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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''दादाजी को होश में क्यों लाते हैं?'' दलीपसिंह बोले- ''होश में आते ही इन्हें अपने दर्द का अहसास होगा और ये फिर कराहेंगे। इनकी कराह हम पर सहन नहीं होती। अच्छा है कि इन्हें बेहोश ही रहने दें। कम-से-कम अपने दर्द का अहसास तो नहीं करेंगे।''

''वैसे तो आप ठीक ही कहते हैं।'' राजवैद्य बोले- ''लेकिन कुछ देर के लिए इन्हें होश में लाना जरूरी है। इन्हें यह दवा पिलानी है।'' एक शीशी दिखाते हुए राजवैद्य बोले- ''दवा पिलाने के बाद इन्हें फिर बेहोश कर दिया जाएगा।''

इसी तरह किया गया।

राजवैद्य सुरेंद्रसिंह के इलाज में लगे हुए थे। मेघराज दलीपसिंह से बोला- ''यहां खड़े रहने से अब कोई नतीजा नहीं निकलेगा। इन्हें इलाज करने दीजिए, आप मेरे साथ आइए। तखलिए में किसी मुनासिब जगह बैठकर बात करें। अभी वह खत भी पढ़ना है जो शेरसिंह अपने पीछे छोड़ गया है। उसके इस गुनाह का बदला हम शेरसिंह से लेकर रहेंगे।

दलीपसिंह को दारोगा की बात ठीक ही लगी और वह वहां पर मौजूद मुलाजिमों को जरूरी हुक्म देकर दारोगा के साथ बाहर आ गए। कुछ ही देर बाद वे अपने खास कमरे में दारोगा के सामने बैठे थे। कमरे में केवल वे दोनों ही थे, हर खिड़की और दरवाजा बंद था। हिफाजत के लिए कमरे के चारों तरफ बहुत-से सैनिक तैनात थे। दलीपसिंह ने बात शुरू की- ''मैंने तो कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि वह आपके भेस में...।''

''अब जो हो चुका है, उसे जाने दीजिए महाराज।'' मेघराज बोला- ''उसे याद करने से अफसोस के अलावा कुछ नहीं होगा - और अफसोस करने से कोई फायदा नहीं है। अब तो हमें आगे सोचना है कि क्या करना चाहिए।''

''वह तो ठीक ही है।'' दलीपसिंह बोले- ''तो सबसे पहले खत ही पढ़ लें, जो दादाजी के कटे हुए हाथ पर रखा गया था।'' मेघराज ने वह खत निकाला और जोर-जोर से पढ़कर दलीपसिंह को सुनाया। लिखा था-

''बेटे दलीपसिंह,

तुमने हमारा दूसरा कमाल देख लिया होगा। सुरेंद्रसिंह के दोनों हाथ काटे जा चुके हैं। जो कुछ भी हुआ है, वह लिखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि सबकुछ तुम्हारे सामने हुआ है। तुम बाखूबी जानते हो। हम जानते हैं कि तुम्हें दारोगा मेघराज पर बड़ा भरोसा है। चिंता मत करो - हम भी पहले तुम्हारे इस भरोसे को ही खत्म करेंगे। यह पता लगाना बहुत जरूरी है कि मेघराज उमादत्त का साला और दारोगा होने के बावजूद तुम्हारा दोस्त क्यों है, जबकि उमादत्त से तुम्हारी खानदानी दुश्मनी है। कदाचित् ये मेघराज खुद को इस जमाने का सबसे बड़ा ऐयार समझता है। हम इसे भी मजा चखाएंगे। हम भी इसी के भेस में तुम्हें धोखा दिए जा रहे हैं। वह मिले तो कहना - शेरसिंह ऐयार से बचकर रहे। तुम भी यह बात गौर से समझो कि मैं हर हालत में चौबीस घण्टे के अंदर आऊंगा और सुरेंद्रसिंह का कोई-न-कोई अंग लेकर चला जाऊंगा। इस भुलावे में मत रहना कि सुरेंद्रसिंह को तुम उस तिलिस्म में हिफाजत से रख सकोगे, जिसका दारोगा मेघराज है। तुम्हारी जानकारी के लिए बता दें कि मेघराज तो उस तिलिस्म का दारोगा अभी ही है, हमने पिछले जन्म में ही उस तिलिस्म का कोना-कोना छान रखा है। हम उसकी एक-एक जगह से अच्छी तरह से वाकिफ हैं। अत: सुरेंद्रसिंह को तिलिस्म में रखना किसी भी प्रकार तुम्हारे लिए कारगर साबित नहीं होगा, अगर कर सको तो सुरेंद्रसिंह की हिफाजत का कुछ और ही इंतजाम करना - वैसे बच तो वे कहीं भी नहीं सकेंगे। शेरसिंह अपने दिल में एक बार जो करने की ठान लेता है वह करके ही रहता है। दारोगा मेघराज से कहना कि इस वक्त जितनी दुश्मनी मेरी तुमसे है, उससे कहीं ज्यादा उससे, सबसे पहले तो उसके बारे में यही पता लगाना जरूरी है कि वह राजा उमादत्त से छुपकर तुमसे क्यों मिलता है। अब तुम दोनों में से किसी की खैर नहीं है।

तुम्हारा काल
- शेरसिंह। 

खत खत्म करते-करते एक बार तो मेघराज के जिस्म मेँ कंपकपी-सी दौड़ गई।

''अब क्या होगा दारोगा साहब?'' दलीपसिंह का लहजा कांप रहा था- ''ये तो सबकुछ जानता है।''

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