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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

रोशनदान के जरिए धीरे से कमरे के फर्श पर उतरा और दबे-पांव पलंग की तरफ बढ़ा। उसकी आंखें उसी वक्त खुलीं, जब मैंने अपनी तलवार उसके सीने से सटाकर नोंक का दबाव डाला। आंख खुलते ही वह बुरी तरह हड़बड़ा उठा और खड़ा होने का प्रयास करता हुआ वह अभी कुछ बोलना ही चाहता था कि मैं गुर्रा उठा-''अगर एक भी लफ्ज अपने मुंह से निकाला दारोगा, तो समझ ले कि तेरे मुंह से निकलने वाला वह आखिरी लफ्ज होगा।''

दारोगा को काटो तो खून नहीं। चेहरा पीला पड़ गया। हक्का-बक्का-सा वह आंखें फाड़े मेरी तरफ देख रहा था। मैंने साफ महसूस किया-उसके सारे बदन में सिहरन-सी दौड़ गई थी--पीले चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी। आंखों में खौफ! अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरकर वह खुद को संभालता हुआ धीरे से बोला-''कौन हो तुम?''

जवाब में मैंने अपने बाएं हाथ से चेहरे का नकाब उतार दिया। मुझे देखते ही उसकी हालत और भी ज्यादा खराब हो गई-धीरे से बोला- 'बंसीलाल!'

''हां, दारोगा साहब!'' मैंने दांत भींचकर कहा-''मैं ही हूं - और अब चुपचाप मेरी बातें कान खोलकर सुन। मैं कंचन और कमला की हत्या तक तो तेरी बदकारियां सहता रहा, लेकिन अब तुम उमादत्त की हत्या की साजिश कर रहे हो। वह मुझसे बिलकुल सहन नहीं होगी।'

''तुमसे किसने कहा कि मैं उमादत्त की हत्या करने के वारे में सोच रहा हूं?'' मेघराज ने कहा-''यह गलत है।'

''झूठ मत बोल कपटी!'' मुझे गुस्सा चढ़ गया-''मुझसे तेरी कोई हरामजदगी छुपी हुई नहीं है। झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं होगा। मुझे पता है कि कल यहां वह कुत्ता दलीपसिंह आया था। उसने और तूने यह निश्वय किया कि उमादत्त की हत्या कर दी जाए। ताकि मेरे पास जो तुम्हारी काली करतूतों के सुबूत हैं, वे बेकार हो जाए। मुझे ये भी मालूम है कि वह तुझसे बात करने आज रात भी आने वाला है। लेकिन कान खोलकर सुन ले, अगर तूने उमादत्त की तरफ आंख उठाकर भी देखा तो..।''

''तो तुम क्या कर लोगे?'' इस वक्त तक दारोगा खुद को काफी संभाल चुका था।

''करने को तो मैं बहुत कुछ कर सकता हूं।'' मैं इस तरह गुर्राया कि मेरी आवाज इस कमरे से बाहर न जा सके-''इस वक्त तू मेरी तलवार के सामने निहत्था और मजबूर है। अगर चाहूं तो इसी वक्त तेरा सिर कलम कर सकता हूं - मगर क्या करूं। मैं तेरी तरह अधर्मी नहीं। ऐयार को मारना पाप होता है और मुकद्दर से तू ऐयार है, इसीलिए तुझे अपने हाथ से मारकर मैं पाप तो नहीं कमा सकता लेकिन हां - अगर तू इस मुलाकात के बाद भी नहीं माना तो मैं वे सारे सुबूत उमादत्त के सामने पेश कर दूंगा। तेरे और दलीप के हाथ की लिखी वे चिट्ठियां, वे कपड़े जो तूने कंचन को धोखा देते वक्त पहने थे और दलीपसिंह का वह खानदानी कलमदान, जिसमें तेरी तस्वीरें हैं।'' कहने के साथ ही मैंने अपने बटुए से कलमदान निकालकर उसकी आंखों के सामने कर दिया, बोला- ''तेरी सारी काली करतूतों का पर्दाफाश अकेला ये कलमदान कर सकता है। मुझे केवल इतना ही करना होगा कि ये कलमदान उमादत्त को सौंप दूंगा। फिर तू चमनगढ़ का राजा तो राजा-मेघराज नाम का आदमी ही नहीं रहेगा।''     

''तुम शायद अपने बचपन के उस पाप को भूल गए हो।''

दारोगा का लहजा भी इस बार कठोर था।

''याद है दारोगा-सब कुछ अच्छी तरह से याद है।' इस वक्त मैं विना घबराए बोला-''इसी वजह से तो आज तक चुप था, लेकिन आज मैं सारी बात सोचकर ही यहां आया हूं। मैं अच्छी तरह से जानता हूं उस भेद के खुलने के बाद में जिन्दा नहीं रह सकूंगा-लेकिन मुझे इस बात की फिक्र नहीं है। अगर उस भेद को खोलना चाहो तो बेशक खोल देना। दलीपसिंह को तो तूने बता ही दिया है। मगर अपना जीवन खत्म करके मैं तुझे बर्बाद कर दूंगा। ये मत समझ कि तेरी धमकी में आकर मैं तेरे हाथों उमादत्त को मर जाने दूंगा।''

एक बार को तो मेरी यह बात सुनकर दारोगा की सि्ट्टी-पिट्टी गुम हो गई, मगर फिर वह संभलकर बोला- ''तुम पागल हो गए हो, बंसीलाल!''

''हां-पागल हो गया हूं मैं।'' मैं गुस्से से गुर्रा उठा-''अपनी जान देकर भी मैं उमादत्त का नमकहलाल रहूंगा।''

''तुम गलत तरीके से सोच रहे हो बंसीलाल।'' दारोगा बोला-''तुम्हारे भेद खोलने से मेरा इतना बड़ा नुकसान नहीं होगा जितना तुम्हारा। मेरा क्या है - तुम तो जानते ही हो कि दलीपसिंह से मेरी दोस्ती है। अगर तुम मेरा भेद खोलोगे तो मैं दलीपसिंह की शरण ले लूंगा, लेकिन अगर मैंने तुम्हारा भेद खोल दिया तो तुम इस दुनिया में जी नहीं सकोगे। मुझसे टक्कर लेने में मुझसे ज्यादा तुम्हें नुकसान है। अच्छा है कि तुम भी मुझसे मिलकर रहो।''

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