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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

कदाचित् हमारे पाठकों को याद आ गया होगा कि हमने इस तीसरे भाग का पहला बयान फूलवती की हत्या का ही लिखा है। इस हत्या का चित्र यहां से दूर जंगल में स्थित एक छोटे-से मकान में रहने वाले देवसिंह ने बना लिया है। पाठकों को यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि देवसिंह को स्वप्न दीखने वाली घटना इसी रात की है। खैर.. पाठक आगे होने वाली घटनाएं तो आगे पढ़कर पता लगा ही लेंगे। फिलहाल हम शेरसिंह और सुरेन्द्रसिंह के साथ चलते हैं। जब वे बारादरी से निकलकर उस कमरे में पहुंचे... जहां फूलवती की लाश थी, तो वहां अनेक सैनिकों और राजमहल के लोगों की भीड़ देखी। सुरेन्द्रसिंह को आता देख सबने उनका रास्ता छोड़ दिया। शेरसिंह ने जब बिस्तर पर पड़ी पत्नी की लाश देखी तो स्तब्ध-सा रह. गया। उसकी लड़की लक्ष्मी अपनी मां की लाश से लिपटी फूट-फूटकर रो रही थी। अपने पिता को आया देख लक्ष्मी उसके सीने से लिपट गई। शेरसिंह खुद अपने आंसुओं पर काबू नहीं कर पा रहा था। धीरे-धीरे वहां पर सारा राजमहल इकट्ठा हो गया। हरनामसिंह, जसवन्तसिंह और बलरामसिंह इत्यादि सभी वहां पहुंच गए थे। हम देखते हैं कि जसवंतसिंह की निगाह फूलवती की लाश में गड़ी कटार पर जमी हुई है। जमे भी क्यों नहीं.. यह कटार जसवन्तसिंह की जो है। वह धीरे से सुरेन्द्रसिंह की ओर बढ़ा और बोला- ''महाराज.. मैं आपसे अकेले में कुछ बात करना चाहता हूं... कृपा करके आप एक सायत के लिए मेरे साथ तखलिए में चलें।''

''क्यों.. क्या बात है?'' सुरेन्द्रसिंह ने उसकी तरफ घूमकर गम्भीर स्वर मं  कहा- ''तुम्हें इस समय भी तखलिए की बात सूझ रही है?''

किन्तु आखिर में सुरेन्द्रसिंह को जसवन्तसिंह की विनती माननी ही पड़ी और वे दोनों भीड़-भाड़ से अलग चले गए तब महाराज बोले- ''कहो.. क्या कहना है?''

''आपने इस कटार को ध्यान से देखा जो फूलवती की लाश में गड़ी हुई है?'' जसवन्तसिंह ने सहमते हुए एक प्रश्न किया।

'नहीं तो।'' सुरेन्द्रसिंह ने जवाब दिया- ''लेकिन क्यों, तुम ये प्रश्न क्यों कर रहे हो? तुम इतने घबराए हुए से क्यों नजर आते हो, क्या बात है?''

''महाराज, मैं अपने बच्चों की कसम खाकर कहता हूं कि मैंने फूलवती की हत्या नहीं की है।'' जसवन्तसिंह गिड़गिड़ा-सा पड़ा।

''ये तुम्हें क्या हो गया है जसवन्तसिंह?'' सुरेन्द्रसिंह बेहद गम्भीर स्वर में बोले- ''हमने कब कहा कि तुम फूलवती के हत्यारे हो.. या तुमसे किसी और ने कहा?''

'अभी तक तो किसी ने नहीं कहा, महाराज।'' जसवन्तसिंह बोला- ''लेकिन थोड़ी देर बाद सब यही बात कहने लगेंगे, यह मैं अच्छी तरह समझ चुका हूं।''

''लेकिन क्यों.. ऐसा क्यों होगा?'' सुरेन्द्रसिंह ने कहा- ''जब तुमने यह हत्या नहीं की तो व्यर्थ ही सब तुम्हारा नाम क्यों लेंगे?''

''क्योंकि...।'' जसवन्तसिंह घबराया हुआ-सा बोला- ''वह कटार मेरी है.. फूलवती की हत्या किसी ने मेरी कटार से की है।''

'क्या?''

''हां महाराज.. लेकिन मेरा यकीन कीजिए। मैंने यह हत्या नहीं की है। आप यकीन मानिए, यह किसी के द्वारा मुझे फंसाने की साजिश है। आज रात मैं ये कटार अपने कमरे की एक घूंटी पर टांगकर सोया था। या यूं कहना चाहिए कि मैं कटार को रोज वहां टांगकर सोया करता था। मैं अपनी कटार को अच्छी तरह पहचानता हूं उस पर मेरा नाम भी लिखा है... जब मैंने इस तरफ से शोरगुल सुना तो मैं चौंककर उठा और इधर भागा। यहां आकर फूलवती की लाश देखी तो मैं चौंक पड़ा.. उससे भी अधिक बुरी तरह उस समय चौंका, जब मैंने फूलवती की लाश में अपनी कटार देखी। मैं वापस अपने कमरे की तरफ भागा.. वहां देखा तो मेरा दिल धक-से रह गया। क्योंकि खूंटी पर से मेरी कटार गायब थी, उसी समय मैंने देखा कि मेरे कमरे की बारादरी में खुलने वाली खिड़की खुली पड़ी है। उसका एक शीशा भी टूटा पड़ा था। मैं सबकुछ समझ गया और बदहवास-सा पुन: यहां दौड़कर आया.. देखा तो आप और शेरसिंह भी यहां पहुंच चुके थे। मगर यकीन कीजिए मैंने यह हत्या....।''

''लेकिन किसी को खास कटार से ही फूलवती की हत्या करने से क्या लाभ हो सकता है?'' सुरेन्द्रसिंह जसवन्तसिंह को घूरते हुए बोले।

''महाराज, आप यकीन कीजिए, मैंने यह हत्या नहीं की है।'' जसवन्त बोला- ''हत्यारा मुझे जबरदस्ती फंसाना चाहता है।'' - ''लेकिन खास तुम्हें ही क्यों?'' सुरेन्द्रसिंह सोचते हुए बोले।

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