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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

दसवाँ बयान


जब से हम यह संतति का दूसरा भाग लिखने बैठे हैं, तब से हम उसके नये, विचित्र एवम् दिलचस्प पात्रों में कुछ इस प्रकार उलझ गए हैं कि अपने पुराने और प्यारे पात्र अलफांसे को तो बिल्कुल ही भूल गए। संतति के पहले भाग में हम उसके विषय में जो कुछ भी लिख आए हैं, वह बड़ा आश्चर्यजनक् है। अलफांसे के साथ घटी घटनाओं का जितना आश्चर्य हम सबको है, उससे कहीं अधिक खुद अलफांसे को है। अगर पाठकों को उसके साथ घटित आश्चर्यजनक घटनाएं याद न हो तो देवकांता संतति के पहले भाग में पढ़ सकते हैं। हम यहां इतना ही लिखेंगे कि बागीसिंह ने उसे धोखे में डालकर अपना कान सुंघा दिया -- बागीसिंह ने अपने कान में बेहोशी की दवा में भीगा फोया (रूई) लगा रखा या. जिसे सूंघते ही वह बेहोश हो गया।

इस समय हम अलफांसे को एक झरने के पास वैठा हुआ पाते हैं। झरना एक ऊंची पहाड़ी के पत्थर से टकराता नीचे मैदान में गिर रहा मैदान में झरने का पानी एक नहर का रूप धारण करके बह रहा है। झरने का जल अत्यन्त ही स्वच्छ है। जब अलफांसे होश में आया तो खुद को उसने इसी मैदान में पाया था, इस मैदान को मैदान कम और बाग कहना अधिक उचित होगा। क्योंकि इस मैदान में फल और मेवों के अनेक वृक्ष हैं, अलफांसे को जब होश आया तो सूरज की तेज किरणें उस पर पड़ रही थीं। वह उठकर बैठ गया और कुछ देर तक अपने चारों ओर की स्थिति का अध्ययन करता रहा।

वह बाग काफी बड़ा था - परन्तु चारों ओर गगन को स्पर्श करती हुई पहाड़ियों से घिरा हुआ था। चारों ओर की ऊंची पहाड़ियों के कटाव कुछ इस तरह बने हुए थे कि उन पर चढ़कर मैदान से बाहर निकलने के विषय में सोचना मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं था।

यूं कहना चाहिए कि अलफांसे ने काफी तलाश किया, मगर उसे इस बाग से निकलने का कोई मार्ग नहीं मिला। अत: वह समझ गया कि उसे इस अजीब-से बाग में कैद किया गया है। उसने वृक्षों से फल और मेवे खाकर अपने पेट की भूख को शांत किया तथा नहर का स्वच्छ जल पिया - इन सब कामों से निवृत्त होकर वह नहर के किनारे बैठा अपनी स्थिति पर विचार कर रहा था। वह यह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वह इस कैद से किस प्रकार छुटकारा पाए।

अभी तक वह यह भी नहीं समझ सका था कि वह किस विचित्र टापू में फंस गया है। यह निर्णय उसने यह महसूस करके ही लिया था कि यहां के लोग बड़े खतरनाक हैं। फिर भी अलफांसे के लिए यह बात आश्चर्यजनक थी कि यहां के लोग उसके नाम में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं? अभी वह इन्हीं विचारों में उलझा हुआ था - और किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंच पाया था कि !

''मिस्टर अलफांसे!'' किसी ने उसे पुकारा। अलफांसे एक झटके के साथ पत्थर से उठा और पीछे पलटा - उसने देखा - सामने एक बूढ़ा-सा नजर आने वाला व्यक्ति खड़ा था। उसके चेहरे का अधिकांश भाग सफेद सन की भांति दाढ़ी और मूंछों से ढका था। दाढ़ी इतनी लम्बी थी कि नाभी को स्पर्श करती-सी नजर आती थी। उसके सारे जिस्म पर गेरुए रंग के कपड़े थे, चेहरा जितना भी चमक रहा था, वह कठोर व मजबूत था। चौड़े तथा बलदार मस्तक पर एक लाल तिलक लगा हुआ था। आखें अंगारे की भांति सुर्ख थीं।

अलफांसे ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा - किन्तु पहचान न सका कि वह कौन है? जबकि पाठक उसे भली प्रकार पहचानते हैं। ये वे ही वंदना और गौरव के गुरु हैं, जिनके बारे में आप पहले भाग में पढ़ चुके हैं। अलफांसे ने उन्हें घूरते हुए प्रश्न किया- ''कौन हैं आप?''

''हमारा परिचय तो तुम्हें मिल ही जाएगा बेटे।'' गुरुजी शांत स्वर में बोले- ''लेकिन पहले जरा इस बात का जवाब दो कि क्या वास्तव में तुम्हारा नाम अलफांसे है? अगर तुम वही अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी अलफांसे हो तो सच मानो, हमारे भाग्य खुल गए हैं। हां, मैं तुमसे यह प्रश्न अवश्य पूछूंगा कि तुम यहां इस टापू पर किस तरह आए, यहां तुम्हें कौन लाया?''

''यहां मुझे कोई भी नहीं लाया!'' अलफांसे ने जवाब दिया- ''बल्कि एक प्रकार से प्रकृति ने ही मुझे यहां भेज दिया है।''

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