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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''लेकिन...!'' विक्रमसिंह थोड़ी-सी हिचकिचाहट के साथ बोला- ''अगर गुस्ताखी न हो तो आपसे एक सवाल करना चाहता हूं।''

''बोलो!'' दारोगा ने कहा।

''कल तक बंसीलाल हमारा आदमी था।'' विक्रमसिंह ने कहा- ''फिर आज अचानक ही वह हमारा दुश्मन किस तरह से बन गया?''

''पूरी बात तो इस वक्त मैं नहीं बता सकता।'' दारोगा ने कहा- ''लेकिन इतना समझ लो कि वह हमसे गद्दारी कर गया और उसके पास कई ऐसे सुबूत हैं कि वह उमादत्त से मिलकर हमारे भेद खोल सकता है।''

कहने का मतलब ये है कि यहां पर दारोगा ने विक्रमसिंह को हकीकत न बताई और टाल दिया। विक्रमसिंह वहां से चला गया।

मैं रोशनदान पर लटका हुआ बराबर कमरे का हाल देख रहा था। विक्रमसिंह के चले जाने के बाद दारोगा अकेला रह गया और कमरे में चक्कर काटने लगा। उसके चेहरे पर बेचैनी के भाव साफ देखे जा सकते थे। कमर पर हाथ बांधे वह कमरे में टहल रहा था। आप विक्रमसिंह और दारोगा की बातचीत में पढ़ ही चुके हैं कि मेरे लिए दारोगा ने कितने कड़े कदम उठा रखे थे - मगर फिर भी मैं उसके कमरे के रोशनदान पर लटका उसके कमरे का हाल बखूबी देख रहा था।

मेघराज बेचैन, परेशान और उतावला-सा नजर आ रहा था। मैं उसी तरह रोशनदान पर लटका हुआ कमरे का हाल देख रहा था। काफी देर तक कोई नई बात नहीं हुई, हां-दारोगा की बेचैनी उसी तरह बनी रही। कमरे में एक तरफ उसका बिस्तर लगा पड़ा था, जिस पर एक भी सिलवट नहीं थी। साफ जाहिर था कि दारोगा अपनी परेशानियों के सबब से एक सायत के लिए भी बिस्तर पर लेटा या बैठा नहीं है।

बहुत देर बाद एक प्यादा कमरे में आया और दारोगा को सलाम बजाने के बाद बोला- ''दलीप नगर से महाराज दलीपसिंह आए हैं।''

चहलकदमी करता हुआ दारोगा ठिठक गया, बोला- ''खुद दलीपसिंह?''

और फिर वह तेजी के साथ कमरे के दरवाजे की तरफ बढ़ गया। जव वह वापस लौटा तो उसके साथ दलीपसिंह और शक्लसूरत से ऐयार नजर आने वाला एक तीसरा आदमी था। उनकी आगवानी करके कमरे में लाता हुआ दारोगा कह रहा था- ''आपने स्वयं क्यों कष्ट किया - मुझे तलब कर लिया होता!''

''बात ही कुछ ऐसी हो गई है, मेघराज।'' दलीपसिंह उदास-से लहजे में बोले- ''खतरा ज्यादा बढ़ गया है।''

''क्यों-क्या हो गया?'' मेघराज ने चौंककर पूछा।

''वह सब तो हम तुम्हें बता ही देंगे।'' दलीपसिंह बोला- ''पहले तो ये बताओ बंसीलाल पकड़ा गया या नहीं?''

''आप आराम से बैठिए।'' मेघराज ने बिस्तर की तरफ इशारा करके कहा- ''मैं आपको बताता हूं।''

इस तरह से ये तीनों बिस्तर पर बैठ गए। बैठते ही दलीपसिंह ने पूछा- ''यहां के क्या हाल हैं?''

''हाल तो बहुत खस्ता हैं महाराज!'' मेघराज बोला- ''आपको हम अपना सारा हाल कल रात के उसी वक्त से बताते हैं, जब से हम दोनों जुदा हुए।''

अभी मेघराज यही कह पाया था कि दलीपसिंह ने अपने साथ आए आदमी से कहा- ''बलवंतसिंह, तुम जरा बाहर जाकर चौकसी करो।''

''जो हुक्म महाराज।'' कहने के साथ बलवंतसिंह उठा और बाहर गया। उसके बाहर जाने के बाद दलीपसिंह बोले- ''हमने उसे बाहर भेज दिया है, क्योंकि हम नहीं चाहते कि जो कुछ हमने कल किया है, उसके बारे में कोई तीसरा जान सके। हो सकता था कि उसके सामने तुम्हारे मुंह से भेद की कोई ऐसी बात निकल जाती जो उसके जानने लायक न हो। किसी भी तीसरे आदमी को हमारी कल की कार्यवाही का पता नहीं लगना चाहिए।''

''क्या ये आपका ऐयार बलवंत है?'

''हां!''

''लेकिन आपने तो कहा था कि आप मेरी मदद के लिए पिशाचनाथ को भेजेंगे?'' मेघराज बोला- ''फिर बलवंतसिंह!''

''कल रात से ही पिशाचनाथ को ढुंढ़वा रहे हैं, लेकिन उसका कहीं पता नहीं लगता। ना मालूम अचानक वह कहां गायब हो गया है? हमसे कुछ बताकर भी तो नहीं गया है। खैर.. बलवंतसिंह भी किसी तरह ऐयारी के मामले में पिशाचनाथ से कुछ कम नहीं है। तुम्हारी मदद के लिए फिलहाल हम इसी को लाए हैं। खैर.. अब तुम वह हाल बयान करो, जो अभी-अभी बलवंत के सामने कहने जा रहे थे।''

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