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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

वह बेहोश हो गया और जब होश में आया तो वह फुर्ती के साथ उछलकर खड़ा हो गया और एक बार गन्ने की भांति लहराया - इस समय उसने खुद को एक लम्बे-चौड़े लॉन में पाया। लॉन की दीवारें, फर्श और छत.. सभी कुछ लाल पत्थर का बना हुआ था। लॉन में तीन तरफ दीवारें थीं और चौथी तरफ यह लॉन एक गैलरी में खुल रहा था। अभी टुम्बकटू वहां की भौगोलिक स्थिति को भली प्रकार देख भी नहीं पाया था कि किसी इन्सान के कराहने की आवाज उसके कानों में पड़ी। उसने पलटकर उस दिशा में देखा तो पाया.. उसके समीप ही फर्श पर हुचांग होश में आ रहा था।

''उठो चीनी महोदय !'' टुम्बकटू अपने ही अन्दाज में बोला- ''लगता है इस बार अफलातून में फंस गए हैं।''

उसकी आवाज सुनकर हुचांग खड़ा हो गया और चारों तरफ देखता हुआ बोला- ''बागारोफ चचा और माइक कहां गए?''

''उन्हें जरा आपके लिए लालीपॉप लेने भेजा है।'' टुम्बकटू बोला- ''हमने सोचा महोदय को लालीपॉप चूसने का शौक है।''

''मजाक मत करो, टुम्बकटू।'' हुचांग बोला- ''लगता है हम किसी मुसीबत में फंसते जा रहे हैं।''

'फंसते जा रहे हैं नहीं आदरणीय चीनी महोदय - बल्कि ये कहो कि फंस गए हैं।'' टुम्बकटू गन्ने की तरह लचककर बोला-- ''जिस तरह तुम्हें उन दोनों का पता नहीं है, उसी प्रकार हमें भी पता नहीं है। अजब करिश्मे के बाद जब आंख खुली तो हमने खुद को यहीं पाया।''

'वह गैस तो बड़ी करामाती थी।'' हुचांग बोला- ''पता नहीं बागारोफ और माइक उस गैस से बच सके या नहीं।''

''उसकी चिन्ता बाद में करना आदरणीय महोदय, पहले अपनी चिन्ता करो।'' टुम्बकटू दालान की ओर देखता हुआ बोला- ''हमारे ख्याल से यहां वार्तालाप करने में किसी प्रकार का लाभ नहीं होगा। निकलने के लिए रास्ता भी एक ही नजर आ रहा है - क्यों न इसी दालान में आगे बढ़कर देखा जाए कि क्या है? वैसे हो सकता है कि इस दालान में पहुंचते ही हमें फिर किसी प्रकार के नए करिश्मे के दर्शन हों।'' -''कहीं हम किसी और गहरे चक्कर में न उलझ जाएं।'' हुचांग सतर्क लहजे में बोला- ''इससे अच्छा तो ये है कि पहले हम कुछ देर यहीं बैठकर परिस्थिति पर विचार क्यों न कर लें। सम्भव है कि हम दोनों अपनी बात में किसी प्रकार के निष्कर्ष पर पहुंच सकें।''

''प्यारे भाई साहब, हमारे विचार से तो हमारा वार्तालाप व्यर्थ है। क्योंकि हमारे दिमाग के पुर्जे सूख चुके हैं। वैसे मक्खी मारने में दिमाग की कम आवश्यकता पड़ती है। एक काम यह भी अच्छा था कि हम यहां बैठकर मक्खी मारने लगते.. मगर महोदय.. हमें इस बात का सख्त अफसोस है कि यहां मक्खी भी नहीं है वर्ना धतूरे की कसम हम तीस मार खां बन जाते।''

हालांकि टुम्बकटू ने सही बात अपने ही अन्दाज यानी मजाक के ढंग से कही थी - परन्तु फिर भी उसका मतलब ये था कि यहां बैठकर बातें करने से किसी प्रकार का निष्कर्ष नहीं निकल सकता। अत: जिधर रास्ता मिले, उधर ही बढ़ते रहना एकमात्र काम है। काफी सोच-विचारकर उन्होंने वही निर्णय किया कि इस दालान की ओर बढ़ा जाए। इस बार दालान की ओर आगे बढ़ने वाला हुचांग था। दो-तीन सीढ़ियां तय करके हुचांग दालान से उतर गया। टुम्बकटू हुचांग का परिणाम देखकर ही उतरना चाहता था। अत: वह पीछे ही खड़ा देखता रहा और यह सोचता रहा कि देखना चाहिए हुचांग के साथ क्या होता है, अथवा वह किन परिस्थितियों से गुजरता है? हुचांग भी अपना एक-एक कदम नाप-तोलकर आगे बढ़ा रहा था, टुम्बकटू की तीक्ष्ण दृष्टि बराबर हुचांग पर स्थिर थी। इसके बाद भी टुम्बकटू धोखा खा गया। यह वह भी महसूस नहीं कर सका कि वह कौन-से पल धोखा खा गया? उसने अपनी सुराही-सी गर्दन को एक तेज झटका दिया। आखें मलीं और पूरे ध्यान से दालान में हुचांग को देखने की कोशिश की, परन्तु दालान में वह यह देखकर दंग रह गया कि हुचांग कहीं भी नजर नहीं आ रहा था। हुआ ये कि एकाएक टुम्बकटू यह भी नहीं जान सका कि हुचांग को दालान का फर्श निगल गया अथवा छत खा गई। दालान में किसी प्रकार का कोई फर्क नहीं था - किन्तु हुचांग एकदम चमत्कारिक ढंग से दालान से गायब हो गया था।

''अबे भाई आदरणीय.. चीनी!'' बौखलाकर दालान में चारों ओर देखता हुआ टुम्बकटू बोला- ''कहां गए मियां.. हम तो यहां तड़प रहे हैं। सच कहते हैं चीनी भाई, हमें तुमसे दस किलो मुहब्बत हो गई है.. जरा हमें आवाज दो हमारे सजना।''

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