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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

छठा बयान


आज न जाने क्या बात है कि हमें उन महाशयजी की बहुत याद आ रही है, जिनके विषय में हम पहले भाग में लिख आये हैं। हमने आपसे वादा किया था कि संतति क्रे दूसरे भाग में हम उन महाशयजी का नाम आप लोगों को अवश्य ही बताएंगे। हमने आपको चुनौती दी थी कि लोग स्वयं उन महाशयजी का नाम पता लगाएं। आप ठीक समझे हैं या नहीं, यह जानने के लिए आप यह बयान पढ़िए - अपने इस बयान में हम अपने महाशयजी का नाम खोलने जा रहे हैं। आपको याद है कि ये महाशय उमादत्त की कैद से भागे हैं और उमादत्त के खास ऐयार विक्रमसिंह के घर पहुंचते हैं - वहां से ये विक्रमसिंह की लड़की और पत्नी को गठरी में बांधकर चलते हैं। जंगल में बनी एक कुटी के निकट जाकर कुएं के अन्दर पहले गठरी फेंक देते हैं तथा उसके बाद स्वयं भी कूद पड़ते हैं। उस समय हम कुएं के अन्दर का दृश्य अंधेरे के कारण नहीं देख पाए थे। मगर आज हमें यही महाशयजी जंगल में एक तरफ को जाते हुए नजर आ रहे हैं। इस समय उनके सारे जिस्म पर काला लिबास है। केवल चेहरे पर नकाब नहीं है। हमने और आपने इन्हें चन्दारानी और कुन्ती की गठरी सहित एक कुएं में कूदते देखा था। उस कुएं में क्योंकि अंधेरा था, इसलिए न तो हम देख सके कि उन्होंने उस कुएं में जाने के बाद क्या किया और न ही यह बता सकते हैं कि ये महाशयजी उस समय क्यों और कैसे नजर आ रहे हैं। कुएं में कूदने से इस समय तक का हाल हम तभी लिख सकेंगे जब हमें किसी जरिए से पता लगेगा। इस समय तो हम केवल यही कह सकते हैं कि हमारे महाशयजी बहुत तेज चाल से जंगल में एक ओर को चले जा रहे हैं। कदाचित उन्हें किसी निश्चित स्थान पर जाने की जल्दी है। जिन पाठकों को इनके कुएं में कूदने का हाल याद न रहा हो तो वे (पहले भाग के ग्यारहवें बयान) में पढ़ें।

कुछ आगे जाकर महाशयजी जंगल में दाईं ओर मुड़ जाते हैं। कोई पांच कोस का रास्ता तय करने के बाद उन्हें सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई पड़ता है। कुछ पास आने पर हमारे महाशयजी पहचान लेते हैं कि वही उनका शागिर्द गंगाशरण है। गंगाशरण उन्हें आता देख उन्हीं की ओर बढ़ता है और पास आकर कहता है-

''गुरुजी प्रणाम!'' यह कहकर बह महाशयजी के चरण स्पर्श करता है। -''यहां क्या कर रहे हो, गंगाशरण?'' महाशयजी ने पूछा।

''बालादवी के लिए निकला था गुरुजी।'' गंगाशरण ने जवाब दिया।

''क्या खाक बालादवी कर रहे हो?'' महाशयजी क्रोधित होकर बोले-''मैंने तुम्हें इतनी ऐयारी सिखाई, किन्तु सब बेकार हो गई। क्या तुम बता सकते हो कि हम इतने दिन से कहां थे और इस समय कहां से आ रहे हैं?''

''क्या बात कर रहे हो गुरुजी?'' गंगाशरण बोला---''आप आज ही तो मुझसे मिले हैं।''

''तभी तो हम कहते हैं गंगाशरण कि तुम हमारे नाम को बट्टा लगा दोगे।'' महाशयजी बोले- ''तुमसे मिलने वाले हम नहीं, बल्कि उमादत्त का खास ऐयार विक्रमसिंह है। वह आजकल हमारे यानी बख्तावरसिंह के भेष में घूमता है। हम तो काफी दिन से उमादत्त की कैद  में थे। विक्रमसिंह तुम सबको धोखा दे रहा है और तुम हमारे नाम पर  कलंक लगा रहे हो।''

''ये आप क्या कह रहे हैं?'' गंगाशरण एकदम चौंका। -''ठीक कहते हैं हम!'' बख्तावरसिंह (महाशय) बोला- ''आओ हमारे साथ - कहीं वह हमारे लड़के गुलबदनसिंह को अपने जाल में न फंसा ले।'' यह कहकर बख्तावर आगे बढ़ गया। आश्चर्य में डूबा  गंगाशरण उसके साथ था। कुछ ही देर बाद वे एक छोटी-सी बस्ती में पहुंच गए। वे उस कच्चे मकान पर पहुंचे, जिसके दालान में तीन दासियां  बैठी हैं। इस मकान के विषय में हम (पहले भाग के नौवें बयान) में लिख आए हैं। बख्तावरसिंह को आता देख तीनों दासियां आश्चर्य से खड़ी हो जाती हैं।   

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