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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

इस वक्त पुर्जा--धनुषटंकार के हाथ में था। धनुपटंकार के हाथ में वह सबसे बाद में आया था। गुरुवचनसिंह सोच रहे थे कि ये बन्दर भला इस कागज में क्या देख रहा है! यह भला उस पैगाम को क्या समझेगा - जो यहां इतने आदमियों मे से केवल तीन की समझ में आ पाया है। गुरुवचनसिंह को तो यही डर था कि कहीं बन्दर इस कागज को फाड़-फूड़कर ही न फेंक दे। अगर कोई और पुर्जा बंदर के हाथ में देता को गुरुवचनसिंह उसे बन्दर के हाथ से वापस भी ले लेते - मगर कागज क्योंकि खुद विजय ने उसे पकड़ाया था - इसी सबब से वे कुछ बोल न सके थे।

गुरुवचनसिंह ही क्या धनुषटंकार की असलियत को यहां जितने भी न जानने वाले थे-वे सभी इस बात पर मन-ही-मन हंस रहे थे कि कागज एक बन्दर के हाथ में इसलिए दिया गया है कि वह उस पैगाम को समझे - जो यहां बैठे इतने आदमियों में गुरुवचनसिंह सहित केवल चार आदमियों की समझ में आया है। इस वक्त सबकी नजर धनुषटंकार पर ही जमी हुई थी। धनुषटंकार आराम से विजय के कंधे पर बैठा हुआ पुर्जे को बड़े ध्यान से देख रहा था। उसके एक हाथ में कागज था - दूसरे हाथ की तर्जनी उंगली बायें गाल पर रखे वह सोचने का ऐसा पोज बनाकर बैठा हुआ था - मानो कि बहुत बड़ा वैज्ञानिक किसी जटिल फार्मूले को समझने की काफी कोशिश कर रहा हो। उसके इस पोज को देखकर सब मुस्करा पड़े।

''अबे ओ चोर की औलाद!'' एकाएक विकास ने उसे सम्बोधित करते हुए कहा- ''क्यो सस्पैंस क्रियेट कर रखा है? जल्दी से जवाब दे कि समझा या नहीं? नहीं समझा तो हम बताये देते हैं।'' मगर, धनुषटंकार ने नजरें पुर्जे पर ही जमाये-जमाये दायें हाथ से इस तरह चुप रहने का इशारा किया - मानो किसी बहुत दिमाग के काम में उलझे हुए आदमी को अचानक किसी ने सम्बोधित किया हो। उसकी इस हरकत पर और सबके साथ विजय इत्यादि भी बिना मुस्कराये नहीं रह सके। जबकि विकास ताव खा गया। उसने झपटकर पुर्जा धनुषटंकार के हाथ से छीनना चाहा, मगर धनुषटंकार उछलकर दूर जा बैठा। नहर के किनारे पर खड़े होकर उसने किसी गूंगे की तरह इशारा करके विकास से पुर्जे को समझने के लिए इजाजत चाही। विकास भी अन्दर-ही-अन्दर मुस्करा उठा और बोला- 'चल एक मिनट और दिया। ''

धनुषटंकार झपटकर उसके गले में झूल गया 'और उसके गाल पर एक चुम्बन अंकित कर दिया। उसकी इस हरकत को देखकर धनुषटंकार की हरकतों को न जानने वाले तरद्दुद में रह गये। वह विजय के कंधे पर बैठा, वही पोज बनाया और कागज पर लिखे उस लफ्ज को फिर गौर से देखने लगा। आधे मिनट बाद ही उसने बायां हाथ जेब में डाला, पव्वा निकाला और ढक्कन खोलकर मुंह से सटा लिया। ढक्कन बन्द करके पव्वा जेब में रखने के बाद वह फिर कागज में डूब गया। ठीक आधे मिनट बाद उसने गर्दन उठाकर विकास की तरफ देखा और फटाक से आंख मारकर मुस्कराते हुए पूछा- ''आया समझ में?''

उस वक्त तक धनुषटंकार ने डायरी और पैन निकाला। डायरी के एक कोरे कागज पर कुछ लिखने लगा। विजय ने गर्दन घुमाकर देखने की कोशिश की तो लिखा हुआ छुपाकर धनुषटंकार ने विजय के सामने हाथ जोड़कर इशारे से न देखने की प्रार्थना की। विजय ने मुस्कराते हुए गरदन सीधी कर ली। धनुपटंकार जो लिख रहा था-वह पूरा करके? उसने गुरुवचनसिह के हाथ में पकड़ा दिया।

गुरुवचनसिंह ने डायरी में लिखे लफ्ज को पढ़ा और लगभग उछल ही पड़ा। बुरी तरह चौंककर उसने विजय के कन्धे पर बैठे धनुषटंकार की तरफ देखा। बड़े विचित्र तरीके से धनुषटंकार मुस्कराया और दायें हाथ को माथे के पास ले जाकर बार-बार गर्दन झुकाता हुआ सलाम करने लगा। मुस्कराने के सबब से उसके होठ बड़े अजीब-से हो गये। उस बन्दर की हरकतें देखकर गुरुवचनसिंह हैरत में रह गये। वे तो कभी ख्वाब में भी नहीं सोच सकते थे कि एक बंदर में इतना दिमाग हो सकता है। वह न केवल हरकतें बड़ी समझदारों की कर रहा था-बल्कि उस पैगाम को सही सही ढंग से समझ गया था। गुरुवचनसिंह के मुंह से बरबस ही निकला-' 'इस बन्दर ने तो आदमियों को भी मात कर दिया।''

धनुषटंकार को भला इतनी कहां बर्दाश्त थी।

उस वक्त गुरुवचनसिंह की खोपड़ी घूम गई, जब धनुषटंकार का एक जोरदार तमाचा उसके गाल पर पड़ा। एक सायत के लिए वे अजीब-से गुस्से और तरद्दुद में रह गए। अपने गुरु के गाल पर पडती चपत देखकर गौरवसिंह को ताव आ गया और वह उछलकर खड़ा हो गया - मगर तभी विजय बोला--''नहीं पुत्तर, गुस्सा नहीं। असल में ये महाशय खुद को बन्दर कहलवाना पसन्द नहीं करते।'' इस तरह पैदा होने वाले इस नये हालात पर बड़ी मुश्किल से काबू पाया। जब सारी बातें गुरुवचनसिंह को ढंग से समझाई गईं तो गुरुवचनसिंह मुस्करा उठे और बोले-''वाकई धनुषटंकार को इस लफ्ज से नफरत करना चाहिए।''

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