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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

विजय के चित्र के मुंह से रह-रहकर यही आवाज निकलने लगी।

आश्चर्य का दामन थामकर बांड ने चित्र छोड़ दिवा। संगीत एकदम बन्द हो गया और पुन: पहले जैसी स्थिति हो गई। अज्ञात संगीत और बोलते चित्र को देखकर बांड के आश्चर्य की सीमा निर्धारित करना हमारे बस का रोग नहीं है। ऐसा प्रतीत होता था मानो सम्पूर्ण विश्व का आश्चर्य उस क्षण एकमात्र बांड के चेहरे पर सिमट आया हो। वह तो कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था कि पेन्टिंग द्वारा बनाया गया कोई चित्र बोल भी सकता है और वह भी इतने साफ ढंग से। बांड के जेहन में रह-रहकर चित्र द्वारा कहे गए शब्द टकरा रहे थे। वह कुछ देर तक वह अपनी स्थिति पर विचार करता रहा और फिर उसने वही करने का निर्णय किया, जो उस तस्वीर ने उससे कहा था। किन्तु चित्र की ओर हाथ बढ़ाते समय उसके दिमाग में आया कि चित्र ने अपने वाक्य में यह तो बताया ही नहीं कि उसका कौन-सा कान दबाना है। उसने सोचा कि क्यों न वह चित्र के दोनों ही कान दबाए। उसने अपने इसी विचार को कार्यान्वित किया और परिणाम ये हुआ कि कोठरी में धीमे से संगीत के साथ एकदम दो दरवाजे उत्पन्न हो गए। एक कमरे की दाईं दीवार में, दूसरा बाईं दीवार में। बांड के नेत्र चमक उठे। हालांकि वह नहीं जानता था कि ये दोनों रास्ते उसे कहां ले जाएंगे, किन्तु इस छोटी-सी कोठरी में जब से वह आया था - किसी प्रकार का रास्ता न पाकर उसका दम घुट रहा था। इस विचार से वह संतुष्ट हुआ कि वह आगे तो बढ़ सकेगा।

बांड बेचारा क्या जानता था कि इस बार वह एक ऐसे रहस्य के दर्शन करने जा रहा है, जो उसके लिए दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य बन जाएगा। उसने पहले दाएं कान से हाथ हटाया किन्तु मार्ग बन्द नहीं हुआ, उसी प्रकार बना रहा मानो उसे अपनी ओर आमंत्रित कर रहा हो - संतुष्ट होकर उसने दूसरे कान से भी हाथ हटा लिया। अव बांड के सामने इस कोठरी से बाहर जाने के लिए दो मार्ग थे - एक क्षण उसने सोचा कि वह किस मार्ग की ओर बढ़े - उसे मालूम नहीं था कि कौन-सा रास्ता उसे कहां ले जाएगा। उसने सोचा कि पहले वह दोनों के करीब जा-ज़ाकर देख ले कि कौन-से दरवाजे के बाहर क्या है? यही निर्णय करके पहले वह दाईं तरफ बढ़ा.. दरवाजे के समीप पहुंचा तो उसने देखा कि वह रास्ता एक अन्य कमरे तक चला गया था। अथवा यूं कहिए कि वह रास्ता एक अन्य कमरे में था। यह कमरा उस कोठरी से काफी बड़ा और अजीब-सी चीजों से भरा हुआ था। कमरे के ठीक बीच में एक विशाल चबूतरा था - उस चबूतरे पर संगमरमर का एक हंस खड़ा हुआ था। यह हंस भी उसी कारीगरी से बना हुआ था, जैसे उसने इस खण्डहर के बाहर तालाब के चारों ओर अनेक पक्षी देखे थे अर्थात् देखने में वह एक सच्चा हंस जान पड़ता था - हंस के ऊपर एक शेर बैठा दिखाया गया था - यह शेर कुछ ऐसे पत्थरों का समावेश करके बनाया गया था कि उसके नकली होने का गुमान भी कोई नहीं कर सकता था। उसने ध्यान से देखा तो हंस और शेर की पुतलियों में हरकत भी अनुभव की.. उस क्षण तो बांड को ऐसा लगा कि हंस और शेर को नकली समझकर वह बहुत बड़ी भूल कर रहा है। लेकिन हंस के ऊपर शेर का बैठना एकदम असंभव था - कोठरी और कमरे के दरवाजे में खड़ा बांड उस दृश्य को घूरता रहा.. कभी उसे उनके नकली होने का सन्देह होता और कभी असली। यही बात जांचने हेतु उसने और अधिक ध्यान से उन्हें देखा.. मगर दोनों में से किसी में भी सांस लेने की प्रक्रिया नहीं हो रही थी। अत: बांड ने निश्चय किया कि वे दोनों असली नहीं, बल्कि नकली हैं। जेम्स बांड ने अनुभव किया जैसे वे दोनों उसी की ओर देख रहे हैं। उनकी हरकत करती पुतलियां उसे सन्देह में डाल रही थीं। एक बार को तो उसके दिमाग में आया कि वह आगे बढ़े और उनके समीप पहुंचकर उनका रहस्य जाने, किन्तु तभी उसके दिमाग में विचार आया कि अगर कमरे में जाते ही यह दरवाजा बन्द हो गया तो वह व्यर्थ ही इस अजीबोगरीब कमरे में फंसकर रह जाएगा।

उसने यही निश्चय किया कि पहले दूसरे रास्ते की स्थिति देख ली जाए।

वहां से हटकर बांड कोठरी की दाई ओर की दीवार वाले रास्ते की ओर बढ़ा। जैसे ही वह दरवाजे के बीच में कोठरी की ओर हटा, एक तेज झटके के साथ दरवाजा बन्द हो गया.. अब वह हंस और शेर को नहीं द्रेख सकता था - वह तेजी से बाईं ओर के दरवाजे की तरफ मुड़ा.. यह देखकर उसकी आंखें चमक उठीं कि वह दरवाजा उसी प्रकार खुला हुआ था - वह उसी तरफ बढ़ा।

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