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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769
आईएसबीएन :1234567890

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिमात्रकः।
सम्यग्योगश्च विज्ञेयो रोगारोग्यैककारणम्।।१९।।


रोग एवं आरोग्य के कारण-काल, अर्थ तथा कर्म के हीनयोग, मिथ्यायोग एवं अतियोग रोग या रोगों की उत्पत्ति में एक मात्र कारण होते हैं तथा काल, अर्थ और कर्म का सम्यक् योग आरोग्य (स्वस्थ रहने) का एक मात्र कारण होता है।।१९।।

वक्तव्य—काल-आयुर्वेदीय दृष्टि से यह तीन प्रकार का होता है, इसी को मौसम या मौसिम भी कहते हैं। इसका विभाजन इस प्रकार किया गया है—१. शीतकाल, २. उष्णकाल तथा ३. वर्षाकाल।

इन कालों के समूह को वर्ष, वत्सर तथा संवत्सर कहते हैं। यहाँ इन्हीं तीन कालों से सम्बन्ध है। इन कालों में क्रमश: शीत, उष्ण, वर्षा का अधिक होना 'अतियोग' है, थोड़ा होना 'हीनयोग' है और अपनी सीमा के विपरीत होना 'मिथ्यायोग' है।

अर्थ-श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जिन-जिन विषयों का ग्रहण किया जाता है, उन्हीं को इस प्रकरण में 'अर्थ' कहा गया है। इन अर्थों का अपनी-अपनी इन्द्रियों के साथ अधिक संयोग होना उन-उनका अतियोग' है, थोड़ा संयोग होना 'हीनयोग' है और अनिष्टकारक संयोग होने को 'मिथ्यायोग' कहते हैं।

कर्म—वाणी, मन तथा शरीर की प्रवृत्ति या चेष्टा का नाम 'कर्म' है। न्यायशास्त्र के अनुसार 'संयोग-भिन्नत्वे सति संयोगाऽसमवायिकारणत्वं कर्मत्वम्'। (तर्कसंग्रह) यह कर्मत्व भी हमारा उपकारक है। उक्त तीनों के या दो के अथवा एक के कर्म की अधिकता का नाम 'अतियोग' है, कर्म की कमी को 'हीनयोग' तथा अहितकर या हानिकर कर्म के योग को 'मिथ्यायोग' कहते हैं।

इस प्रकार काल, अर्थ तथा कर्म के अतियोग, हीनयोग, मिथ्यायोग किसी-न-किसी रोग को उत्पन्न करने में कारण होता है। उक्त अतियोग आदि शारीरिक एवं मानसिक रोगों की उत्पत्ति में कारण होते ही हैं। शीत, उष्ण एवं वर्षा का अतियोग, हीनयोग, मिथ्यायोग प्राकृतिक रूप से भी देखा जाता है और मानव द्वारा भी किया जाता है किन्तु फल दोनों का रोगोत्पत्ति में कारण होता ही है।

सम्यग्योग—काल, अर्थ एवं कर्म का अतियोग, हीनयोग तथा मिथ्यायोग के अतिरिक्त जो समुचित योग होता है, उसे 'सम्यग्योग' कहते हैं। यह ‘आरोग्य' (स्वास्थ्य-वृद्धि) का कारण होता है। इसका विशेष विवरण अ.हृ.सू. के 'रोगानुत्पादनीय' नामक ४थे अध्याय में देखें। यही विषय अष्टांगसंग्रह के पाँचवें अध्याय में देखें। प्रस्तुत पद्य अष्टांगसंग्रह १।४२ में द्रष्टव्य है।

इस विषय को चरक की दृष्टि से देखें—च.सू. १११३७-४१ तक। इन कर्मों को महर्षि चरक ने 'प्रज्ञापराध' संज्ञा दी है, अन्यथा बुद्धि-प्रधान मानव इन कर्मों की ओर कैसे प्रवृत्त हो सकता है?

रोगस्तु दोषवैषम्यं, दोषसाम्यमरोगता।

रोग-आरोग्य में भेद—वात, पित्त, कफ इन तीन दोषों की विषमता या विषम अवस्था का नाम 'रोग' है। अर्थात् दोषों के विषम (किसी का बढ़ जाना और किसी का घट जाना) हो जाने से किसी-न-किसी प्रकार का रोग हो जाता है और जब उक्त दोष समान स्थिति में रहते हैं तब आरोग्य की प्राप्ति होती है अर्थात् मानव 'सुखी' रहता है।

वक्तव्य–दोष या दोषों की विषमता अर्थात् तीनों में से एक या दो दोषों का बढ़ या घट जाना, इसी की विषमता को सम का विपरीत भाव कहा जाता है। यहाँ दोष शब्द रोग का अन्तरंग (भीतरी) कारण मात्र है। दोषों का सम होना ही 'आरोग्य' है। आगे जो दो श्लोक अ.हृ.सू. में क्रम सं० २०-२१ पर हैं, ये ही दो श्लोक अ.सं.सू. ११४३-४४ में है।

निजागन्तुविभागेन तत्र रोगा द्विधा स्मृताः॥२०॥

रोगों के दो भेद—सामान्य रूप से रोग दो प्रकार के होते हैं—१.निज (वात आदि भीतरी दोषों की विषमता से होने वाले) तथा २. आगन्तुज (अभिघात आदि बाहरी कारणों से होने वाले) ॥२०॥

वक्तव्य-महर्षि चरक के शब्दों में रोगों के दो भेद इस प्रकार कहे गये हैं—

तत्र निजः शारीर-दोषसमुत्थः,
आगन्तुर्भूतविषवाय्व्यग्निसम्प्रहारादिसमुत्थः'। (च.सू. ११४४५)

अर्थात् शारीरिक वात आदि दोषों से उत्पन्न रोग 'निज' कहा जाता है और 'आगन्तुज' रोग अभिघात, भूतावेश, सर्प आदि के दंश, शीत, उष्ण, आग, तेजाब आदि आग्नेय द्रव्यों के लग जाने से या गदा, लाठी, हाकी, तलवार आदि के लग जाने से होता है।

तेषां कायमनोभेदादधिष्ठानमपि द्विधा।

दो प्रकार के रोगाधिष्ठान-रोगों के अधिष्ठान (आश्रयस्थान) भी दो होते हैं—१. काय (शरीर) तथा २.मन।

वक्तव्य—प्रथम भेद से होने वाले रोगों का अधिष्ठान 'काय' है। वे रोग ज्वर, रक्तपित्त, कास, श्वास आदि हैं। दूसरे भेद से कहे जाने वाले रोगों का अधिष्ठान है ‘मन'। इससे सम्बन्धित रोग हैं—मद, मूर्छा, संन्यास, ग्रहारिष्ट, भूतोन्माद, अपस्मार, राग, द्वेष आदि। अधिष्ठान—'अधितिष्ठन्ति रोगाः अस्मिन् इति अधिष्ठानम्'।

अर्थात् जिसमें रोग टिकते हैं। इस दृष्टि से भी कायिक एवं मानसिक दो प्रकार के रोग होते हैं। अब यहाँ शंका यह होती है कि शारीरिक रोगों की उत्पत्ति में प्रकुपित वात आदि दोष कारण कहे गये हैं, मानस रोगों की उत्पत्ति में किसे कारण माना जायेगा? उसी के समाधान के लिए कहा जा रहा है।

रजस्तमश्च मनसो द्वौ च दोषाबुदाहृतौ ॥२१॥

मानसिक दोषों का परिचय—मनस् के दो दोष हैं— १. रजस् (रजोगुण) और २. तमस् (तमोगुण)।

वक्तव्य—गुण तीन हैं— १. सत्त्व, २. रजस् और ३. तमस्। इसी विषय को महर्षि चरक ने 'मानसः पुनरुद्दिष्टो रजश्च तम एव च'। (च.सू. ११५७) भी स्वीकार किया है और मानस रोगों की चिकित्सा के लिए उन्होंने अगले (५८वें) पद्य में कहा है—मानस रोगों की ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, स्मृति तथा समाधि द्वारा चिकित्सा करें। इस विषय को आप 'नियतस्त्वनुबन्धो रजस्तमसोः परस्परं, न ह्यरजस्कं तमः प्रवर्तते'। (च.वि. ६९) अर्थात् काम आदि मानस रोगों तथा ज्वर आदि शरीर सम्बन्धी रोगों का कदाचित् परस्पर अनुबन्ध हो जाता है, परन्तु रजस् और तमस् का परस्पर अनुबन्ध होना निश्चित ही है, क्योंकि तमस् रजस् के बिना प्रवृत्त ही नहीं होता। ये दोनों कभी भी एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ते और सत्त्व गुण सर्वथा निर्विकार है। अतः वह (सत्त्वगुण) मानसिक आरोग्य को देने में कारण है।

अष्टांगसंग्रह में वाग्भट ने सत्त्व, रजस्, तमस् को 'महागुण' कहा है, अतः ये तीनों कारण रजस् तथा शुक्र रूप बीज में भी रहते हैं और कार्य (भ्रूण) में भी रहते हैं। अतएव इनके विषय में भगवान् धन्वन्तरि ने सुश्रुत से कहा है। देखें—सु.शा. १।३।

सत्त्व-रजस्-तमस् की निरुक्ति-
१. सत्त्वम्-अस्ति इति सत्, सतो भावः सत्त्वम् = अस्तित्व युक्त।
२. रजस्—रञ्जति अनेन इति रजः = रागः, आसक्तिः वा।
३. तमस्–ताम्यति अनेन इति तमः = विनाशकारक प्रधान गुण।

रजोगुण तथा तमोगुण का वर्णन करते हुए महर्षि पुनर्वसु ने कहा है—'सृष्टि के समय पुरुष अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आता है और पुनः प्रलयकाल में व्यक्त अवस्था से अव्यक्त अवस्था में चला जाता है। इस प्रकार बन्धन के कारण रजस् तथा तमस् गुणों से युक्त पुरुष संसार-चक्र के समान घूमता रहता है। (च.शा. ११६८)

दर्शनस्पर्शनप्रश्नः परीक्षेत च रोगिणम्।

रोगी की परीक्षा-दर्शन (देखना), स्पर्शन (हाथ आदि से छूकर देखना) तथा रोग सम्बन्धी विविध प्रश्न पूछकर रोगी (रोग से पीड़ित शरीर वाले) की परीक्षा करनी चाहिए।

वक्तव्य—सुश्रुत ने 'ततो 'प्रश्नेन चेति'। (सु.सू. १०।४) प्रारम्भ में रोगी देखने के सम्बन्ध में दूसरे किसी आचार्य का मत उद्धृत किया है कि 'दूत, लक्षण, शकुन तथा मंगल की अनुकूलता होने पर रोगी के घर जाना चाहिए'। इस मत की सामान्य दृष्टि से उपेक्षा करते हुए वे कहते हैं रोग जानने के छ: उपाय हैं- पाँच श्रोत्र आदि इन्द्रियों से और छठा प्रश्न से।

आचार्य पुनर्वसु 'रसना इन्द्रिय' के परीक्षा का विषय किसी को नहीं मानते। देखें—'रसं तु...रसाननुमिमीत'। (च.वि. ४७) अर्थात् रोगी के शरीर का रस यद्यपि रसना इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जा सकता है, परन्तु उसे अनुमान से ही जान लेना चाहिए। इसका प्रत्यक्ष उपाय से ग्रहण करना उचित नहीं है। अतएव रोगी से पूछकर उसके मुख का स्वाद कैसा है, जान ले; जूं यदि रोगी के शरीर से हट गयी हो तो रोगी के शरीर को नीरस समझ लें। प्रायः साफ-सुथरे परिवार के रोगियों में यह लक्षण नहीं पाया जाता, तथापि रोगियों के शरीरों में यह लक्षण दिखलायी देता है। मक्खियों के बार-बार शरीर पर बैठने से शरीर की मधुरता समझें। रक्तपित्तरोग में निकलने वाले रक्त की परीक्षा-क्या यह जीवरक्त तो नहीं निकल रहा है, इसके लिए उसे कुत्ते या कौए के सामने डाले, यदि प्राणी खा ले तो उसे जीवरक्त समझें, अन्यथा रक्तपित्त का दूषित रक्त समझें। इस प्रकार अन्य रसों का भी अनुमान कर लेना चाहिए। यह २२वाँ पद्य अ.सं. ११४५ में अविकल द्रष्टव्य है।

रोगी-परीक्षा के आधुनिक उपकरण

१. थर्मामीटर—यह स्पर्श द्वारा शरीर के तापमान को बतलाता है। इसमें वात-पित्त-कफ दोषों को बतलाने की क्षमता नहीं होती है।

२. स्टेथोस्कोप—यह श्रोत्रेन्द्रिय का प्रतिनिधि यन्त्र है। इसकी सहायता से कफ से होने वाली हृदय की आवाज सुनी जा सकती है। ब्लडप्रेशर जाँचने में भी चिकित्सक इसका उपयोग करते हैं।

३. एक्स-रे—यह चक्षुरिन्द्रिय का प्रतिनिधि यन्त्र है। त्वचा तथा मांस से ढकी हुई जिन अस्थियों या अस्थिभंग को हम अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते वहाँ यह यन्त्र सहायक होता है।

४. कार्डियोग्राम हृदय—परीक्षा के लिए इसका उपयोग होता है। जो हृदय क्या कह रहा है, उसे यह टेढ़ी-सीधी रेखाओं द्वारा निर्दिष्ट कर देता है, तदनुसार चिकित्सक उसकी चिकित्सा करते हैं।

५. अल्ट्रासाउण्ड—यह स्थान-विशेष को चित्रित कर देता है, तदनुसार चिकित्सा की जाती है।

६. लिटमस पेपर—इसकी सहायता से हम मूत्र की क्षारता तथा अम्लता का ज्ञान कर लेते हैं।

७. सेक्रोमीटर—इससे मधुमेहरोगी के मूत्र की शंकरा नापी जाती है, इस दृष्टि से यह रसनेन्द्रिय का प्रतिनिधि यन्त्र है। इस प्रकार के अन्य अनेक उपकरणों का इस क्षेत्र में आविष्कार होता जा रहा है, उन्हें भी देखें।

विशेष—नाड़ीज्ञान के लिए अभी तक जो यन्त्र अत्यधिक प्रयुक्त हुए हैं, वे अधिक श्रद्धेय नहीं हैं।

रोगं निदानप्राग्रूपलक्षणोपशयाप्तिभिः ॥२२॥

रोग की परीक्षा—निदान, पूर्वरूप, लक्षण, उपशय तथा सम्प्राप्ति नामक रोगज्ञान के उपायों से रोग की परीक्षा करनी चाहिए।। २२।।

वक्तव्य—यहाँ मात्र इनके नामों का उल्लेख कर दिया गया है। विशेष देखें-अ.हृ.नि.अ. १ में।

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