेहरे की अवस्था हमें साफ बताए देती है कि पिशाचनाथ कुछ उन्हें बता चुका है। इस वक्त अपना किस्सा बयान करते-करते पिशाच सांस लेने के लिए रुका, फिर बोला- ''और, इस तरह से शैतानसिंह को धोखे में डालकर मैंने उसे राक्षसनाथ के तिलिस्म में कैद कर दिया...।''

''ठहरो!'' एकाएक दलीपसिंह हाथ उठाकर उसे रोकते हुए बोले- ''तुमने हमें अजीब तरद्दुद में डाल दिया हे, पहले हमारे कुछ सवालों का जवाब दो।''

''बोलिए!'' पिशाचनाथ ने सम्मान के साथ कहा।

''जो कहानी तुमने शैतानसिंह को सुनाई थी, यानी गौरवसिंह के ऐयारों द्वारा रक्तकथा का गायब कर लेना... वह हकीकत थी या उसे चकमा देने के लिए?''

''मुझे यह बताते हुए.. अफसोस है महाराज कि वह कहानी सच थी।'' पिशाचनाथ ने मुजरिम की तरह गर्दन झुकाकर कहा- ''मैं शर्मिन्दा हूं कि मैंने गौरवसिंह के ऐयारों से बड़ा बुरा धोखा खाया। मैं शैतानसिंह से ही उलझा रहा और वे इतनी आसानी से रक्तकथा निकालकर ले गए। लेकिन आप ज्यादा परेशान न हों महाराज... ये गलती मुझसे हुई है और अपने उद्योग से मैं दुबारा रक्तकथा हासिल करके अपनी इस गलती में सुधार करूंगा।''

''अब कुछ नहीं होगा पिशाच, तुमने हमारे सारे किए-धरे पर पानी फेर दिया।'' दलीपसिंह बोले- ''हमने सोचा था कि रक्तकथा तुम्हारे पास ज्यादा हिफाजत से रहेगी लेकिन तुम पर यकीन करके बड़ा धोखा खाया। हमें रक्तकथा अपने ही पास रखनी चाहिए थी।'' इस तरह के अनेकों लफ्जों में दलीपसिंह ने अपना दुःख, अफसोस और गुस्सा पिशाचनाथ पर जाहिर किया। पिशाचनाथ रह-रहकर उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश करता रहा कि वह अपने उद्योग से गौरवसिंह के कब्जे से रक्तकथा को निकाल लेगा। इसी तरह की बातों में बहुत-सा समय गुजर गया... आखिर में पिशाचनाथ ने अपनी कमी के कारण अपने मालिक से माफी मांगी... लेकिन उल्टी-सीधी बातें बनाकर उसने दलीपसिंह को रुपये में चार आने यह यकीन दिला दिया था कि वह एक बार पुन: रक्तकथा को हासिल करके उनके पास लाएगा।

''अब इस बात को छोड़िए महाराज, और यह सुनिए कि शैतानसिंह को राक्षसनाथ के तिलिस्म में डालने के बाद मैंने क्या किया?'' पिशाचनाथ बोला- ''आपको जानकारी है कि वह कुंआ वास्तव में राक्षसनाथ के तिलिस्म में जाने का एक रास्ता है, लेकिन कोई भी आदमी तिलिस्म में फंसने के बाद उस रास्ते से वापस नहीं आ सकता। उसे उस कुएं में डालने के बाद मैंने वह बर्छा फिर.. खूंटी पर टांग दिया। अब कुए का मुंह हमेशा के लिए बंद होगया था।'' - ''लेकिन शैतानसिंह को तिलिस्म में फंसाने से तुम्हें क्या फायदा हुआ?'' दलीपसिंह ने सवाल किया।

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