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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''वह बात तुम्हें विक्रमसिंह ने क्यों नहीं बताई?'' पिशाचनाथ ने पुन: प्रश्न किया।

''तुम तो बेकार की बात कर रहे हो पिशाच!'' बख्तावर ऊबता-सा बोला- ''जो बात तुमने मेघराज के कान में बताई थी, उसे भला विक्रम किस प्रकार सुन सकता था और जब उसने सुना ही नहीं तो बताए क्या?''

''यही तो तुम नहीं समझ रहे हो बख्तावरसिंह!'' पिशाच बात समझाने वाले स्वर में बोला-- ''ये बात तुम्हें उसने इसलिए नहीं बताई है कि वह इसे सुन नहीं पाया था, बल्कि इसका सबब ये है कि यह बात वह तुम्हें बताना नहीं चाहता। क्योंकि वह तुम्हें धोखा देना चाहता है। जरा दिमाग से सोचो कि जब हम यानी मैं और मेघराज सारी बातें अलग कमरे में कर रहे थे तो कोई भी बात मुझे उसके कान में कहने की क्या आवश्यकता थी? वह भी ऐसी बात जो उन सब बातों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण थी। जरा सोचो-- कि सब बातें तो मैंने इस तरह कहीं कि छुपा हुआ विक्रम सुन सके और यही बात मैंने इस ढंग से कही कि विक्रम न सुन सके। अगर ऐसा हुआ होता तो इसका मतलब ये था कि मुझे ये मालूम था कि कोई छुपकर हमारी बातें सुन रहा है। अगर मुझे ये मालूम होता तो मैं सब बातें इस प्रकार क्यों कहता कि छुपा हुआ कोई आदमी उन बातों को सुन सके। किसी भी ढंग से विक्रमसिंह की बात ठीक नहीं बैठती!''

'मैं अभी तक नहीं समझ सका हूं कि तुम कहना क्या चाहते हो ?'' बख्तावरसिंह ने कहा।

'कमाल है।'' पिशाच बोला- ''मैं तो ये समझता था कि तुम्हारे अन्दर इतना दिमाग है कि तुम किसी भी बात को कम शब्दों में समझ सकते हो। परन्तु अब मैं महसूस कर रहा हूं कि तुम्हें हर बात खोलकर ही समझानी होगी। सुनो, विक्रमसिंह ने जो ये कहा है कि कोई बात मैंने मेघराज के कान में कही थी, यह विक्रमसिंह ने तुमसे झूठ बोला हे। यह बात भी मैंने उसी ढंग से कही थी, जैसे अन्य बातें। विक्रम का यह कहना भी गलत है कि ये सब बातें उसने छुपकर सुनी हैं - असलियत ये हे कि सब बात उसी समय हुई हैं - जब हम तीनों मेघराज, मैं और विक्रम पास-पास बैठे थे। असली बात छुपाने के लिए उसने तुमसे यह बहाना करके छुपाई है कि मैंने वह बात मेघराज के कान में कही थी, दरअसल वही बात सबसे अधिक महत्त्व की थी, जिसे विक्रम तुमसे बहुत खूबसूरत बहाने के साथ छुपा गया। उसने तुम्हें इस हद तक मूर्ख बना दिया है कि तुम मेरी बात पर विश्वास नहीं कर पा रहे हो। जरा खुद सोचो कि एक आदमी सारी बातें खुलेआम कह रहा है तो वह एक खास योजना ही कान में क्यों बताएगा? यह विक्रम का बहाना है। असलियत यही है कि वह तुम्हें उस योजना के विषय में बताना ही नहीं चाहता।''

इस परिस्थिति में पहुंचकर बख्तावरसिंह सोचने पर विवश हो गया। मगर अभी कुछ देर पहले वह विक्रम को दोस्त कह चुका था। बिना किसी ठोस प्रमाण के वह किस प्रकार एकदम विक्रम पर अविश्वास कर बैठे? सम्भव है कि पिशाच ही उसके साथ किसी प्रकार की ऐयारी खेल रहा हो। इस समय बख्तावरसिंह बड़ी अजीब-सी उलझन में फंसा हुआ था - इस समय वह सबकुछ सोचकर निर्णय करना चाहता था। बोला- ''क्या तुम्हारे पास इसके अतिरिक्त कोई सुबूत है?''

''हां है!'' पिशाच ने कहा- ''विक्रम से ये पूछो कि वह बख्तावरसिंह क्यों बना?''

पिशाच के इस प्रश्न ने बख्तावरसिंह के मस्तिष्क में धमाका-सा किया। वास्तव में उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि विक्रमसिंह उसका भेष बनाकर अपना कौन-सा काम निकालना चाहता था? इस बार बख्तावर पर रहा नहीं गया और घूमकर विक्रमसिंह से यह प्रश्न कर दिया।

विक्रमसिंह ने जवाब दिया- ''मेरे एक ऐयार साथी रूपलाल ने यह पता लगा लिया था कि गुलबदन नकली बलवंत बनकर दलीपसिंह के महल में मुकरन्द का पता लगाने के लिए गया है, रूपलाल ने किसी धोखे में फांसकर तुम्हें बख्तावरसिंह को, गिरफ्तार भी कर लिया था। यह बात रूपलाल ने उमादत्त को बता दी थी। उमादत्त ने मुझे बुलाकर सबकुछ बताया और आदेश दिया कि मैं खुद मुकरन्द प्राप्त करूं। मैंने सोचा कि अगर मुकरन्द बलवंतसिंह बने गुलबदन के हाथ लगेगा तो वह अपने पिता यानी तुम्हें बख्तावर ही समझेगा। साथ ही यह भी सोचा कि तुम तो हो ही कैद में ------ अत: क्यों न मैं ही बख्तावर बनकर गुलबदन से मुकरन्द प्राप्त कर लूं।''

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