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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''आ गया समझ में!'' गौरवसिंह ने एकदम चुटकी बजाकर कहा- ''उस कमरे की किसी दीवार पर...।''

नहीं, हम गौरवसिंह की तरकीब इससे आगे नहीं लिख सकते। क्योंकि गौरवसिंह की बताई हुई यह तरकीब बिल्कुल ठीक है, और ठीक तरकीब भला हम यहां लिख सकते हैं? यही तो आपको बताना है... हम यहां केवल इतना ही लिख सकते हैं कि गौरवसिंह ने तरकीब बताई और सारी तरकीब सुनने के बाद गुलशन बोला- ''आप ठीक कहते हैं... पिशाचनाथ ने बंदर के हाथ से रक्तकथा हासिल करने के लिए यही तरकीब बताई थी।''

''तो तुमने भी इसी ढंग से बंदर के हाथ से वह रक्तकथा हासिल कर ली!'' गुरुवचनसिंह बोले।

''जी हां!'' गुलशन ने बताया- ''और जैसे ही बंदर के हाथ से रक्तकथा वाला जड़ाऊ डब्बा अलग हुआ-वैसे ही हाल की छत का थोड़ा-सा भाग एक ओर हट गया। वहां से एक लोहे की सीढ़ी नीचे की ओर फिसलकर आने लगी, दूसरे ही सायत वह हॉल की धरती पर टिक गई। पिशाच के बताए अनुसार ही हम उस सीढ़ी पर चढ़ते चले गए। जब हमने वह सीढ़ी पार की तो एक टूटे-फूटे-से कमरे में खुद को पाया। हमारे ऊपर पहुंचते ही वह रास्ता बन्द हो गया। अब हमने उस कमरे की कैफियत देखी तो चारों एक बार को तो बुरी तरह से डर गए। उस कमरे में चारों ओर अनेकों बंदर बैठे थे। हम चारो ने एकदम अपनी-अपनी म्यानों से तलवारें खींच लीं। लेकिन अगले ही क्षण हमें शर्मिन्दा होना पड़ा, क्योंकि वे सारे ही बंदर मिट्टी के बने हुए नकली बंदर थे... लेकिन एक नजर में देखने पर वे बिल्कुल असली लगते थे। इन नकली बंदरों की संख्या उस कमरे में कम-से-कम तीस होगी। यह किसी खण्डहर का टूटा हुआ कमरा था... हम सबने तलवारें म्यान में डालीं और उस कमरे से निकलकर बाहर आ गए। हमने खुद को सोनिया के खण्डहर में पाया।''

पाठक याद रखें, सोनिया के खण्डहर में वे पहले भी कई बार जा चुके हैं। यही वह जगह है, जहां नकली बलवंत ने असली बलवंत को एक कोठरी में कैद कर रखा था, जिसका रास्ता एक गुड़िया द्वारा उसकी छत पर है। देखें... (पहले भाग के दसवें और तेरहवें बयान में) सोनिया का खण्डहर नाम आया है... याद न हो तो एक बार आप सरसरी नजर से देख सकते हैं।

सोनिया के खण्डहर की काफी कुछ कैफियत हम लिख आए हैं। वही सबकुछ इन चारों ने गौरव इत्यादि को सुनाई और आखिर में  बोले- ''जैसे ही हम खण्डहर के पिछले भाग में आए. खण्डहर की किसी दीवार से एकदम चार बंदर हम पर टूट पड़े। इस बार हम पर हमला करने वाले बंदर नकली नहीं, बल्कि असली थे। एक सायत तो हमारी समझ में ही नहीं आया कि ये एकदम क्या हो गया? जब समझ में आया तो बंदर हमारे शरीर पर कई जगह अपने नाखूनों की खरोंच मार चुके थे। फिर हमने अपनी-अपनी म्यानों से तलवारे खींच लीं। इसके बाद खण्डहर में बंदरों से हमारा अजीब युद्ध हुआ।

''हालांकि हमने अपनी तलवारों से काफी बंदर मारे...लेकिन पता नहीं कहां से इन बंदरों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी। एक समय ऐसा आया कि हम इन बंदरों से डर गए और उनसे पीछा छुड़ाने के लिए अपने चारों ओर तलवार घुमाते हुए खण्डहर से बाहर की ओर भागे। बड़ी कठिनाई से हम खण्डहर से बाहर निकल सके। सबसे ज्यादा तरद्दूद की बात तो ये है कि खण्डहर से बाहर निकलने के बाद बंदरों ने हमारा पीछा नहीं किया। - ''बस, उसके बाद हम आज की सारी रात पैदल चलते हुए यहां पहुंचे हैं।'' कहानी का अंत भी गुलशन ने इन शब्दों के साथ किया।

''खैर...हम तुमसे बहुत खुश हैं!'' गौरवसिंह ने कहा- ''हकीकत में तुमने बहादुरी का परिचय देकर इस रक्तकथा को हासिल किया है। वक्त आने पर हम तुम्हें इस काम के लिए कोई बड़ा इनाम देंगे। हमें अपने तुम जैसे ऐयारों पर फख्र है... अगर तुम हमारे साथ इसी तरह वफादारी से रहे तो जल्दी ही हम दलीपसिंह से अपना राज्य वापस ले सकते हैं। साथ ही राक्षसनाथ का तिलिस्म भी हमारे हाथ लग सकता है।''

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