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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

नौवाँ बयान


''निश्चय ही पिशाच ने मेघराज को कोई ऐसी तरकीब बता दी थी, जिसके जरिए कमलदान का पता लगाना निश्चित था।'' विक्रमसिंह ने बख्तावरसिंह और गुलबदन इत्यादि को बताया- ''परन्तु क्योंकि वह योजना पिशाच ने मेघराज के कान में बताई थी, इस वजह से मैं नहीं सुन सका। काफी देर तक मेघराज खुशी के कारण पागल-सा होकर कमरे में नाचता रहा। उसे तभी अपना होश आया, जब पिशाच ने कहा- 'हम चार दिन बाद इस योजना पर काम करेंगे।'

''नाचता हुआ मेघराज एकदम ठहरा और पिशाच को देखता हुआ बोला- 'क्यों - कल ही क्यों नहीं?'

''मुझे अभी किसी काम से शंकर नगर जाना है।' पिशाच ने कहा- 'और वहां से मैं चार दिन बाद ही लौटूंगा।' मेघराज ने काफी कहा कि वह शंकर नगर किस काम से जा रहा है? परन्तु पिशाच ने उसे यह नहीं बताया। कुछ देर बाद पिशाच उससे विदा लेकर चला गया  और उस समय मैं एक स्थान पर छुप गया था। कुछ देर बाद मैं मेघराज के पास गया और उससे कहा कि उसे राजा साहब ने तलब किया है।'' -- ''क्या तुमने ये सारी घटनाएं अभी उमादत्त को नहीं बताई है?''  बख्तावरसिंह ने प्रश्न किया।

''नहीं।'' विक्रमसिंह ने जवाब दिया।

''क्यों?''

''क्योंकि उमादत्त को यह सब कहने से कोई लाभ नहीं होगा।'' विक्रमसिंह ने कहा- ''वह मेघराज पर आवश्यकता से अधिक विश्वास करते हैं, मेरी बात पर उन्हें विश्वास नहीं आएगा। इस स्थिति में राजा साहब मुझे सजा देंगे अथवा मेघराज मुझे भी उसी प्रकार की किसी साजिश में फंसा देगा जिस प्रकार तुम्हें फंसाकर राजा साहब की नजरों से गिरा दिया--- अभी तक तो मेघराज को यह भी पता नहीं है कि उसकी और पिशाच की बातें मैंने सुनी हैं, अगर मैं इस बात का जिक्र करूंगा तो राजा साहब मेघराज से अवश्य इस बारे में चर्चा करेंगे, मेघराज कोई बहाना लगाकर राजा साहब को तो मूर्ख बना देगा, किन्तु राज्य में मैं उसका सबसे बड़ा दुश्मन बन जाऊंगा और आजकल राज्य में उससे दुश्मनी लेकर राज्य में रहना उसी प्रकार है जैसे पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर करना। अत: मैं कुछ नहीं कर सकता।''

''लेकिन क्या तुम इस तरह अपने मालिक (उमादत्त) का अन्त  चुपचाप देखते रहोगे?'' बख्तावर ने पूछा।

''जी तो नहीं मानता लेकिन क्या करूं? अकेला कर भी क्या सकता हूं?'' विक्रम ने कहा- ''क्या पता कौन उससे मिला है?''

''तुम तो जानते हो विक्रमसिंह कि मैं जब तक भी उमादत्त का नौकर रहा, उसके प्रति हर तरह से वफादार रहा।'' बख्तावरसिंह बोला- ''उसने मुझ जैसे सच्चे ऐयार को बेइज्जत करके अपने राज्य से निकाल दिया तो क्रोध में मैंने दो-चार काम उमादत्त के खिलाफ जरूर किए हैं। यह तो मैं जानता था कि मेरे साथ मेघराज ने धोखा किया था, किन्तु उसने क्या किया था, यह आज मुझे तुम्हारी बातें सुनकर ही पता लगा है। मैं आज तक समझता था कि मुझे अपमानित करके राज्य से निकाल देने में उमादत्त का भी हाथ है, लेकिन आज तुम्हारी बातों से पता लगा है कि सारा दोष मेघराज का था। राजा उमादत्त का कोई दोष नहीं है। वे तो मेघराज की ऐयारी में फंस गए, उनके स्थान पर कोई भी होता तो धोखा खा जाता। आज मुझे पता लगा कि मेरा असली दुश्मन तो मेघराज है, उमादत्त नहीं, उमादत्त मुझसे अब भी नफरत करते होंगे, क्योंकि अभी तक उन्हें असलियत का पता नहीं लगा है। किन्तु मैं उमादत्त का ऐयार हूं - मैं आज भी उनका साथ चाहता हूं। जो अभियोग मेघराज ने मुझ पर लगाया था, वही अपराध खुद वह करना चाहता है। अब जबकि मैं असलियत जान गया हूं तो अपने जीते-ज़ी मैं कभी मेघराज को सफल नहीं होने दूंगा। मैं आज भी उमादत्त का ऐयार हूं - जब उमादत्त को सबकुछ ठीक-ठीक पता लगेगा तो इस बार मुझे उसके राज्य में पहले से भी अधिक इज्जत वाला स्थान मिलेगा। तुमने कहा था विक्रमसिंह कि तुम अकेले होने के कारण मेघराज के खिलाफ कुछ नहीं कर पा रहे हो। अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारे साथ हूं हम दोनों मिलकर अपने मालिक (उमादत्त) को इस जालिम दारोगा मेघराज से बचा सकते हैं।''

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