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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

कौन है शेरसिंह...?'' सुरेन्द्रसिंह एकदम गरज उठे- ''तुम उस देशद्रोही का नाम लो - हम जानना चाहते हैं कि वह नमकहराम कौन है?'' - 'वो महानुभाव भी इस समय इसी दरबार में उपस्थित हैं महाराज।'' शेरसिंह बड़ी गहरी दृष्टि से हरनामसिंह को घूरता हुआ बोला-- ''मैं अच्छी तरह जानता हूं कि जब मैं उसका नाम लूंगा तो कोई भी मेरा विश्वास नहीं करेगा। ठीक भीँ है - अगर कोई कहता कि फलां आदमी गद्दार है तो मैं भी विश्वास न करता - किन्तु मेरे पास अपनी बात को साबित करने के लिए पूरे सुबूत हैं। यह भी मेरा दावा है कि इस समय उस गद्दार का कलेजा दहल रहा है।''

'तुम नाम क्यों नहीं लेते शेरसिंह ... उस गद्दार का नाम लो!'' क्रोध में सुरेन्द्रसिंह चीख पड़े- ''चाहे वो कोई भी क्यों न हो? हम उस गद्दार को सजाए-मौत देंगे।''

''तो सुनो महाराज!'' शेरसिंह ने कहा- ''उस गद्दार का नाम है हरनामसिंह - आपका भाई, इसी भाई ने चन्द्रदत्त से यह सौदा किया था।''

शेरसिंह के मुंह से नाम सुनते ही सारे दरबार में सनसनी-सी फैल गई। खुद सुरेन्द्रसिंह का भी दिमाग घूम गया। हरनामसिंह एकदम हड़बड़ाकर अपने स्थान से खड़े हो चीखे- ''जुबान को काबू में रखकर बात करो शेरसिंह ... ये माना कि एक जबर्दस्त ऐयार हो, लेकिन हम पर ऐसी गन्दी तोहमत लगाने से पहले जरा सोच तो लेते कि हम सुरेन्द्रसिंह के सगे भाई हैं। कांता हमारी भतीजी है - क्या हम गद्दी के लिए अपने सगे भाई की हत्या और भतीजी का सौदा कर सकते हैं, क्या हम इतने गिर सकते हैं?''

'गिर सकते हैं नहीं हरनामसिंह, बल्कि गिर गए हो?'' शेरसिंह गुर्राकर बोला- ''अब तुम्हारी कलई खुलने में कोई कसर नहीं रह गई है। हम जानते थे कि तुम ऐसा ही कहोगे और किसी को सहज ही हमारी बात पर यकीन भी नहीं आएगा। लेकिन जैसा कि हम कह चुके हैं - हमारे पास अपनी बात को साबित करने के पूरे सुबूत हैं।''

''उन सबूतों को पेश करो तुम शेरसिंह।'' सुरेन्द्रसिंह कड़े-से स्वर में बोले- ''हम पर जरा कृपा करके - उन्हें पेश कर दो।''

''सबूत ये खत हैं महाराज---जो हरनामसिंह ने चन्द्रदत्त को लिखे थे।'' शेरसिंह ने खत बटुए से निकालकर महाराज को देते कहा- ''इन खतों में वह सब लिखा है, जो बातें राजा चन्द्रदत्त और हरनाम के बीच हुआ करती थीं। यह खत राजा चन्द्रदत्त के पास से मिले हैं। खतों का आदान-प्रदान उन चालीस रातों में भी बराबर हुआ है, जब चन्द्रदत्त की सेना राजधानी के बाहर पड़ी थी - ये खत आपके दिल के शक को भी विश्वास में बदल देंगे।''

''ये सब झूठ है।'' अपनी पूरी शक्ति से चीख पड़े हरनामसिंह- ''हमने चन्द्रदत्त को कभी कोई खत नहीं लिखा - यह हमें फंसाने की कोई साजिश है।''

''जब तक कोई फैसला न हो जाए हरनाम, तुम शान्त बैठे रहो।'' सुरेन्द्रसिंह ने उन्हें आदेश दिया, फिर अपने दारोगा से बोले- ''जसवन्तसिंहजी, जरा इन खतों को जोर-जोर से पढ़कर सबको सुनाओ।''

दारोगा जसवन्तसिंह ने महाराज की आज्ञा का पालन किया। वे खत जोर-जोर से पढ़कर सबको सुनाते गए। यहां उन खतों का मजमून लिखना व्यर्थ है क्योंकि हमारे पाठक पहले ही वह खत पढ़ चुके हैं। यह समझना चाहिए कि सभी खतों का मजमून यह साबित करता था कि हरनामसिंह चन्द्रदत्त से मिले हुए थे - जब जसवन्तसिंह ने पहला खत खत्म किया तो हरनामसिंह चीख पड़े- ''यह गलत है - धोखा है, यह खत हमने कभी नहीं लिखा।''

सुरेन्द्रसिंह ने पुन: उन्हें डांटकर चुप होने का आदेश दिया। जसवन्तसिंह ने दूसरा खत पढ़ा - फिर तीसरा - चौथा - पांचवाँ... इसी तरह से जब सब खत खत्म हो गए तो हरनामसिंह बोले- ''हम अपने ईमान की कसम खाकर कहते हैं कि इनमें से कोई भी खत हमने नहीं लिखा है।''

''तुम्हारा ईमान ही कहां रह गया है हरनामसिंह - वह तो तुमने बेच दिया है।'' सुरेन्द्रसिंह गुर्राकर बोले- ''तुम हमारे सगे भाई हो। राजकुमारी कांता तुम्हारी बेटी है और तुम तो इतने नीच निकले कि गद्दी के लालच में अंधे होकर अपनी बेटी का सौदा और हमारी हत्या तक करने को तैयार हो गए और तुम अगर हमसे वैसे भी भरतपुर का राज्य मांगते तो हम तुम्हें दे देते - लेकिन तुमने ऐसा नीच कदम उठाया। तुम्हारे लिए हम पहले ही सजाए-मौत चुन चुके हैं।''

''आप हमारे सगे भाई हैं महाराज - आपके आदेश का पालन करना मेरा धर्म है।'' हरनामसिंह ने कहा- ''अगर आप आदेश दें तो मैं एक क्षण में अपनी गरदन अलग कर सकता हूं। लेकिन मुझ पर इस तरह का कलंक न लगाएं। मुझे भी कुछ कहने का हुक्म दें - मैं सच कह रहा हूं मैंने कोई खत चन्द्रदत्त को नहीं लिखा है।'' - ''अपनी कथनी का क्या सुबूत है तुम्हारे पास?'' सुरेन्द्रसिंह गुस्से में बोले।

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