ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 2 देवकांता संतति भाग 2वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
पंद्रहवाँ बयान
''आप जोरावरसिंह को पहचानने में गलती कर गए, पिताजी।'' शंकरदत्त चंद्रदत्त से कह रहा था- ''आपने उसे सीधा, सच्चा और वफादार जानकर उस पर जरूरत से ज्यादा विश्वास कर लिया। सारी सेना का भार उस पर छोड़ दिया, अब नतीजा क्या निकला - हमारी ही सेनाओं के बल पर वह हमारे पूरे खानदान को नष्ट करने की तरकीब लड़ा रहा है। वह मेरी कांता को भी प्राप्त करना चाहता है और हमारा राज्य भी।''
''हमें अच्छी तरह से आदमी की पहचान है शंकर बेटे!'' चंद्रदत्त टूटे-से स्वर मे बोले-- ''अच्छी तरह से परखकर ही हमने जोरावरसिंह को अपना दारोगा और सेना का सर्वेसर्वा बनाया था। हम अब भी विश्वास के साथ कह सकते हैं कि अगर कांता की बात नहीं होती तो वह हमसे किसी भी कीमत पर दगा नहीं कर सकता था.. लेकिन कांता इतनी रूपवान और गुणवती है कि जोरावरसिंह का भी मन डोल गया और वह हमसे दगा करने लगा। अगर ध्यान से गौर किया जाए बेटे तो यह कोई ज्यादा आश्चर्य की बात नहीं है। कांता को प्राप्त करने के लिए जब हम भरतपुर पर चढ़ाई कर सकते हैं तो उसे ही पाने के लिए जोरवरसिंह हमसे दगा करने के लिए तैयार हो जाए तो इसमें क्या आश्चर्य है? कांता है ही ऐसी कि उसे प्राप्त करने के लिए कोई भी पुरुष अपना गला तक काट सकता है।''
''लेकिन अगर ऐसा हो गया पिताजी तो मैं कांता के बगैर तड़प-तड़पकर मर जाऊंगा।'' शंकरदत्त दीवाना-सा होकर बोला- ''मैं राजकुमारी कांता को किसी और की पत्नी के रूप में नहीं देख सकता। कुछ भी नहीं कर सका तो मैं अपनी जान दे दूंगा - मुझे कांता से बेइन्तिहा मुहब्बत है। अभी चंद्रदत्त अपने बेटे की इस दीवानगी-भरी बात का उत्तर भी नहीं दे पाए थे कि नलकू (शेरसिंह) खेमे के अन्दर दाखिल हुआ। तोनों अपनी बातें भूलकर उसकी ओर जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से देखने लगे। राजा चंद्रदत्त स्वयं को रोक नहीं सके और उन्होंने प्रश्न किया- ''क्या रहा?''
''दारोगा साहब वास्तव में दुश्मन से मिल गए हैं महाराज!'' नलकू ने दुखी मन का अभिनय करके कहा- ''मुझे वह धागा उसी स्थान पर लटका हुआ मिला। उसमें इस पत्र के साथ-साथ ये अंगूठी भी बंधी हुई थी - खत तो मैंने नहीं पढ़ा, मगर अंगूठी पर कांता लिखा है।''
''कांता!'' शंकरदत्त एकदम दीवाना-सा होकर नलकू पर झपटा और उसने नलकू के हाथ से वह अंगूठी ले ली। यह हीरे की एक कीमती अंगूठी थी। उसके ठीक बीच में हीरे को तराशकर लिखा गया था- कांता - अंगूठी को देखते ही शंकर पागल-सा होकर बोला- ''हां मैं इस अंगूठी को पहचानता हूं - यह राजकुमारी कांता की अंगूठी है - मैंने एक बार उसे यह अंगूठी पहने हुए देखा है - हाय - मेरी कांता.. मेरी कांता!'' - ''लेकिन डोरी में इस अंगूठी को बांधने का क्या सबब हो सकता है?'' बालीदत्त कुछ सोचता हुआ बोला।
''शायद सुरेंद्रसिंह के इस खत को पढ़ने से कुछ पता लग सके।'' नलकूराम ने कहा-- खुद चंद्रदत्त ने वह खत खोला - शंकरदत्त, बालीदत्त और खुद नलकू भी उस पत्र पर झुक गए। चारों ने मन-मन में पढ़ा, लिखा था-
बेटे जोरावरसिंह,
तुम्हारा ये पत्र हमें प्राप्त हो चुका है। तुमने इसमें लिखा है तुम्हें इस बात में सन्देह है कि हम अपनी बेटी कांता का विवाह अपने वायदे के मुताबिक तुमसे करेंगे भी या नहीं। हम क्षत्रिय हैं और हम तुम्हें वचन दे चुके हैं। तुम तो खुद क्षत्रिय हो - अत: स्वयं क्षत्रिय के वचन का मतलब जानते हो। हम प्राण दे सकते हैं परन्तु अपने वचन से नहीं मुकर सकते। फिर तुममें ऐसी कोई कमी भी नहीं है - जो हम तुम्हें कांता के लायक न समझें - तुम क्षत्रिय हो। हमारी जाति के हो। राजा भी तुम बनने ही वाले हो। शंकरदत्त से तो तुम लाख गुना अच्छे हो। हम फिर वचन देते हैं कि कांता का विवाह तुम्हीं से करेंगे। तुम्हारे विश्वास के लिए हम इस पत्र के साथ राजकुमारी कांता की अंगूठी भी भेज रहे हैं। अब बस कांता को तुम अपनी ही समझो। तुमने अपने इस पत्र में अपनी पूरी योजना लिख भेजी है - तुम्हारे लिखने के अनुसार हम कल संध्या के अन्तिम पहर में यह घोषणा कर देंगे कि हम चंद्रदत्त से हार स्वीकार करते हैं और अपनी बेटी कांता का विवाह हम चंद्रदत्त के पुत्र शंकरदत्त से करने के लिए तैयार हैं। अपने कुछ खास-खास सैनिकों को और ऐयारों को हम असलियत बता देंगे, वर्ना सबसे यही कहा जाएगा कि द्वार खोलकर चंद्रदत्त को सम्मान के साथ राजधानी में लाया जाए। इस घोषणा से चंद्रदत्त खुश हो जाएगा और इस तरह उन्हें भरतपुर के महल में ले जाया जाएगा। महल में ही तुम तीनों बापबेटों की गरदनें काटकर कांता के पैरों में डाल दोगे - उधर तुम अपने खास-खास आदमियों को पहले ही बता देना कि राजा चंद्रदत्त को महल के अन्दर सम्मान के साथ किसलिए ले जाया जा रहा है। कल ही रात्रि में तुम्हारा और कांता का विवाह संम्पन्न हो जाएगा और उन तीनों बाप-बेटों की हत्या करके तुम राजगढ़ के राजा कहलाओगे। अब चंद्रदत्त को पता लगेगा कि दूसरों की बेटी पर बुरी नजर डालने का नतीजा क्या होता है।
- सुरेन्द्रसिंह
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