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परशुराम की प्रतीक्षा

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1969
आईएसबीएन :81-85341-13-3

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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...

तब भी आता हूँ मैं

टूट गये युग के दरवाजे?
बन्द हो गयी क्या भविष्य की राह?
तब भी आता हूँ मैं

बल रहते ऐसी निर्बलता,
स्वर रहते स्वरवालों के शब्दों का अर्थाभाव !
दोपहरी में ऐसा तिमिर नहीं देखा था।

खिसक गयी श्रृंखला सितारों की? प्रकाश के
पुत्र वहाँ अब नहीं, जहाँ पहले उगते थे?

मही छूट सहसा विशवम्भर के प्रबन्ध से,
सचमुच ही, पड़ गयी मनुष्यों के हाथों में?

धुआँ, धुआँ, सब ओर, चतुर्दिक घुटन भरी है;
आँख मूँदने पर भी तो अब दीप्ति न आती।
तिमिर-व्यूह है ध्यान, गीत का मन काला है,
धूम-ध्वान्त फूटता कला की रेखाओं से।

तो यह सब क्या, इसी भाँति, चलता जायेगा?
यह विषपूर्ण प्रवाह? कुटिल यह घुटन प्राण की?
और वायु क्या इसी भाँति भरती जायेगी
वणिक-तुला पर चढ़ी बुद्धि के फूत्कारों से?

ना, गाँधी सेठों का चौकीदार नहीं है,
न तो लौहमय छत्र जिसे तुम ओढ़ बचा लो
अपना संचित कोष मार्क्स की बौछारों से।

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