ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 1 देवकांता संतति भाग 1वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
बारहवाँ बयान
एक गठरी में बंधा हुआ विजय उसके कंधे पर था। वह तेजी के साथ भागता जा रहा था। अभी-अभी उसने एक गेंदनुमा बम का प्रयोग करके विकास, निर्भयसिंह, रैना, ब्लैक ब्वाय, रघुनाथ और गौरव के आसपास अंधेरा कर दिया था। उसने धुएं का लाभ उठाकर विजय र्की गठरी बनाई और भाग लिया। उसके सारे वदन पर काले कपड़े थे और चेहरे पर भी नकाब था, अत: हम नहीं कह सकते कि वह कौन था।
खैर---फिलहाल उसके साथ-साथ चलकर देखते हैं कि वह कहां जाता है? जंगल में कुछ ही दूर भागने के बाद वह एक ऐसे स्थान पर पहुंच जाता है, जहां पेड़ के साथ एक मजबूत घोड़ा बंधा हुआ था। कदाचित यह घोड़ा उसी रहस्यमय नकाबपोश का है।
अगले कुछ ही पलों उपरान्त वह घोड़े पर सवार होकर भागता चला जा रहा है।
कोई पांच कोस दूर जाकर वह अपना घोड़ा एक शिकारगाह के समीप रोक देता है। शिकारगाह के बाहर ही कुछ आदमी उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे चार आदमी थे जो उसके घोड़े को चारों ओर से घेर लेते हैं। - 'तुम्हारा, हमें - इस तरह घेरने का सबब?'' नकाबपोश गजरता हैं।
''हो सकता है कि तुम कोई ऐयार हो - अपने चेहरे से नकाब उतारो।'' उनमें से एक आदमी वोला।
'यकीन मानो, हम वही हैं।'' कहते हुए नकाबपोश अपनी नकाब उतार देता है - और हम कह सकते हैं कि यह व्यक्ति गौरवसिंह है किन्तु यह कहना हमारे लिए कठिन है कि ये गौरवसिंह असली है या विकास के पास जो रह गया है - वह असली है।
''पहचान बोलो!'' दूसरा आदमी उसकी सूरत देखने के बाद थोड़ा-सा सन्तुष्ट होकर कहता है।
''चूहे-बिल्ली का खेल।'' गौरवसिंह पहचान बता देता है। यह पहचान सुनकर चारों आदमी सम्मान के साथ गरदन झुकाते हैं, विजय की गठरी को पीठ पर लादकर गौरवसिंह घोड़े से नीचे कूद पड़ता है, एक आदमी घोड़े को एक तरफ ले जाता है और गौरवसिंह शिकारगाह के अन्दर की ओर बढ़ जाता है। शिकारगाह के अन्दर और भी आदमी होते हैं। शिकारगाह के एक कमरे में बने एक पत्थर के चबूतरे पर विजय की गठरी खोलकर उसे लिटा दिया जाता है।
उसके वाद गौरवसिंह विजय को लखलखा सुंघाकर होश में लाता है। बिजय कराहकर आखें खोल देता है और अपने चारों ओर की स्थिति का भली प्रकार परीक्षण करता है। वह देखता है कि उससे थोड़ी दूरी पर पांच आदमी एक लाइन में खड़े हुए हैं। एक आदमी उसके बिल्कुल समीप खड़ा है। विजय धीरे से उठकर चबूतरे पर बैठ जाता है। विजय यह समझने की भरपूर चेष्टा कर रहा था कि वह किन लोगों के बीच में है - और किन परिस्थितियों में है? एक-एक आदमी को उसने बड़े ध्यान से देखा - सभी के जिस्म पर अजीब से लिबास थे। लम्बे-लम्बे घुटने को स्पर्श करते गाढ़े (खद्दर) के कुरते-धोती -- सिर पर बंधा हुआ कम-से-कम दस गज कपड़े का मुंड़ासा। बगल में लटकी म्यान और उनमें रखी तलवारें। दूसरी बगल में लटका हुआ सबके पास एक-एक बटुआ। उनमें से कोई भी नौ फीट से किसी प्रकार कम लम्बा नहीं था। सभी हृष्ट-पुष्ट और मजबूत थे। विजय को ऐसा लगा कि अगर वे उसे नम्बरबारी से एक-एक हाथ भी मारें तो उसकी रूह जिस्म त्याग दे। लिबास से तो सभी देहाती लगते थे। एक बार को तो विजय के दिमाग में आया---इस बार वह कहीं डाकुओं के बीच तो नहीं फंस गया है?
यह भी उसने नोट किया था कि सभी की दृष्टि उसी पर केन्द्रित है।
'कहिए यारो, किस खेत की मूली हैं, आप लोग?'' विजय ने पूछा। - ''जी!'' कहते हुए गौरवसिंह ने सम्मान के साथ उसके सामने हाथ जोड़ दिए-''हम समझे नहीं!''
उसके इस प्रकार हाथ जोड़ने पर विजय को लगा कि उसका दिमाग अन्तरिक्ष में तैर रहा है। वह समझ रहा था कि इस बार वह किन्हीं डाकुओं के बीच फंस गया है, किन्तु उसके इस प्रकार हाथ जोड़ने से तो विजय चकरा ही गया, किन्तु फिर भी स्वयं को सम्भालकर उसने प्रश्न किया-
''हमारा मतलब है आप लोग कौन हैं?''
' जी - मैं आपका पुत्र हूं।'' गौरव उसी प्रकार सम्मान के साथ हाथ जोड़े हुए बोला।
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