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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

पहला बयान


बाहर से मेघराज का नाम और आवाज सुनकर राजा दलीपसिंह बुरी तरह बौखला गए। एक सायत के लिए तो उनका दिमाग सन्नाटे की हालत में आ गया। दिमाग में स्थित सोचने-समझने की नसों ने जैसे अचानक हड़ताल कर दी। उनके पैर बुरी तरह कांप गए थे।

''जल्दी से दरवाजा खोलो महाराज।'' बाहर से बुरी तरह से दरवाजा खटखटाने के साथ ही मेघराज की आवाज आई।

दलीपसिंह के जिस्म में हरकत हुई और उन्होंने आगे बढ़कर दरवाजा खोल दिया। सामने सिपहसालार और कई सैनिकों के साथ मेघराज खड़ा था। वह एकदम आंधी-तूफान की तरह कमरे में दाखिल हो गया और खाली कमरे को देखकर बोला-

''कहां गया वह बदकार?''

''कौन?'' अपने चेहरे पर हवाइयां लिये दलीपसिंह मेघराज की तरफ घूमे।

चेहरे पर संशय था।

''वही बदकार शेरसिंह।'' मेघराज गुस्से की हालत में तेजी से बोला- ''जल्दी बताइए महाराज, वह कमरे में से कहां गायब हो गया? महाराज सुरेंद्रसिंहजी कहां गए? यह वक्त बेकार गंवाने का नहीं है, जल्दी से बताइए वे कहां गए?''

''क्या वह शेरसिंह था?'' कहते-कहते दलीपसिंह का हलक सूख गया।

''आप बेकार की बातों में वक्त जाया कर रहो हैं महराज! ''

मेघराज झुंझला-सा गया - ''बाकी बातें बाद में होंगी, पहले आप जल्दी से मेरे सवाल का जवाब दें। मेरा भेस बनाए शेरसिंह और महाराज सुरेंद्रसिंह इस कमरे से कहां गए? ''

''हमने उन्हें इस रास्ते से निकाल दिया है।'' दलीपसिंह एकदम पलंग के पाए की तरफ बढ़कर बोले - उन्होंने पलंग के पाए को उसी खास तरीके से मरोड़ा- जिससे पलंग के नीचे के फर्श में रास्ता बन जाता था। नीचे उतरने के लिए अब वहां पहले की तरह ही सीढ़ियां नजर आ रही थीं।

''जल्दी से आइए। मेघराज चीखा और रास्ते की तरफ बढ़ा।''

सवसे पहले मेघराज, फिर दलीपसिंह, उनके पीछे सिपहसालार और अन्य सैनिक उस रास्ते से नीचे उतरे। अगले कुछ ही सायत बाद वे सब नीचे पहुंच चुके थे। परंतु उनमें से किसी को भी अंधेरे के अलावा कुछ नहीं दीख रहा था। बहुत करीब होने के वावजूद वे एक-दूसरे की सूरत तक नहीं देख सकते थे। चारों ओर गहरा अंधेरा था। इस अंधेरे को दारोगा ने अपने बटुए से चकमक व मोमवत्ती निकालकर दूर किया। रोशनी होते ही उन्होंने देखा कि वे एक सुरंग में खड़े हैं। सब हक्के-बक्के-से दारोगा का चेहरा तक रहे थे। जलती हुई मोमबत्ती की रोशनी में वे सब दारोगा के पीछे सुरंग में आगे बढ़ लिए। वे एक तरह से सुरंग में भाग रहे थे, इसी सबब से मोमवत्ती की लौ फड़फड़ा रही थी।

कुछ ही दूर आगे जाकर उन्हें सुरंग का एक मोड़ चमकने लगा। उनके भागने के सबब से सुरंग में गूंजती उनके कदमों की आवाज वड़ी अजीब-सी लग रही थी। इस आवाज को बींधती हुई जव एक दूसरी आवाज उनके कानों तक पहुंची तो खुद ही सबके कदम रुक गए। सभी ठिठककर उस आवाज को ध्यान से सुनने लगे। अब कदमों की आवाज की जगह वह आवाज सभी अपने कानों से साफ सुन रहे थे। वह आवाज किसी की चीख और कराहों की थी। आवाज सुरंग के मोड़ के दूसरी तरफ से आ रही थी। जैसे कोई असहनीय दर्द के सबब से बुरी तरह कराह रहा हो। सबके दिल धक्-धक् करने लगे। कान खड़े हो गए। दिमाग चकराने लगे। सुरंग में गूंजती यह कराह बड़ी अजीब महसूस हो रही थी। कई सायत तक तो वे जड़वत्-से खड़े उस गूंजती हुई आवाज को सुनते रहे।

एकाएक इस बातावरण को दिलीपसिंह ने यह कहकर तोड़ा - ''यह तो दादा जी की आवाज लगती है''

''चलिए'' मेघराज ने कहा और तेजी से आगे गया। एक बार फिर सुरंग पदचापों की आवाज से गूंज उठी। जिस वक्त वे मोड़ पर मुड़े तो उन्होंने देखा-सुरंग की जमीन पर पड़े हुए महाराज सुरेंद्रसिंह कराह रहे थे। उनके आसपास की जमीन खून से सनी पड़ी थी। सुरेन्द्रसिंह के दोनों हाथ कटे हुए उन्हीं के पास पड़े थे। उन्हें जिस्म से जुदा कर दिया गया था। दोनों कंधों से बुरी तरह खून बह रहा था असहनीय पीड़ा के सबब में सुरेंद्रसिंह बुरी तरह मचल रहे थे। उनके मुंह से कराह निकल रही थी - लेकिन आंखें बंद थीं।

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