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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

ग्यारहवाँ बयान

चाहे हमें कोई कितना भी लालच क्यों न दे, मगर हम किसी भी कीमत पर अपने इस अनोखे पात्र का नाम लिखकर अपने प्यारे पाठकों की जिज्ञासा, उत्कंठा और दिलचस्पी पर तुषारापात नहीं करेंगे। हां, इतना वादा करते हैं कि आगे चलकर जल्दी से हम उसका नाम खोल देंगे। जब तक हम उसका नाम आप-लोगों को न बताएं, तब तक आप जरा अपने दिमाग को कष्ट देकर पहचानने की कोशिश करें। अगर आपने पहचान लिया तो निश्चय ही आप तीव्र बुद्धि के स्वामी हैं। हां, तो आएं हमारे साथ और देखें इसे।

अरे! इनका तो हुलिया ही बता रहा है कि ये महाशय बहुत दिन से इसी कैद में आराम फरमा रहे हैं। सारे कपड़े मैले हो चुके हैं। ये महाशय अव्वल नम्बर के ऐयार हैं, लेकिन बेचारे के पास इस समय अपनी ऐयारी का बटुआ तक नहीं है। अगर इन महाशय पर बटुआ होता तो हम समझते हैं कि इतने दिन तो क्या, ये कुछ देर भी इस कैद में रहने वाले नहीं थे। मगर फिर भी ये महाशय यूं ही चुपचाप इस कैद में नहीं पड़े हैं। कैद से छुटकारा पाने का काफी लम्बे समय से निरन्तर प्रयास कर रहे हैं।

खैर, यह बात तो बाद में बताएंगे, पहले जरा इनका और उस जेलखाने का हुलिया लिख देना हम जरूरी समझते हैं।

तो देखिए, आपके खासे लम्बे-चौड़े जिस्म पर एक कुर्त्ता और धोती है। दोनों ही कपड़े जगह-जगह से फट चुके हैं। इस कैद में आने से पहले यहां महाशयजी के सिर पर एक पगड़ी भी थी, किन्तु उन्हें कैद करने वालों ने वह भी नहीं छोड़ी, क्योंकि उन्हें कैद करने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि वे अब्वल दर्जे के ऐयार हैं और पगड़ी से ही कमन्द का काम ले लें तो किसी प्रकार के आश्चर्य की बात नहीं है।

वे एक छोटी-सी कोठरी में बन्द हैं। कोठरी के एक कोने में एक चारपाई पड़ी है। कोठरी में तीन तरफ मजबूत दीवार है और चौथी तरफ मजबूत लोहे के सरिए का दरवाजा। लोहे के सरियों के बीच केवल इतना ही फासला है कि वे आराम से बाहर निकल सकते हैं। मगर इस पर भी वे अपनी ऐयारी का करिश्मा नहीं दिखा सकते।

उन्हें अच्छी तरह उस दिन की घटना याद है - जब उमादत्त के एक ऐयार रूपलाल ने उन्हें धोखा देकर गिरफ्तार कर लिया था। वैसे तो ये किसी के पंजे में इतनी सरलता से फंसने वाले नहीं थे किन्तु क्या करें दुश्मन ने धोखे से बन्द कर दिया।

जब होश आया तो उन्होंने खुद को उमादत्त के सामने पाया।

भरे दरबार में राजा उमादत्त ने उन्हें अपनाना चाहा, लेकिन ये महाशय नहीं माने और क्रोध में राजा उमादत्त को गाली रूपी अलंकारों से अलंकृत कर दिया। जिस पर उमादत्त को भी क्रोध चढ़ गया और इन्हें इस कैद में डाल दिया गया।

यह समय रात का है और कोठरी में एक चिराग टिमटिमा रहा है। ये महाशय जानते हैं कि अभी एक आदमी इनके लिए खाना लेकर आता होगा। ये उसी की इन्तजार में हैं, सोच रहे हैं कि कब वह आए और खाना देकर चला जाए ताकि ये अपने काम में लग जाएं।

कुछ देर तक ये यूं ही अपनी चारपाई पर पड़े-पड़े सोचते रहते हैं। फिर प्रति रात की भांति एक आदमी खाने की थाली लेकर उनकी सेवा में उपस्थित होता है। प्रति रात की भांति ही वह महाशय को सरियों के बीच में से रोटियां और दाल का एक कटोरा थमा देता है।

पहले दिन का दाल का कटोरा वे महाशय उस सेवक को लौटा देते हैं। सेवक जैसे गूंगा हो इस प्रकार चुपचाप कटोरा और थाली लेकर वापस लौट जाता है।

हम यह कहना नहीं भूलेंगे कि इन महाशय के साथ हर रोज यही क्रिया होती है। सेवक थाली में रोटी और सब्जी का कटोरा लेकर आता है। रोटी और कटोरा देकर पहला कटोरा और थाली लेकर वापस चला जाता है। नित्य-कर्मों से निवृत होने हेतु कोठरी में ही एक तरफ स्नान-गृह और शौचालय बना हुआ है।

सेवक के चले जाने पर महाशय भोजन करना शुरू कर देते हैं। सारी रोटी पेट में पहुंचाकर कटोरा भी खाली कर देते हैं और स्नान-गृह में जाकर एक मांट (घड़े) से पानी पीते हैं, तथा कटोरा धो लेते हैं। इस प्रकार पेट-पूजा कर ये महाशयजी आराम से बिस्तर पर लेट जाते हैं। इसी प्रकार लेटे-लेटे काफी देर हो जाती है तो चिराग बुझा देते हैं।

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