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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''पांच आदमी!'' पीड़ा से बिलबिलाते हुए उस आदमी ने जवाब दिया। इसके बाद नकाबपोश ने उससे कहा कि वह खुद उसे कोठरी नम्बर दस तक ले जाए। मरता क्या न करता। कटार की नोक पर उसे आगे-आगे चलना ही पड़ा। उस दीवार के हट जाने से आगे भी उसी तरह की बारादरी नजर आ रही थी।

थोड़ा आगे जाकर गैलरी दायीं तरफ मुड़ गई थी... नकाबपोश के एक हाथ में कटार थी और दूसरे हाथ ने बटुए में से एक छोटा-सा डिब्बा निकाल लिया था। जैसे ही वे दायीं तरफ मुड़े--सामने ही पांच सशस्त्र सैनिक खड़े नजर आये। उन पांचों ने देखा कि एक नकाबपोश ने उनके छठे साथी को कटार से कवर कर रखा है। यह देखते ही वे पांचों उधर ही झपटना चाहते थे कि नकाबपोश ने उस सिपाही को भी बड़ी जोर से आगे धक्का दिया। उस सिपाही ने नकाबपोश से शायद यह कल्पना भी नहीं की थी. इसलिए अपना सन्तुलन खोकर वह मुंह के बल धरती पर गिरा।

इससे पहले कि उन पांचों में से एक भी नकाबपोश तक पहुंच पाता, उसने अपने हाथ में दबा छोटा-सा डब्बा बड़ी जोर से जमीन पर दे मारा। उस डब्बे का जमीन से टकराना था कि-बारादरी का वह भाग अपारदर्शी गाढ़े-सफेद धुएं से भर गया। नकाबपोश ने जल्दी से बटुए में से एक गोली निकाली और फिर अपने मुंह में रखकर सटक गया। कुछ पन्द्रह सायत बाद धुआं साफ हुआ। बेगम बेनजूर के छहों सिपाही धरती पर बेहोश पड़े थे।

नकाबपोश उनके पास से गुजरता हुआ दस नम्बर की कोठरी तक पहुंचा। पिशाचनाथ कोठरी के सरिये से लगा हुआ ही खड़ा था। नकाबपोश को देखते ही पिशाच बोला- ''अरे कौन है... क्या बलदेवसिंह है?''

(पाठक लोग अच्छी तरह ध्यान कर लें, बलदेवसिंह का नाम वे पहले भाग में पढ़ आये हैं... यही वह आदमी है, जिसने अलफांसे को धोखा दिया था।)

''हां, मैं ही हूं चचा!'' नकाबपोश बोला- ''बड़ी मुश्किल से यहां पहुंचा हूं।''

उनके बीच अभी इतनी ही बातें हो पाई थीं कि कोठरी के किसी कोने से उठकर रामकली भी पिशाचनाथ के पास ही आ गई।'

''आज तूने बहुत इनाम का काम किया है.. बेटे!'' पिशाच ने प्रशंसात्मक स्वर में कहा- ''इनमें से किसी सिपाही की कमर में इस कोठरी की ताली है। इसे निकालकर जल्दी ताला खोल... इस समय हम दुश्मन के बीच हैं। बाकी बातें ठिकाने पर चलकर होंगी।''

नकाबपोश, जिसका कि हम नाम जान चुके हैं, अत: अब आगे उसे उसके नाम से ही लिखेंगे। बलदेवसिंह ने जल्दी से पिशाच की आज्ञा का पालन किया। पिशाचनाथ और रामकली को वहां से बाहर निकाला। इसके बाद वे तेजी से तहखाने की गैलरी को पार करने लगे। यहां तक कि वे बेगम बेनजूर के महल से काफी दूर निकल आये। अन्य किसी तरह का कोई खास खतरा उन पर नहीं आया। उस समय दिन का. दूसरा पहर शुरू हो चुका था, जब वे उसी मठ पर गए... जहाँ पिशाचनाथ ने रात को रामकली यानी नसामबानो को कैद किया था।,

मठ में इस समय चार आदमी थे। ये चारों ही पिशाचनाथ के शागिर्द अथवा नौकर गुलशन, नाहरसिंह, बेनीसिंह और भीमसिंह थे। (हमारे ख्याल से इन चारों का नाम पढ़कर ही पाठकों को याद आ गया होगा कि ये वे ही चारों हैं जों बंदर देखकर डर गए थे, अगर किन्हीं महाशय को याद न आया हो तो पहले भाग का पहला बयान पढ़ लें। )

''गुलशन!'' मठ पर पहुंचते ही बलदेव ने उनमें से एक को पुकारा- ''तुम अपने तीनों साथियों को लेकर पिशाच चचा के मकान पर पहुंच जाओ... वहां से रामकली और जमना को गिरफ्तार करके यहां ले आओ।''

''जी!'' भीमसिंह चकराया- ''रामकली।'' यह कहता हुआ वह पिशाच के साथ खड़ी रामकली को देख रहा था, कदाचित् उसकी समझ में यह नहीं आया था कि रामकली तो उसकी आंखों के सामने खड़ी है, फिर यह आदेश कौन-सी रामकली के लिये है?

''चीखो मत भीमसिंह, अक्ल से काम लो!'' बलदेवसिंह ने कहा- ''इस वक्त पूरी बात समझाने का वक्त नहीं है। तुम केवल इतना समझ लो कि वहां जो रामकली है, वह नकली है। जमना असली है, लेकिन उसे भी यहां ले आओ। अगर उनसे कोई बात कर रहा हो तो उसे भी पकड़ लाना।''

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