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आरोग्य कुंजी

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :45
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1967
आईएसबीएन :1234567890

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गाँधी जी द्वारा स्वास्थ्य पर लिखे गये लेख

१०. ब्रह्मचर्य


ब्रह्मचयका मूल अर्थ है ब्रह्मकी प्राप्तिके लिए चर्या। संयमके बिना ब्रह्म मिल ही नहीं सकता। संयममें सर्वोपरि स्थान इन्द्रियनिग्रहका हें। ब्रह्मचर्यका सामान्य अर्थ स्त्रीसंगका त्याग और वीर्य-संग्रहकी साधना समझा जाता है। सब इन्द्रियोंका संयम करनेवालेके लिए वीर्य-संग्रह सहज और स्वाभाविक क्रिया हो जाती है। स्वाभाविक रीतिसे किया हुआ वीर्य-संग्रह ही इच्छित फल देता है। ऐसा ब्रह्मचारी क्रोधादिसे मुक्त होता हैं। सामान्यतः जो लोग ब्रह्मचारी कहे जाते हैं, वे क्रोधी और अहंकारी देखनेमे आते हैं, मानो उन्होंने क्रोध और अभिमान करनेका ठेका ही ले लिया हे।

यह भी देखनेमें आता है कि जो ब्रह्मचर्य-पालनके सामान्य नियमोंकी अवगणना करके वीर्य-संग्रह करनेकी आशा रखते हैं, उन्हें निराश होना पड़ता है; और कुछ तो दीवाने-जैसै बन जातें है। दूसरे निस्तेज देखनेमें गाते हैं। वे वीर्य-संग्रह नही कर सकते और केवल स्त्रीसंग न करनेमें सफल हो जाने पर अपने आपको कृतार्थ समझते हैं। स्त्रीसंग न करनेसे ही कोई ब्रह्मचारी नहीं बन जाता। जब तक स्रीसंगमे रस रहता है; तब तक ब्रह्मचर्यकी प्राप्ति हुई नहीं कही जा सकती। जो स्त्री या पुरुष इस रसको जला सकता है, उसीके बारेमें कहा जा सकता है कि उसने अपनी जननेन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर ली है। उसकी वीर्यरक्षा इस ब्रह्मचर्यका सीधा फल है, परन्तु वही सब-कुछ नहीं है। सच्चे ब्रह्मचारीकी वाणीमें, विचारमें और आचारमें एक अनोखा प्रभाव देखनेमें आता है।

ऐसा ब्रह्मचर्य स्त्रियों के साथ पवित्र संबन्ध रखने से या उनके आवश्यक स्पर्शसे भंग नहीं होगा। ऐसे ब्रह्मचारीके लिए स्त्री और पुरुषका भेद मिट-सा जाता है। इस वाक्यका कोई अनर्थ न करे। इसका उपयोग स्वेच्छाचारका पोषण करनेके लिए कभी नहीं होना चाहिये। जिसकी विषयासक्ति जलकर खाक हो गई है, उसके मनमें स्त्रीपुरुषका भेद मिट जाता है, मिट जाना चाहिये। उसकी सौंदर्यकी कल्पना भी दूसरा ही रूप ले लेती है। वह बाहरके आकारको देखता ही नहीं। जिसका आचार सुन्दर है, वही स्त्री या पुरुष सुन्दर है। इसलिए सुन्दर स्त्रीको देखकर वह विह्वल नहीं बन जायेगा। उसकी जननेन्द्रिय भी रूस रूप ले लेगी, अर्थात् वह सदाके लिए विकार-रहित बन जायेगी। ऐसा पुरुष वीर्यर्हान होकर नपुंसक नहीं बनेगा, मगर उसके वीर्यका परिवर्तन होनेके कारण वह नपुंसक-सा लगेगा। सुना है कि नपुंसकके रस जलते नहीं। मुझे पत्र लिखनेवालोंमें से कईने इस बातकी साक्षी दी है कि वे चाहते तो हैं कि उनकी जननेन्द्रिय जाग्रत हो, मगर वह होती नहीं। फिर भी वीर्य-स्खलन हो जता है। उनमें विषय-रस तो रहता ही है। इसलिए वे अन्दर ही अन्दर जला करते है। ऐसा पुरुष क्षीणवीर्य होकर नपुंसक हो गया है, या नपुंसक होनेकी तैयारी कर रहा है। यह दयनीय स्थिति है। परन्तु जो रस मात्रके भस्म हो जानेंसे ऊर्घ्वरता हो गया है, उसका 'नपुंसकत्व' बिलकुल अलग ही किस्मका होता है। वह सबके लिए इष्ट है। ऐसे ब्रह्मचारी बिरले ही देखनेमें आते हैं। मैंने ब्रह्मचर्य-पालनका व्रत १९0६ में लिया था, अर्थात् मेरा इस दिशामें छत्तीस वर्षका प्रयत्न है। परन्तु मैं ब्रह्मचर्यकी अपनी व्याख्याको पूर्णतया पहुंच नहीं सका हूँ। तो भी मेरी दृष्टिसे इस दिशामें मेरी अच्छी प्रगति हुई और ईश्वरकी कृपा होगी तो पूर्ण सफलता भी शायद यह देह छूटनेसे पहले मिल जाय। अपने प्रयत्नमें मैं कभी ढीला नहीं पड़ा। मैं इतना जानता हूँ कि ब्रह्यचर्यकी आवश्यकताके बारेमें मेरे विचार ज्यादा दृढ़ बने हैं। मेरे कुछ प्रयोग समाजके सामने रखनेकी स्थितिको प्राप्त नहीं हुए हैं। मुझे सन्तोष हो इस हद तक अगर वे सफल हो जायेंगे, तो मैं उन्हें समाजके सामने रखनेकी आशा रखता हूँ क्योंकि मैं मानता हूँ उनकी सफलतासे पूर्ण ब्रह्यचर्य शायद अपेक्षाकृत सरल बन जायगा।

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