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परशुराम की प्रतीक्षा

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1969
आईएसबीएन :81-85341-13-3

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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...

इतिहास का न्याय

दूर भविष्यत् के पट पर जो वाक्य लिखे हैं,
पढ़ लेना, भवितव्य अगर आगे जीवित रहने दे।
 
गाँधी, बुद्ध, अशोक नाम हैं बड़े दिव्य स्वप्नों के।
भारत स्वयं मनुष्य-जाति की बहुत बड़ी कविता है।

कह लेना यह कथा अगर अपनी विषाक्त डाढ़ों से
काल छोड़ दे तुझे और भवितव्य अगर कहने दे।
दर्शन की लहरें मत अधिक उछाल,
विचारों के विवर्त में पड़ा
आदमी बहुत विवश होता है।
मगरमच्छ नोचते देह का मांस और वह
छन्दों में सोचता, ऋचाओं-श्लोकों में रोता है।

दूर क्षितिज के सपने में मत भूल,
देख उस महासत्य को,
जिसकी आग प्रचण्ड, दाह दारुण, प्रत्यक्ष विकट है।
गाँधी, बुद्ध, अशोक विचारों से अब नहीं बचेंगे।
उठा खड्ग, यह और किसी पर नहीं,
स्वयं गाँधी, गंगा गौतम पर ही संकट है।

पशुता के दुर्मद झकोर में हाथ उठा कर
क्या करना आह्वान शील का, सहिष्णुता का, स्नेह का?
आत्मा की तलवार सर्वथा वहाँ व्यर्थ है,
जहाँ अखाड़ा खुला हुआ हो देह का।

द्विधा व्यर्थ, आगे का क्या इतिहास कहेगा।
द्विधा व्यर्थ, युग के चिन्तन का कहाँ ध्यान है।
दर्शन करता सदा मूक अनुसरण क्रिया का।
और जिसे हम कहते हैं इतिहास,
बड़ा ही बुद्धिमान है।

उच्च मनुजता को ठुकराने से वह डरता है।
किन्तु, उच्च गुण के कारण जो रण में हार गये हैं,
उन पराजितों की किस्मत पर रोता है इतिहास,
पर, अपाहिजों का कलंक वह क्षमा नहीं करता है।

* * *

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