ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 2 देवकांता संतति भाग 2वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
उसने कहा-' ये सच है कि बख्तावर राजा साहब (उमादत्त ) का तख्ता पलटना चाहता था। मैं उसी का साथी हूं उसने मुझे अपनी योजना के अनुसार गौरव बनाया था।' इत्यादि।
मेरी साजिश कुछ इस प्रकार कामयाब हुई थी कि उमादत्त की नजरों में हर तरह से बख्तावर को गद्दार साबित कर दिया था। बख्तावर ने चीख-चीखकर काफी समझाने की कोशिश की, परन्तु उमादत्त ने उसकी एक न सुनी और अगर सुननी भी चाही तो मैंने बख्तावरसिंह की बात काट दी। बख्तावरसिंह समझ गया कि उसके खिलाफ यह सारी साजिश मेरे द्वारा रचित है, किन्तु अब मुझे उसके समझ लेने से क्या डर था। राजा साहब उस पर क्रुद्ध हो उठे और अन्त में उन्होंने कहा- 'बख्तावरसिंह ! अगर ऐसी गद्दारी किसी और ने की होती तो या तो उसे सजाए-मौत देते अथवा जिन्दगी-भर अपनी कैद में सड़ा-सड़ाकर मार डालते - परन्तु तुम क्योंकि हमारी सेना के सबसे बड़े ऐयार हो------ अतः हम तुम्हें यही हुक्म देते हैं कि अपने परिवार के साथ तुम चौबीस घंटे के अन्दर हमारे राज्य की सीमा से कहीं बाहर चले जाओ। चौबीस घण्टे के बाद अगर तुम अथवा तुम्हारे परिवार का कोई भी आदमी हमारे राज्य में नजर आ गया तो उसे कोल्हू में पिलवा दिया जाएगा।'
बख्तावरसिंह ने उमादत्त की आज्ञा का पालन किया।
मै खुश था, क्योंकि मेरा दुश्मन अब राज्य से बाहर जा चुका था। कुछ दिन तक मैं अपनी तैयारियों में लगा रहा। अब मैं ऐसा जाल बिछा रहा था कि किसी प्रकार उमादत्त की गद्दी पर कब्जा कर सकूं। अन्दर-ही-अन्दर उमादत्त की सेना के अधिकांश सैनिक और ऐयार मैंने अपने पक्ष में कर लिए थे। मैंने निश्चय किया था कि उमादत्त को गिरफ्तार करके तिलिस्म में डाल दूंगा। जिस तिलिस्म का मैं दारोगा हूं। उसके बारे में मेरे जितना कोई नहीं जानता। एक-आध बार मैं उमादत्त को उस तिलिस्म में घुमाकर लाया हूं परन्तु उमादत्त भी तिलिस्म के केवल एक-चौथाई भाग से ही परिचित है।
वह शुक्ल पक्ष की रात थी, जब सारी तैयारियां पूरी करने के बाद मैं अर्द्धरात्रि के समय अपने कमरे में आया। सुबह को बगावत हो जानी थी -- यानी सुबह के लिए मैं सारा प्रबन्ध कर चुका था।
बिस्तर पर पड़ा-पड़ा मैं यह सोचकर गद्गद हो रहा था कि कल सूर्य निकलने के साथ ही मैं वहां का सम्राट बन जाऊंगा। मेरे कमरे में लटकी सुन्दर कन्दील जल रही थी, जिसका पर्याप्त प्रकाश कमरे में फैला हुआ था। मैं व्यग्रता से रात समाप्त होने का प्रतीक्षक था। एकाएक किसी खटके की आवाज से मेरी विचार श्रृंखला टूट गई। मैंने चौंककर देखा - एक आदमी मेरे कमरे की खुली हुई खिड़की से कूदकर अन्दर आ गया। उस समय मैं उसकी सूरत नहीं देख सका, क्योंकि उसके चेहरे पर नकाब था। उसे देखते ही मैंने झपटकर अपनी म्यान से तलवार खींच ली और फिर बिस्तर से उछलकर उसे ललकारता हुआ बोला - 'कौन हो तुम -- रात के इस समय यहां क्या कर रहे हो?'
'मौका तलवारबाजी का नहीं है, मेघराज।' वह आदमी बोला- 'मैं कुछ खास बातें तुमसे करने आया हूं। तुम शायद मेरी सूरत देखने के लिए मचल रहे हो - लो, तुम मुझे देख सकते हो!'
वह कहते हुए नकाबयोश ने अपनी नकाव उतार दी। ये देखकर मैं दंग रह गया कि वह रामरतन था। बख्तावरसिंह का जंवाई रामरतन। एक क्षण तो उसे देखकर मैं स्तब्ध-सा रह गया, परन्तु फिर बोला- 'तुम, तुम यहां कैसे आ गए? तुम्हें तो बख्तावरसिंह के साथ-साथ राजा साहब ने देश निकाले का हुक्म दिया था?'
तुम्हें यह समझाने आया हूं मेघराज कि तुम जो कल सुबह राजा बनने का ख्वाब देख रहे हो, उसे भूल जाओ।'
'क्यों - तुम क्या कर लोगे मेरा ?'' मैंने गरजकर पूछा- 'तुम तो राजा साहब की नजरों में पहले ही अपराधी हो। तुम्हारी एक नहीं सुनी जाएगी। सेना का अधिकतर भाग मेरे साथ है - अगर उमादत्त को पता भी लग जाय तो भी वह मेरा कुछ नहीं कर सकता।'
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