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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769
आईएसबीएन :1234567890

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


षष्ठोऽध्यायः

अथातोऽन्नस्वरूपविज्ञानीयमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।

अब हम द्रवद्रव्यों का वर्णन करने के बाद यहाँ से अन्नद्रव्यों के स्वरूप के विज्ञान के लिए प्रस्तुत अध्याय की व्याख्या करेंगे। इस विषय में आत्रेय आदि महर्षियों ने इस प्रकार कहा था। निरुक्ति—'अन्नम्'–'अद्यते' इति क्तः'। 'अन्नं भक्ते च भुक्ते स्यात्'। इति मेदिनी। अन्न का अर्थ है- भात या खाया हुआ पदार्थ, इसका अर्थ यदि हम 'भात' करते हैं तो विषय-निर्देश में संकीर्णता आ जाती है, क्योंकि 'भुक्त' शब्द का क्षेत्र विस्तृत है, वहीं यहाँ अपेक्षित है, अस्तु। 'अन्नस्वरूप'—आहार के उपयोग में आने वाले रोटी, चावल, दाल, सब्जी आदि। स्वरूप-उन-उन के नाम, रस, गुण, वीर्य, विपाक, प्रभाव, लक्षण आदि। यह अन्न (खाये जाने वाला पदार्थ ) स्थावर तथा जांगम भेद से दो प्रकार का होता है। यथा—गेहूँ, चावल आदि स्थावर और मांस आदि जांगम (जंगम प्राणियों से प्राप्त होने वाला )। स्थावर धान्य भी रबी और खरीफ भेद से दो प्रकार के होते हैं। इनका वर्गीकरण आयुर्वेदीय दृष्टिकोण से पुनः दो प्रकार का होता है। यथा—१.शूकधान्य—शूक का अर्थ है नुकीले अग्रभाग वाले धान्य । जैसे—गेहूँ, जौ, धान आदि। २. शिम्बी या शमी धान्य—छीमी में उत्पन्न होने वाला दो दल युक्त अन्न। जैसे—चना, उड़द, कुलथी, सेम आदि।

संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत–च.सू. २७, सु.सू. ४६ तथा अ.सं.सू.७ तथा १२ में देखें।

अथ शूकधान्यवर्गः

रक्तो महान् सकलमस्तूर्णकः शकुनाहृतः।
सारामुखो दीर्घशूको रोध्रशूकः सुगन्धिकः॥१॥
पुण्ड्रः पाण्डुः पुण्डरीकः प्रमोदो गौरसारिवौ।
काञ्चनो महिषः शूको दूषकः कुसुमाण्डकः॥
लाङ्गला लोहवालाख्याः कर्दमाः शीतभीरुकाः।
पतङ्गास्तपनीयाश्च ये चान्ये शालयः शुभाः॥
स्वादुपाकरसाः स्निग्धाः वृष्या बद्धाल्पवर्चसः।
कषायानुरसाः पथ्या लघवो मूत्रला हिमाः॥

शूकधान्यों का वर्णन—रक्तशालि, महाशालि, कलमशालि, तूर्णकशालि, शकुनाहृतशालि, सारामुख, दीर्घशूक, रोध्रशूक (लोध के फूल के सदृश शूक वाला), सुगन्धक (बासमती), पुण्ड्रशालि, पाण्डुशालि, पुण्डरीकशालि, प्रमोद, गौर, शारिव, काञ्चन, महिष, शूकशालि, दूषकशालि, कुसुमाण्डकशालि, लांगलशालि, लोहबाल नामक शालि, कर्दमशालि, शीतभीरुकशालि, पतंग तथा तपनीय शालि; इनके अतिरिक्त और भी जो अनेक शालियों की जातियाँ होती हैं, वे सब शालि उत्तम कोटि के होते हैं। वे सभी रस एवं विपाक में मधुर, स्निग्ध, वीर्यवर्धक होते हैं। इनको खाने से बँधा हुआ थोड़ा-सा मल बनता है। वे सब कुछ कषाय रसवाले होते हैं। ये सभी के लिए पथ्य, लघु (हलके), मूत्रकारक तथा हिम (शीतवीर्य) होते हैं।।१-४॥

वक्तव्य-शकुनाहृत नामक शालिधान्य के सम्बन्ध में कहा गया है कि इसे शकुनि (गरुड़) पक्षी द्वीपान्तर से ले आया था, अतएव इसे शकुनाहृत या गरुड़शालि भी कहते हैं। आजकल तो व्यापारीवर्ग भी बासमती को 'गरुड़ब्राण्ड' कहने लगे हैं। किसी संस्करण में 'पुण्ड्र''शीतभीरुका' ये पंक्तियाँ नहीं मिलतीं। यह पाठ सम्पूर्ण अष्टांगसंग्रह ७ से लिया गया है।

वरस्तत्र

जास्वरूपविज्ञानीयाध्यायः ६ ।

सूत्रस्थानम्

शूकजेषु

रक्तस्तृष्णात्रिदोषहा।

रक्तशालि का वर्णन—ऊपर कहे गये सब शूकधान्य हैं, इनमें रक्तशालि उत्तम होता है। यह प्यास को कम करता है और त्रिदोषनाशक (शामक) होता है।

महांस्तमनु कलमस्तं चाप्यनु ततः
परे॥५॥

क्रमशः गुणहीनता-रक्तशालि की तुलना में महाशालि, उससे कलमशालि, उससे भी तूर्णकशालि हीन गुणवाले होते हैं।। ५॥

वक्तव्य—वाग्भट के टीकाकार श्री अरुणदत्त कहते हैं—'रक्तशाले: पश्चात् महान् शालिर्वरः'। और बोहेमाद्रि कहते हैं—'तमनु रक्तशालेहींनो महान्' । उक्त दोनों टीकाकारों का स्पष्ट मतभेद है। इस मतभेद के समाधान के लिए हम महर्षि सुश्रुत की शरण में जाते हैं— 'तेषां लोहितकः श्रेष्ठः "तस्मादल्पान्तरगुणाः क्रमशः शालयोऽवराः' ।। (सु.सू. ४६।६-७ ) अर्थ स्पष्ट है।

यवका हायनाः पांसुबाष्पनैषधकादयः ।
स्वादूष्णा गुरवः स्निग्धाः पाकेऽम्लाः श्लेष्मपित्तलाः॥
सृष्टमूत्रपुरीषाश्च पूर्वं पूर्वं च निन्दिताः।

यवक आदि शालिधान्य—यवक (जई), हायनक, पांसु, बाष्प, नैषधक आदि अन्य अनेक प्रकार के शालिधान्य होते हैं। इनके गुण—ये स्वाद में मधुर, उष्ण, गुरु, स्निग्ध, पाक में अम्ल, कफकारक तथा पित्तकारक होते हैं। इनके सेवन से मल-मूत्र की प्रवृत्ति सरलता से हो जाती है। ये क्रमशः अपने से पूर्व निन्दित होते हैं, इस क्रम से सबसे अधिक निन्दित यवक होता है।।६।।

वक्तव्य-चरक ने सूत्रस्थान के २५वें अध्याय में 'अहिततमानुपदेक्ष्यामः——यवकाः शूकधान्यानामपथ्यतमत्वेन प्रकृष्टतमा भवन्ति' । ( ३९ ) कहा है और 'लोहितशालयः शूकधान्यानां पथ्यतमत्वे श्रेष्ठतमा भवन्ति'। (वहीं ३८) चरक के इस वचन से इनकी गुणहीनता तथा गुणवत्ता का स्पष्ट संकेत मिल जाता है।

स्निग्धो ग्राही लघुः स्वादुस्त्रिदोषघ्नः स्थिरो हिमः॥७॥
षष्टिको व्रीहिषु श्रेष्ठो गौरश्चासितगौरतः।

व्रीहिधान्य का वर्णन—व्रीहिधान्यों में षष्टिक ( साठीधान्य ) स्निग्ध, ग्राही ( मल को बाँधने वाला), लघु (शीघ्र पचने वाला), स्वादु (मधुर), वात आदि तीनों दोषों का शामक, स्थिर (शरीर को स्थिर रखने वाला), हिम (शीतल ) गुणवाला होता है। व्रीहिधान्यों से साठीधान्य उत्तम होता है। यह दो प्रकार का होता है—१. गौर (सफेद रंग वाला) तथा २. हलका काला। इनमें गौर साठी उत्तम होता है।।७॥

वक्तव्य—षष्टिक धान्य ग्रीष्म ऋतु में पकता है। षष्टिक ( सफेद सांठी), कंगु, मुकुन्दक, पीतक, काकलक, असन, पुष्पक, महाषष्टिक, चूर्णक, कुरबक, केदार आदि ये सांठी धान्य की जातियाँ हैं। देखें-सु.सू. ४६।८ से ११ तक।

क्रमान्महाव्रीहिकृष्णव्रीहिजतूमुखाः॥ ८ ॥
कुक्कुट्टाण्डकलावाख्यपारावतकशूकराः।
वरकोद्दालकोज्ज्वालचीनशारददर्दुराः॥९॥
गन्धनाः कुरुविन्दाश्च गुणैरल्पान्तराः स्मृताः।

सामान्य गुणवाले षष्टिक—उक्त षष्टिक धान्यों से ये सामान्य (कुछ कम ) गुण वाले होते हैं—महाव्रीहि, कृष्णव्रीहि, जतुमुख, कुक्कुटाण्ड, कपाल, पारावतक, शूकर, वरक, उद्दालक, उज्ज्वाल (ज्वार, मक्का, जुन्हरी), चीन (कौणी), शारद, दर्दुर, गन्धन तथा कुरुविन्द ।। ८-९॥

ततः

स्वादुरम्लविपाकोऽन्यो व्रीहिः पित्तकरो गुरुः॥१०॥
बहुमूत्रपुरीषोष्मा, त्रिदोषस्त्वेव पाटलः ।

अन्य व्रीहिधान्य-वर्णन—ये रस में मधुर, विपाक में अम्ल, पित्तकारक, पाचन में गुरु तथा उष्ण होते हैं। इनका अधिक भाग मल-मूत्र के रूप में परिणत हो जाता है अर्थात् ये पौष्टिक नहीं होते। इनमें 'पाटल' नामक व्रीहि त्रिदोषकारक होता है।। १० ।।

वक्तव्य-शालि-षष्टिक व्रीहिधान्यों का संक्षिप्त परिचय-

१.शालिधान्य—इनकी फसल उगाने से पकने तक इन्हें जल से भरे खेतों की जरूरत होती है, फिर भी ये शरद् ऋतु के बाद में पकते हैं। ये अधिक सफेद होते हैं।

२. षष्टिक धान्य-ये प्रायः साठ दिन में पककर तैयार हो जाते हैं।

३. व्रीहिधान्य-चरक के टीकाकार श्रीचक्रपाणि के अनुसार ये शरत् काल में पकने वाले आशुधान्य हैं।

कङ्गुकोद्रवनीवारश्यामाकादि हिमं लघु ॥११॥
तृणधान्यं पवनकृल्लेखनं कफपित्तहृत् ।

तृणधान्यों का वर्णन—कंगु (कंगुनी या कौणी), कोद्रव (जंगली कोदों), नीवार (तीनी—मुनि अन्न ), श्यामाक (साँवा) आदि ये तृण (निःसार) धान्य हैं। ये सभी शीरत, हलके, वातकारक, लेखन (खुरच कर मल या मैल को निकालने वाले), कफ तथा पित्त नाशक होते हैं।। ११ ।।

वक्तव्य—ये तृणधान्य बिना जोते-बोये स्वयं उग जाते हैं और कहीं-कहीं बोये भी जाते हैं। हमारे धर्मशास्त्र के अनुसार अनेक व्रत ऐसे भी हैं, जिनमें 'हलकृष्टं न भुञ्जीत' अर्थात् हल जोतकर जो अन्न पैदा होते हैं, उन्हें व्रत के दिन खाने का निषेध रहता है, तब ये अन्न खाये जाते हैं। यही स्थिति वनवासी मुनियों की भी होती है, अतएव इन्हें मुनिअन्न भी कहते हैं। सुश्रुत ने इन अन्नों का परिगणन 'कुधान्यवर्ग' में किया है। देखें—सु.सू. ४६।२१ । वास्तव में ये 'कुत्सितं धान्यं कुधान्यम्' हैं।

भग्नसन्धानकृत्तत्र प्रियङ्गुइँहणी गुरुः॥१२॥

प्रियंगुधान्य का वर्णन-तृणधान्यों में प्रियंगु ( कंगुनी ) भग्न (टूटे हुए शरीरावयव अर्थात् अस्थि) को जोड़ता है। यह शरीर को मोटा बनाता है और पाचन में गुरु है अर्थात् देर में पचता है।। १२ ।।

वक्तव्य—सुश्रुत में प्रियंगु का वर्णन इस प्रकार है—प्रियंगु काला-लाल-पीला-सफेद वर्णभेद से चार प्रकार का होता है। ये उत्तरोत्तर रूक्ष तथा कफनाशक होते हैं। देखें—सु.सू. ४६।२४। इस दृष्टि से वाग्भटोक्त लक्षणों से ये लक्षण विपरीत प्रतीत होते हैं।

कोरदूषः परं ग्राही स्पर्शे शीतो विषापहः।

कोदोंधान्य का वर्णन—कोदोंधान्य अत्यन्त ग्राही (मल को बाँधने वाला) होता है। यह स्पर्श में शीतल होता है और विषजनित विकारों को नष्ट करता है।

वक्तव्य–दाह की स्थिति में इसे पीसकर माथा में, पैरों में, उदर में, पेडुओं में लेप लगाया जाता है। यह स्पर्श में शीत होने के कारण दाहनाशक है। अष्टांगसंग्रह में कोरदूष = कोदों के बाद तृणधान्यों में एक ‘उद्दालक' तथा 'मधूलिका' का भी ग्रहण किया है। इसे 'बड़ा कोदों' कहते हैं। यह उष्णवीर्य होता है। मधूलिका—यह शीतवीर्य, स्निग्ध तथा वृष्य होती है।

श्री अरुणदत्त का कथन है कि 'श्यामाकादि में प्रयुक्त आदि शब्द से तोयश्यामाक, हस्तिश्यामाक, शिविर, प्रशान्तिका, मधूलिका, गवेधु, काण्डलोहित आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए। देखें—ऊपर ११वें श्लोक की व्याख्या।

रूक्षः शीतो गुरुः स्वादुः सरो विड्वातकृद्यवः॥१३॥
वृष्यः स्थैर्यकरो मूत्रमेदःपित्तकफान् जयेत्।
पीनसश्वासकासोरुस्तम्भकण्ठत्वगामयान् ॥१४॥

जौ का वर्णन-जौ रूक्ष, शीतल, पचने में गुरु (भारी), स्वाद में मधुर, सर ( मल को सरकाने बाला), इसे खाने से मल (पुरीष ) अधिक मात्रा में बनता है, यह वातदोष को बढ़ाता है। यह वीर्यवर्धक है, शरीर में स्थिरता को उत्पन्न करता है; मूत्रदोष, मेदोदोष, पित्त तथा कफविकारों को जीतता है। यह पोनस, श्वास, कास, ऊरुस्तम्भ, गले तथा त्वचा के रोगों को नष्ट करता है।।१३-१४।।

न्यूनो यवादनुयवः अनुयव का वर्णन–अनुयव (छोटा जौ) के उक्त प्रसिद्ध जौ से दाने भी छोटे होते हैं और यह उक्त जौ से गुणों में भी कम होता है।

-रुक्षोष्णो वंशजो यवः।

वंशज जौ का वर्णन—बाँस से उत्पन्न लगभग जौ की आकृति वाले होने के कारण इन्हें बाँस के जौ कहते हैं। ये खाने में रूक्ष तथा उष्णवीर्य होते हैं।

वक्तव्य—अष्टांगसंग्रह में वेणुयवों का वर्णन इस प्रकार मिलता है—'बाँस के जौ उष्ण, सर, कषाय रस-प्रधान, वात तथा पित्त कारक होते हैं । देखें-अ.सं.सू. ७।२१ ।

वृष्यः

स्निग्धो जीवनो वातपित्तहा ॥१५॥
सन्धानकारी मधुरो गोधूमः स्थैर्यकृत्सरः।

गोधूम का वर्णन-गेहूँ के गुण-धर्म—यह वृष्य (वीर्यवर्धक ), शीतवीर्य, पाचन में जीवनीय शक्ति प्रदान करने वाला, वात तथा पित्त का नाशक, टूटी हुई अस्थि को जोड़ने वाला, स्वाद में मधुर, स्थिरता को देने वाला तथा सर होता है।। १५ ।।

पथ्या नन्दीमुखी शीता कषायमधुरा लघुः॥१६॥
इति शूकधान्यवर्गः।

नन्दीमुखी का वर्णन–नन्दीमुखी ( मुंडा गेहूँ) पथ्य ( हितकर ), शीतवीर्य, कषैला, मधुर तथा पाचन में लघु ( हलका) होता है।।१६।।

वक्तव्य—'नन्दीमुखी' यह नाम छोटे शूक वाले मुँडा गेहूँ का है, अतः व्याकरण की दृष्टि से इसका नाम 'नन्दीमुखा' होना चाहिए ‘गौरमुखा' की भाँति। देखें—'नखमुखात् संज्ञायाम्' (४।१।५८)—ङीष् न स्यात्।

शीतो गुरुः
गुरु, स्निग्ध,
अथ शिम्बीधान्यवर्गः

मुद्गाढकीमसूरादि शिम्बीधान्यं विबन्धकृत् ।
कषायं स्वादु सङ्ग्राहि कटुपाकं हिमं लघु ॥१७॥
मेदःश्लेष्मास्रपित्तेषु हितं लेपोपसेकयोः।

शिम्बीधान्य-परिचय-मूंग, अरहर, मसूर आदि शिम्बीधान्य कहे जाते हैं। ये शिम्बीधान्य स्वाद में कषैले तथा मधुर होते हैं। मल को बाँधते हैं, इनका कटु विपाक होता है। ये शीतवीर्य तथा लघुपाकी होते हैं। इनका प्रयोग मेदोविकार, कफविकार, रक्तविकार तथा पित्तविकारों में लेप तथा उपसेक अर्थात् दाल, कढ़ी आदि के रूप में भी किया जाता है ।। १७॥

वक्तव्य-इसके आगे कुछ संस्करणों में 'चना' नामक शिम्बीधान्य का इस प्रकार वर्णन मिलता है—'असृपित्तहरो रूक्षो वातलश्चवणकः स्मृतः'। इसका अर्थ है—चना। यह रक्तपित्तनाशक, रूक्ष तथा वातकारक होता है। अष्टांगसंग्रह ७।२६-२७ में इनके बारे में कुछ विशेष कहा गया है—दालों में मूंग की दाल श्रेष्ठ होती है, छोटे मूंग वातकारक होते हैं, हरे मूंग सबमें उत्तम होते हैं। मोठ—ये कृमिकारक होते हैं। मसूर-लेप, उबटन आदि के रूप में प्रयुक्त मसूर मुखमण्डल की कान्ति को बढ़ाते हैं। ये मल को बाँधते हैं। राजमाष ( लोबिया ) गुरु होता है। यह मलकारक, रूक्ष तथा वातकारक होता है।

वरोऽत्र मुद्गोऽल्पचलः, कलायस्त्वतिवातलः ॥१८॥
राजमाषोऽनिलकरो रूक्षो बहुशकृद्गुरुः।

मूंग, मटर, राजमाष—मूंग, अरहर, मसूर नामक दालों में मूंग श्रेष्ठ है, यह थोड़ा वातकारक होता है। कलाय (मटर ) अत्यधिक वातकारक होता है। राजमाष (लोबिया ) वातकारक, रूक्ष तथा गुरु (पचने में देर लगाने वाला) होता है। इसका अधिकांश भाग मल (पुरीष ) बन जाता है।।१८।।

उष्णाः कुलत्थाः पाकेऽम्लाः शुक्राश्मश्वासपीनसान्॥१९॥
कासार्शःकफवातांश्च घ्नन्ति पित्तास्रदाः परम् ।

कुलथी का वर्णन—यह उष्ण, पाक में अम्ल, शुक्राश्मरी, श्वास, पीनस, कास, अर्श (बवासीर), कफविकार तथा वातविकारों को नष्ट करती है; पित्त और रक्त को बढ़ाती है।।१९।।

निष्पावो वातपित्तास्रस्तन्यमूत्रकरो गुरुः॥२०॥
सरो विदाही दृक्शुक्रकफशोफविषापहः।

सेम का वर्णन—निष्पाव (सेम) वात-पित्तकारक, स्तन्य (दूध ) तथा मूत्र को बढ़ाता है। यह गुरुपाकी होता है, सर, विदाही (पाचनकाल में दाहकारक होता है), नेत्रविकार, शुक्रदोष, कफविकार शोथ एवं विषविकारों को नष्ट करता है।।२०।।

वक्तव्य-निष्पाव—निस् + पू + धञ्। इसका अर्थ होता है—फटकना या अनाज को साफ करना। इस अर्थ की इस प्रसंग में कोई उपयोगिता नहीं है। आयुर्वेदीय दृष्टिकोण से यह एक शिम्बीधान्य है। निष्पाव ( Phaseolus radiatus or a sort of pulse), सफेद सेम, राजशिम्बीबीज, भटवाँस ( यह काला तथा सफेद रंग का होता है), कृष्णात्रेय ने—'निष्पावा मधुरा रूक्षाः सकषाया विदाहिनः' कहकर इनकी अनेक जातियाँ होती हैं, कहा है, अतएव बहुवचन का प्रयोग किया है।

माषः स्निग्धो बलश्लेष्ममलपित्तकरः सरः॥२१॥
गुरूष्णोऽनिलहा स्वादुः शुक्रवृद्धिविरेककृत् ।

माष का वर्णन माष ( उड़द ) स्निग्ध, बलवर्धक, कफकारक, मलवर्धक, पित्तकारक, सर, पाचन में गुरु, उष्ण, वातनाशक, स्वाद में मधुर, शुक्रवर्धक एवं विरेचक है।। २१ ।।

वक्तव्य—माष ( उड़द )-पाकविधि-उड़दों को खौलते हुए पानी में डालकर पकाया जाता है, जब उसके दाने फूटने लगते हैं, तो उसमें तेल डालकर ढक दिया जाता है। इस स्थिति में वे फिर मन्द आँच पर पकाये जाते हैं। इसमें नमक, मिर्च-मसाले इच्छानुसार डालकर हींग का छौंक भी लगाया जाता है। इस प्रकार पकायी गयी उड़द की दाल के गुणों का ही उक्त श्लोक में वर्णन है। पंजाब प्रान्त में इसी प्रकार उड़द की दाल बनायी जाती है। यह सूखी सब्जी की भाँति रोटियों तथा चावलों के साथ खायी जाती है। माष के अनेक वृष्य-प्रयोगों का वर्णन आयुर्वेद में प्राप्त होता है। माष का दाल के रूप में प्रयोग पश्चिम में अधिक होता है।

फलानि माषवद्विद्यात्काकाण्डोलात्मगुप्तयोः॥२२॥

काकाण्डोला तथा केवाँच–काकाण्डोला (शूकर सेम) तथा केवाँच के बीज भी माष ( उड़द) के समान गुण-धर्मवाले होते हैं।। २२ ।।

वक्तव्य-केवाँच की सेम जब पक जाती है, तो उसके रोम झड़ने लगते हैं। बन्दर उस सेम को खाने के लिए जाते हैं तो वे रोम उनके शरीर पर गिरते हैं, वे दिनभर खुजलाते रहते हैं। इस दृष्टि से केवाँच को संस्कृत में ‘कपिकच्छु' कहते हैं। इसके बीज अत्यन्त पौष्टिक होते हैं। इन्हें घिसकर गोंद का मी काम लिया जाता है। उष्णकटिबन्ध में इसकी लताएँ होती हैं, यह शारदीय फल है। सुकोमल केवाँच की फलियों की सब्जी सेम की भाँति बनायी जाती है। केवाँच के बीजों की खीर अत्यन्त पौष्टिक एवं वीर्यवर्धक होती है।

उष्णस्त्वच्यो हिमः स्पर्श केश्यो बल्यस्तिलो गुरुः।
अल्पमूत्रः कटुः पाके मेधाऽग्निकफपित्तकृत् ॥

तिल का वर्णन-तिल उष्णवीर्य, त्वचा के लिए हितकर, स्पर्श में शीत, बालों के लिए हितकर, बलवर्धक, गुरुपाकी, मूत्र को घटाने वाला, विपाक में कटु, बुद्धिवर्धक, अग्निवर्धक, कफकारक तथा पित्तकारक होते हैं।। २३॥

वक्तव्य—'त्वच्यः' तथा 'केश्यः' तिलों के ये दो विशेषण प्रायः इनके तेल के हैं। तिलों को पीसकर इनका उबटन भी लगाया जाता है, तेल की मालिश भी की जाती है, अतः इन दोनों प्रकारों से यह त्वच्य है। 'केश्यः' केवल तेल के कारण है। अल्पमूत्रः-जाड़ों में वृद्धजनों को बार-बार पेशाब करने जाना पड़ता है, अतएव इन दिनों तिलकुट, तिलवट, तिलवा, गजक आदि भक्ष्यपदार्थ तिल को पूँजकर कूटकर गुड़ या चीनी मिलाकर बनाये जाते हैं। इनका सेवन करने से मूत्र की मात्रा कम हो जाती है। यही वाग्भट का सन्देश है।

स्निग्धोमा स्वादुतिक्तोष्णा कफपित्तकरी गुरुः।
दृक्शुक्रहृत्कटुः पाके, तद्वबीजं कुसुम्भजम् ॥

अतसी एवं कुसुम्भबीज—उमा (अलसी, तीसी या अतसी) स्निग्ध (तेल से युक्त), स्वाद में मधुर, कुछ तिक्त, उष्णवीर्य, कफकारक, पित्तकारक, गुरुपाकी, दृष्टिनाशक, शुक्रनाशक और विपाक में कटु होती है। कुसुम्भ (बरे ) के बीज भी अतसी के समान गुण-कर्म वाले होते हैं।।२४।।

वक्तव्य-तिल, अतसी तथा कुसुम्भबीज ये तीनों द्रव्य तिलहन में गिने जाते हैं, यहाँ इनका परिगणन शिम्बीधान्य के रूप में किया गया है। यह भी तो है कि एक द्रव्य अपने गुण-धर्मों से अनेक से सम्बन्धित रहता है।

माषोऽत्र सर्वेष्ववरो, यवकः शूकजेषु च।

माष एवं यवक वर्णन—शिम्बीधान्यों में माष ( उड़द ) उक्त सभी धान्यों में अवर ( निकृष्ट) होता है और शूकधान्यों में यवक (जई ) अधम होता है।

वक्तव्य—'माषाः शमीधान्यानाम् अपथ्यतमत्वेन प्रकृष्टतमा भवन्ति'। (च.सू. २५।३९ ) शमीधान्यों में माष अपथ्यतम होते हैं। यहाँ शूकधान्यों में यवक को जो पुनः अपथ्य कहा है, इससे ऐसा लगता है कि शास्त्रकार का यह वचन 'द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति' वाली सूक्ति है अर्थात् दो बार बाँधी हुई गाँठ जल्दी खुलती नहीं। इसके पहले शूकधान्यवर्ग में पूर्वं पूर्वं च निन्दिताः' पद्यार्ध द्वारा यवक के गुणों की निन्दा की जा चुकी है, अस्तु। ‘माषाः श्लेष्मपित्तजननानां श्रेष्ठाः'। (च.सू. २५/४० ) इस वचन से अब आप किसी द्रव्य को सहसा उत्तम, मध्यम, अधम नहीं कह सकते, उसके लिए पूर्वापर की संगति अपेक्षित होती है। यही स्थिति 'यवक' की भी है।

वक्तव्य-चरक, सुश्रुत, वाग्भट आदि ने जिन द्रव्यों के जो नाम दिये हैं, देशभेद के कारण वे नाम बदल भी जाते हैं। इसलिए शूक, शमी, कुधान्य आदि को वहाँ-वहाँ के किसानों से, पशु-पक्षियों के नामों को व्याधों या शिकारियों से, कन्द-मूल-फलों के नामों को वनवासियों से, पकाये व्यञ्जनों के नामों को रसोइयों से, औषधद्रव्यों के नामों को औषधसंग्रह करके बाजारों में बेचने वालों (अत्तारों) से पूछे और प्रयोग करके उन-उन के गुण-धर्मों से मिलाकर प्रयोग में लायें।

नवं धान्यमभिष्यन्दि, लघु संवत्सरोषितम् ॥२५॥
शीघ्रजन्म तथा सूप्यं निस्तुषं युक्तिभर्जितम्।
इति शिम्बीधान्यवर्गः।

धान्य—विवेचनउक्त दोनों प्रकार के (शूक तथा शिम्बी ) धान्य नयी अवस्था में अभिष्यन्दी (कफकारक ) होते हैं और वे ही सालभर पुराने होने पर लघु (शीघ्र पचने वाले ) हो जाते हैं, जो धान्य शीघ्र पक जाते हैं। जैसे साठी आदि तथा छिलका उतारी हुई घी-तेल आदि में पूँजी हुई दालें भी लघु होती हैं।। २५॥

वक्तव्य-खारणादि ने कहा है—एक साल पुराना हो जाने पर सभी प्रकार के धान्य अपनी गुरुता छोड़ देते हैं, किन्तु वे अपना वीर्य नहीं छोड़ते अर्थात् वे शक्तिहीन नहीं होते। शीघ्रजन्म–साठी आदि जो धान्य जितने शीघ्र पकते हैं वे उतने ही लघु होते हैं, इसके विपरीत देर में पकने वाले गेहूँ आदि धान्य स्वभावतः गुरु होते हैं। सूप्य–दाल के उपयोग में आने वाले मूंग, माष आदि। निस्तुष—छिलका उतारी हुई दालें, इन्हीं को वितुष भी कहते हैं। युक्तिभर्जितम् ये दालें भड़पूँजे से भी भुंजवायी जाती हैं या घरों में घी-तेल में पूँजकर खायी जाती हैं, बिना घी-तेल के पूँजी हुई लघु होती है, शेष गुरु।

वक्तव्य-मण्ड-अथ कृतान्नवर्गः
मण्डपेया विलेपीनामोदनस्य च लाघवम् ॥२६॥

यथापूर्वं शिवस्तत्र मण्डो वातानुलोमनः।
तृग्लानिदोषशेषघ्नः पाचनो धातुसाम्यकृत् ॥२७॥
स्रोतोमार्दवकृत्स्वेदी सन्धुक्षयति चानलम् ।

पकाये गये अन्नों का वर्णन–मण्ड ( माँड़), पेया, विलेपी तथा ओदन (भात) ये क्रमशः अपने पूर्ववर्ती पदार्थ से लघुपाकी होते हैं। मण्ड-परिचय—यह शिव (कल्याणकारक) होता है, वातदोष का अनुलोमन करता है, तृषा (प्यास ), ग्लानि ( हर्षक्षय ), वमन, विरेचन आदि से शोधन कराने के बाद बचे हुए दोष का विनाशक है, पाचनकारक एवं धातुसाम्यकारक हैं, स्रोतों को मुलायम बना देता है, पसीना लाता है और यह जठराग्नि को विधिवत् सुलगाता ( तेज करता ) है ।। २६-२७।।

चावलों से चौदह गुना अधिक जल डालकर पकाये गये और सिक्थ ( भात ) के अंश को निकाल कर जो पेय द्रवद्रव्य शेष बचता है, उसे 'मण्ड' या 'माँड़' कहते हैं। इसमें सोंठ और सेंधानमक भी मिला लिया जाता है, तो यह दीपन-पाचन हो जाता है। इसके भेद-१. यवमण्ड तथा २. लाजमण्ड आदि।

पेया—आहारद्रव्य से चौदह गुना जल में बनायी गयी अत्यन्त पतली तथा थोड़ी-सी सीठी से युक्त वस्तु को पाकविशेषज्ञ ‘पातुं योग्या पेया' अर्थात् पीने योग्य कहते हैं।

विलेपी—आहारद्रव्य से चौगुने पानी में डालकर तैयार की हुई, जिसमें सीठी का अंश विशेष हो, उसे विलेपी (लपसी) कहते हैं।

ओदन–चार पल (१६ तोला ) चावलों को चौदह गुना जल में पकायें। चावलों के भलीभाँति गल जाने पर माँड़ को निकाल दें, इसे ओदन (भात ) कहते हैं।

क्षुत्तृष्णाग्लानिदौर्बल्यकुक्षिरोगज्वरापहा ॥२८॥
मलानुलोमनी पथ्या पेया दीपनपाचनी।

पेया का वर्णन—यह भूख तथा प्यास को शान्त करती है, ग्लानि ( उत्साहहीनता), दुर्बलता, उदररोगों एवं ज्वर का विनाश करती है। पुरीष आदि मलों का अनुलोमन करती है, रोगी तथा नीरोग दोनों के लिए हितकर है। यह दीपन और पाचन है।। २८ ।।

विलेपी ग्राहिणी हृद्या तृष्णाघ्नी दीपनी हिता॥२९॥
व्रणाक्षिरोगसंशुद्धदुर्बलस्नेहपायिनाम् ।

विलेपी का वर्णन—इसमें मल को बाँधने की शक्ति होती है, अतः यह अतिसाररोग को नष्ट करती है, हृदय को बल देती है, प्यास को शान्त करती है, मन्द अग्नि को प्रदीप्त करती है, सभी स्थितियों में हितकर है। यह व्रण ( घाव), नेत्ररोग, वमन-विरेचन आदि द्वारा शुद्ध शरीर वाले दुर्बल व्यक्तियों तथा स्नेहपान करने के इच्छुक व्यक्तियों के लिए लाभदायक होती है।।२९।।

सुधौतः प्रसुतः स्विन्नोऽत्यक्तोष्मा चौदनो लघुः॥३०॥
यश्चाग्नेयौषधक्वाथसाधितो भृष्टतण्डुलः।
विपरीतो गुरुः क्षीरमांसाद्यैर्यश्च साधितः॥३१॥

ओदन का वर्णन—जो भात चावलों को भलीभाँति धोकर पकाया जाता है, पकने पर जिसमें से माँड़ निकाल लिया गया हो (स्वाद की दृष्टि से नये चावलों का माँड़ प्रायः नहीं निकाला जाता, तभी वह स्वादिष्ट एवं गुरु होता है), जिसमें अभी तक गर्मी बनी हुई हो, ऐसा भात लघु (सुपच ) होता है। जो भात चित्रक (चीता) के अथवा सोंठ के क्वाथ में बनाया जाता है या चावलों को भूजकर बनाया जाता है, वह भी लघु होता है। इसके विपरीत अर्थात् दूध में पकाये हुए चावलों की खीर, मांसरस में पकाये हुए चावलों का भात या बिना माँड़ निकाला हुआ भात ये सब गुरु ( देर में पचने वाले ) होते हैं।। ३०-३१॥
इति द्रव्यक्रियायोगमानाद्यैः सर्वमादिशेत् ।

संक्षिप्त निर्देश—इस प्रकार द्रव्य (जिससे जो पदार्थ बनाया गया हो), कर्म (निर्माणविधि के भेद-उपभेद ), योग ( सहयोगी द्रव्यों का संयोग ) तथा उनके मान (नाप-तौल), आदि शब्द से देश, काल का ग्रहण करके सभी प्रकार के आहारद्रव्यों के लघुत्व, गुरुत्व आदि गुण-दोषों का स्वयं भी विचार कर लेना चाहिए और दूसरों को उसका निर्देश देना चाहिए।

बृहणः प्रीणनो वृष्यश्चक्षुष्यो व्रणहा रसः॥३२॥

मांसरस के गुण—यह धातुओं को पुष्ट करने वाला, तृप्तिकारक, वीर्यवर्धक, आँखों के लिए हितकर (नेत्र-ज्योतिवर्धक) तथा व्रणनाशक (घाव को शीघ्र भरने वाला) होता है।। ३२ ।।

मौद्गस्तु पथ्यः संशुद्धव्रणकण्ठाक्षिरोगिणाम्।

मूंग का यूष—यह वमन-विरेचन आदि क्रियाओं से शुद्ध शरीर वालों के लिए, व्रण, कण्ठ तथा नेत्ररोगियों के लिए पथ्य (हितकर ) होता है।

वातानुलोमी कौलत्यो गुल्मतूनीप्रतूनिजित् ।। ३३ ।।

कुलथी का यूष—यह वातदोष को अनुलोम ( अनुकूल ) करता है, गुल्मरोग, तूनी तथा प्रतूनी नामक वातरोगों का विनाशक है।। ३३ ।।

तिलपिण्याकविकृतिः शुष्कशाकं विरूढकम्।
शाण्डाकीवटकं दृग्घ्नं दोषलं ग्लपनं गुरु ॥३४॥

तिल, पिण्याक आदि-तिल की खली से बने हुए भोज्य पदार्थ, चना एवं सरसों के पत्तों को सुखाकर बनाये गये शाक, विरूढ़क ( अंकुर निकले हुए चना, मोठ, मूंग आदि) तथा काँजी में डाले गये बड़े—ये सब पदार्थ दृष्टिनाशक, वात आदि दोषकारक, ग्लानिकारक तथा गुरु होते हैं।। ३४।।

रसाला बृंहणी वृष्या स्निग्धा बल्या रुचिप्रदा।

रसाला के गुण-रसाला ( श्रीखण्ड या शिखरन )-रस-रक्त आदि धातुओं को बढ़ाने वाली, वीर्यवर्धक, स्निग्ध (स्नेहयुक्त), बलवर्धक तथा रुचि को बढ़ाने वाली होती है।

रसाला, श्रीखण्ड, शिखरिणी या सिखरन—पाकक्रियाकुशल भीमसेन ने इसका निर्माण करके श्रीकृष्ण को खिलाया था, ऐसी चर्चा महाभारत में आई हैं। हम यहाँ उसी निर्माण-विधि का निर्देश कर रहे हैं—मलाई सहित उत्तम दही को एक स्वच्छ वस्त्र बाँधकर लटका दें। उसका जलीय तत्त्व निकल जाने पर उस दही को एक पात्र में निकाल लें, फिर किसी चौड़े बर्तन के मुख पर मोटा कपड़ा बाँधकर उस दही में चीनी मिलाकर उस कपड़ा के ऊपर रखकर उसे हाथ से रगड़ें। वह दही उस कपड़े से छनकर जब सब उस पात्र में आ जाये, तब उसमें उचित मात्रा में कालीमिर्च, जावित्री, केशर, इलायची आदि मिलाकर रख दिया जाता है, यह रसाला है। इसके भेद-उपभेदों का विस्तृत वर्णन देखें-क्षेमकुतूहल' नामक ग्रन्थ में।

श्रमक्षुत्तृट्क्लमहरं पान
पानकं प्रीणनं गुरु ॥३५॥
विष्टम्भि मूत्रलं हृद्यं यथाद्रव्यगुणं च तत्।

पानक (शीतल पेय ) गुण—यह शारीरिक थकावट, भूख, प्यास तथा मानसिक सुस्ती को हटाता है, तृप्तिकारक तथा गुरु होता है। यह विष्टम्भकारक (मलावरोधक), मूत्र को निकाल देने वाला, रुचिकर होता है। विशेष करके यह जिस प्रकार के द्रव्यों से बनाया जाता है, तदनुसार गुणों वाला होता है।। ३५ ।।

वक्तव्य—यह एक प्रकार का पेय है, जो पकाये हुए कच्चे आम, पकी हुई इमली आदि के गूदे में पानी, नमक, मिर्च आदि मिलाकर तैयार किया जाता है; इसे ‘पना' भी कहते हैं। इसके अन्य अनेक प्रकार हैं—फालसा, आलूबुखारा, काफल (नैनीताल, अलमोड़ा में सुलभ जंगली फल)—इनमें से किसी एक का उक्त विधि से पानक बनाया जाता है। बादाम, पोस्तादाना, भाँग के बीज, कद्दू, खरबूजा आदि के बीजों को एक साथ पानी डालकर पीस लें, फिर इसे कपड़े में डालकर छान लें। इसमें चीनी या उत्तम शहद डालकर पीया जाता है, यह भी एक सुमधुर पानक है। ग्रीष्मऋतु का यह उत्तम पौष्टिक पेय है। कुछ शौकीन लोग इसमें गुलकन्द भी मिलाते हैं। यह सोने में सुगन्ध है।

लाजास्तृट्छर्घतीसारमेहमेदःकफच्छिदः ॥३६॥
कासपित्तोपशमना दीपना लघवो हिमाः।

लाजा (लावा, खील)-ये तृष्णा (प्यास ), वमन, अतिसार, प्रमेह, मेदोवृद्धि तथा कफदोष का । विनाश करते हैं; कास एवं पित्तविकार को शान्त करते हैं, जठराग्नि को प्रदीप्त करते हैं, लघुपाकी, शीतल तथा शीतवीर्य होते हैं।। ३६ ।।

वक्तव्य-भृष्टं सुपुष्पितं धान्यं लाजेति परिकीर्तितम्' । अर्थात् धानों को भाड़ में पूँजकर जो फूल जैसा खिल जाता है, उसे 'लावा' कहते हैं। ये लाजा अन्य धान्यों के भी बनाये जाते हैं। लावा शब्द संस्कृत में पुल्लिंग एवं नित्य बहुवचनान्त है।

पृथुका गुरवो बल्याः कफविष्टम्भकारिणः ॥३७॥

पृथुक (च्यूडा) ये पाचन में गुरु, बलवर्धक, कफकारक तथा विष्टम्भकारक ( मल को बाँधने वाले) होते हैं।। ३७॥

वक्तव्य-श्रीअरुणदत्त का कथन है कि हरे धानों को पूँजकर मुशल से कूटकर चिपटे जो बनाये जाते हैं, उन्हें 'पृथुक' कहते हैं। यही मत श्रीहेमाद्रि तथा डल्हण का भी है। किन्तु आजकल सूखे धानों को भिगाकर भूनकर तब कूटकर च्यूड़ा बनाया जाता है।

उक्त आचार्यों द्वारा कथित विधि से बनाया गया च्यूड़ा शुद्ध एवं उत्तम होता है।

धाना विष्टम्भिनी रूक्षा तर्पणी लेखनी गुरुः।

धाना (भूने हुए जौ या चावल)—यह विष्टम्भकारक, रूक्ष ( स्नेह रहित ), तृप्तिकारक, लेखन करने वाली तथा पचने में गुरु होती है।

लघवः

वक्तव्य-वाग्भट ने उक्त ‘धाना' को 'गुरु' कहा है, सुश्रुत का मत इसके विपरीत है—'धानोलुम्बास्तु लघवः कफमेदोविशोषणाः'। (सु.सू. ४६।४१०) अर्थात् धाना तथा उलुम्बा ( होलक ) ये लघु होते हैं, कफ एवं मेदोधातु को सुखाते हैं। ऐसा क्यों?

समाधान—'सुश्रुत' के मत में ये द्रव्य पाक में लघु हैं और गुणों में गुरु होते हैं। 'उलुम्बा' को हिन्दी में होरहा' भी कहते हैं।

सक्तवो

क्षुत्तृट्थमनेत्रामयव्रणान् ॥ ३८ ॥
घ्नन्ति सन्तर्पणाः पानात्सद्य एव बलप्रदाः।
नोदकान्तरितान्न द्विर्न निशायां न केवलान् ॥ ३९ ॥
न भुक्त्वा न द्विजैश्छित्त्वा सक्तूनद्यान्न वा बहून् ।

सत्तुओं का वर्णन–प्रायः सभी प्रकार के सत्तू लघु होते हैं। ये भूख, प्यास, थकावट, नेत्ररोग तथा व्रणों को नष्ट करते हैं। ये पीने से तत्काल तृप्तिकारक तथा बल (शक्ति) कारक होते हैं। सत्तू खाते समय बीच-बीच में पानी नहीं पीना चाहिए। दिनभर में दो बार सत्तू का सेवन न करे, इसे रात में नहीं खाना चाहिए। केवल ( बिना नमक या गुड़ मिलाये ) सत्तू नहीं खाने चाहिए। भोजन कर लेने के बाद भी सत्तू का सेवन न करे। आटा की भाँति सानकर दाँतों से काट-काट या चबा-चबा कर इनका सेवन न करे और अधिक मात्रा में भी सत्तू न खाये ।। ३८-३९ ।।

वक्तव्य—अन्य प्रकार के भोजनों के बीच-बीच में जिस प्रकार लोग पानी पीते हैं, वैसा सत्तुओं के साथ न करें। 'न केवलान्' का अर्थ श्री अरुणदत्त तथा हेमाद्रि ने किया है—'उदकादिरहितान्'। इसमें आदि पद से नमक या गुड़ या मिश्री समझना चाहिए। कुछ लोग इसकी रूक्षता कम करने के लिए इसमें घी मिला लेते हैं। घी मिलाने की सलाह संग्रहकार की भी है। सत्तुओं को घोलकर पीना यही उचित है, आटा जैसा सानकर खाना उचित नहीं है।

सत्तू-निर्माण-जौ, चना, मसूर, बेर आदि को पूँजकर पीस लिया जाता है, इस प्रकार जो आटा बनाया जाता है, उसे 'सत्तू' कहते हैं। इसका प्रचार पूर्वी उत्तरप्रदेश में अधिक है। इधर इसके 'होटल' भी देखे जाते हैं, उनका नाम होता है—'तुरन्ता भोजनालय' ।

पिण्याको ग्लपनो रूक्षो विष्टम्भी दृष्टिदूषणः॥ ४० ॥

पिण्याक-वर्णन—पिण्याक (तिल या सरसों की खली ) ग्लानिकारक, रूक्षताकारक, विष्टम्भ (मल को रोकने वाला), दृष्टि को दूषित करने वाला होता है।। ४० ।।

वक्तव्य-पिण्याक का सेवन रात्रि में नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह रूक्ष होने के कारण विष्टम्भ करता है। उसके बाद यह विदाह करता है, फिर मन में ग्लानि को करता है।

वेसवारो गुरुः स्निग्धो बलोपचयवर्धनः।

वेसवार-वर्णन—यह गुरु, स्निग्ध ( चिकना), बलवर्धक तथा शरीर को स्थूल बनाता है।

वक्तव्य-वेसवार का परिचय श्रीचक्रपाणि ने च.सू. २७।२६९ की टीका में इस प्रकार दिया है—'मांसं निरस्थि सुस्विन्नं पुनदृषदि पेषितम्। पिप्पलीशुण्ठिमरिचगुडसर्पिःसमन्वितम् । ऐकध्यं विपचेत् सम्यग्वेशवार इति मृतः'। (सूदशास्त्र ) अर्थात् अस्थिरहित मांस के छोटे-छोटे टुकड़ों को पकाकर उन्हें फिर सिल पर पीसकर पीपल, सोंठ, मरिच, गुड़, घी मिलाकर फिर से एक साथ पकायें, इसे वेसवार कहते हैं। इसी का अविकल पाठ सुश्रुत में देखें—सु.सू. ४६।३६४-३६५ । यह मांसाहारियों का 'वेसवार' है। शाकाहारियों का वेसवार' आगे कहा जायेगा।

मुद्गादिजास्तु गुरवो यथाद्रव्यगुणानुगाः॥४१॥

मूंग आदि के वेसवार—मूंग, उड़द आदि वेसवार भी गुरु होते हैं, जिन घटकों द्वारा वे बनाये जाते हैं, उन्हीं के समान उन वेसवारों के गुण तथा कर्म भी होते हैं।। ४१ ।।

वक्तव्य—'सिद्धसार' में कहा गया है—'अत्युष्णा मण्डकाः पथ्या: शीतला गुरवो मताः' । अर्थात् उक्त मूंग आदि द्वारा निर्मित मण्डक गरमागरम यदि खाये जाते हैं, तो हितकर होते हैं और वे शीतल हो जाने पर गुरु हो जाते हैं अर्थात् देर में पचते हैं।

वेशवार-जीरा, मरिच, सोंठ, पीपलामूल, धनियाँ, हल्दी, दारुहल्दी, पिप्पली तथा सफेद मरिच- यह सब वेशवारगण हैं। देखें राज० मिश्रकवर्ग २२१६२। इन मसालों को डालकर जो मूंग आदि दालों के मण्डक (पकौड़े, बड़े आदि ) बनाये जाते हैं, उनके गुण-धर्मों का ऊपर वर्णन किया गया है। यह शब्द तालव्य अथवा दन्त्य सकार मध्य भी देखा जाता है।

कुकूलकपरभ्राष्ट्रकन्द्वङ्गारविपाचितान् ।
एकयोनील्लघून्विद्यादपूपानुत्तरोत्तरम् ॥४२॥
इति कृतान्नवर्गः।

अपूपों का वर्णन—कुकूल ( भूसा की आग ), कर्पर या खर्पर अर्थात् फूटे हुए घड़े का टुकड़ा, भ्राष्ट्र (भाड़), कन्दुक (गोल आकार वाली कड़ाही ) तथा जलते हुए कोयलों को अंगार कहते हैं। इनमें पकाये गये गेहूँ आदि किसी एक ही जाति के आटा के अपूप उत्तरोत्तर हलके होते हैं।। ४२ ।।

वक्तव्य—'अपूप' शब्द सामान्यतया गेहूँ के आटे को घोलकर चीनी डालकर पकाये हुए मालपुआ के लिए प्रयुक्त होता है। यहाँ ‘अपूप' की निर्माण-विधि से 'लिट्टी' या 'वाटी' का बोध हो रहा है, विशेषकर ‘कुकूलपाचितान्' तथा 'अङ्गारपाचितान्' को देखकर। 'कर्परभ्राष्ट्रकन्दुपाचितान्' को देखकर रोटी का आभास हो रहा है। कर्पर या खर्पर का अर्थ है फूटे घड़े के खप्पर का तवा; भ्राष्ट्र का अर्थ है-भड़भूजे की भाड़ या भड़साँय या भड़साईं अथवा तन्दूर; कन्दु का अर्थ है—लोहे का तवा या कड़ाही। अब आप तवा या कड़ाही में जो भी बनायें किन्तु ऊपर के साधनों में अपूप का बनना या बनाना सम्भव नहीं है। इस प्रकार यहाँ अपूप का अर्थ-लिट्टी, वाटी, रोटी, फुलका, चिलड़ा, पराठा तथा मालपुआ भी हो सकता है। यद्यपि इसमें पकाये जाने वाले पदार्थों के लिए यहाँ घी-चीनी का उल्लेख नहीं किया है, फिर भी अन्न, पकाने वाले पात्र तथा अग्नि का उल्लेख तो किया ही गया है। अतः यहाँ ‘एकदेशविकृत- स्यानन्यत्वात्' इस नियम से सभी का ग्रहण कर लिया जायेगा।

'कर्पर' शब्द का अर्थ है—घड़े का ठीकरा'। संस्कृत-साहित्य में एक आचार्य हुए हैं, जिनका नाम था ‘घटकर्पर'। ये यमकालंकार की रचना में अपने काल में अद्वितीय थे। इनकी एक गर्वोक्ति है—'जीयेय येन कविना यमकैः परेण, तस्मै वहेयमुदकं घटकर्परेण' । यहाँ भी कर्पर या खर्पर शब्द का वही अर्थ है। इस प्रकरण का नाम 'कृतान्नवर्ग' है। इसका अर्थ है—किये ( पकाये ) गये अन्नों ( भक्ष्यपदार्थों) का वर्ग। ‘कृत' का अर्थ संस्कृत भी होता है, इसका तात्पर्य है—मसाले आदि डालकर भलीभाँति पकाये गये और उसके बाद घी-तेल से छौंके गये। इस दृष्टि से सभी प्रकार के भक्ष्य पदार्थ कृत-अकृत भेद से दो प्रकार से बनाये जाते हैं। देखें— 'ज्ञेयाः कृताऽकृतास्ते तु स्नेहादियुतवर्जिताः' । (अ.सं.सू. ७।५१) अर्थात् कृत (संस्कृत) अथवा अकृत (असंस्कृत )।

अथ मांसवर्गः

हरिणैणकुरङ्गर्भगोकर्णमृगमातृकाः ।
शशशम्बरचारुष्कशरभाद्या मृगाः स्मृताः॥४३॥

मृग-परिचय–हरिण, एण, कुरंग, गोकर्ण, मृगमातृका, शश, शम्बर ( साँभर-बारहसिंगा), चारुष्क तथा शरभ आदि 'मृग' कहे जाते हैं।। ४३ ।।

वक्तव्य—अष्टांगसंग्रह सू. ७।६७-६८ में मृगों की गणना इस प्रकार की गयी है—हरिण, एण, कुरंग, ऋष्य, गोकर्ण (नीलगाय ), मृगमातृका, कालपुच्छक, चारुष्क, वरपोत, शशक, उरण, श्वदंष्ट्र, राम, शरभ ( यह मृग काश्मीर में पाया जाता है, इसके आठ पैर होते हैं), लोहकारक, शम्बर (साँभर), कराल ( कस्तूरीमृग), कृतमाल तथा पृषत ( बिन्दुओं से युक्त त्वचा वाला )। चरक ने ‘मृगा जाङ्गलचारिणः (च.सू. २७।५५ ) कहा है अर्थात् ये जंगल में विचरण करते रहते हैं। शिकारी इन्हें ढूढ़ते हैं, अतएव इन्हें मृग कहा जाता है।

लाववार्तीकवर्तीररक्तवर्मककुक्कुभाः ।
कपिञ्जलोपचक्राख्यचकोरकुरुवाहवः॥४४॥
वर्तको वर्तिका चैव तित्तिरिः क्रकरः शिखी।
ताम्रचूडाख्यबकरगोनर्दगिरिवर्तिकाः ॥ ४५ ॥
तथा शारपदेन्द्राभवरटाद्याश्च विष्किराः।

विष्किर-परिचय–लाव (लवा), वर्तीक (बटेर), रक्तवर्मक, कुक्कुभ, कपिञ्जल, उपचक्र (चकवा ), चकोर, कुरुबाहु, वर्तक (बत्तख ), वर्तिका, तीतर, क्रकर, मोर, ताम्रचूड (मुर्गा), बकर, गोनर्द, गिरिवर्तिका, शारपद, इन्द्राभ तथा वरट नामक पक्षी विष्किर कहे जाते हैं।। ४४-४५ ।।

वक्तव्य-अष्टांगसंग्रह (सू. ७।६९-७१ ) में विष्किर पक्षियों की गणना इस प्रकार की गयी है—लाव, वर्तीक, वातीर, रक्तवर्मक ( गौरैया—गृहचटक), कुक्कुभ ( जंगली मुरगा), कपिञ्जल ( जंगली गौरैया ), उपचक्र ( चकवा ), चकोर, कुरुबाहु, वर्तक (बत्तख ), वर्तिका, तित्तिर, क्रकर (बया), मोर, मुर्गा, वरक (बगुला), गोनर्द, गिरिवर्तिका, शारपद, इन्द्राभ तथा वरटा ( हंस की स्त्री)—ये सभी पक्षी विष्किर कहे जाते हैं।

विष्किर शब्द का अर्थ—पहले दानों के ढेर को पंजों से बिखेर कर बाद में एक-एक दाना चुनकर खाने वाले पक्षियों को 'विष्किर' कहते हैं।

जीवञ्जीवकदात्यूहभृङ्गाह्वशुकसारिकाः॥ ४६॥
लट्वाकोकिलहारीतकपोतचटकादयः। प्रतुदाः-

प्रतुद-परिचय-जीवंजीवक, दात्यूह, भृग या भुंगराज, शुक, सारिका (मैना), लट्वा, कोकिल ( कोयल), हारीत, कपोत (कबूतर ) तथा चटक (गौरैया ) आदि पक्षी प्रतुद कहे जाते हैं।। ४६ ।।

वक्तव्य—अष्टांगसंग्रह सू. ७।७२-७५ में प्रतुद पक्षियों की गणना इस प्रकार है—शतपत्र ( कठफोड़वा), भृगराज, कोयष्टि (जलमुर्गा ), जीवंजीवक, खंजरीट ( खंजन पक्षी); हारीत ( हरियल), दुर्नामारि ( उल्लू), कृशगुह, लट्वा, लडूषक, वटहा, गोक्ष्वेड, डिण्डिमाणक, जटी ( जटायु), दुन्दुभि, पार्कार, लोहपृष्ठ, कलिंगक, सारिका, शुक, शाङ्ग (सारंग ), चिरीटीक, कुयष्टिक, मञ्जरीयक, दात्यूह, गोपापुत्र, प्रियात्मज, कलविंक, कोयल, कबूतर, अंगारचूड़क, पारावत (पेरवा वा जंगली कबूतर ) तथा पाणविक-ये पक्षी 'प्रतुद' कहे जाते हैं। चोंच मारकर दाना चुगने वाले पक्षियों की प्रतुद' संज्ञा है।

विष्किर तथा प्रतुद वर्ग के पक्षी यद्यपि ऊपर अलग-अलग गिनाये गये हैं तथापि दोनों में प्रतुद धर्म समान ही होता है। सम्प्रति ये पक्षी उक्त नामों से अपरिचित से हो चले हैं, इनका परिचय बहेलियों (चिड़ीमारों) से प्राप्त कर लेना चाहिए।

-भेकगोधाहिश्वाविदाद्या बिलेशयाः।। ४७ ।।

बिलेशय-परिचय-भेक ( मेढक), गोह, सर्प तथा साही आदि प्राणी 'बिलेशय' कहे जाते हैं।। ४७।।

वक्तव्य-बिलेशय अर्थात् बिल में रहने वाले। मेढक मिट्टी के भीतर, गोह तथा सर्प का बिल होता ही है, साही के पूरे शरीर पर काँटे रहते हैं, यह बिल बना लेता है अथवा किसी गुफा को अपने लिए ढूँढ लेता है। इसके काँटे धार्मिक कृत्य तथा कृत्या प्रयोग में लिए जाते हैं।

अष्टांगसंग्रह (सू. ७/७६ ) में बिलेशय प्राणियों की गणना इस प्रकार है—श्वेत, श्याम, रंग-बिरंगी पीठ वाला तथा कालक नामक प्राणी मेढक, चिल्लट, कूचीक, गोह, शल्लक, शण्डक ( साँडा), वृष ( जंगली बिलाव), साँप, कदली (पौण्ड्रदेश में पाया जाने वाला प्राणी), श्वाविध (बड़ा साही) तथा नेवला ये बिलेशय प्राणी हैं।

गोखराश्वतरोष्ट्राश्वद्वीपिसिंहर्भवानराः।
मार्जारमूषकव्याघ्रवृकबभ्रतरक्षवः॥४८॥

लोपाकजम्बुकश्येनचाषवान्तादवायसाः।
शशघ्नीभासकुररगृध्रोलूककुलिङ्गकाः।। ४९ ।।
धूमिका मधुहा चेति प्रसहा मृगपक्षिणः।

प्रसह मृग—गाय, गधा, खच्चर, ऊँट, घोड़ा, द्वीपि (चीता), सिंह, भालू, बिलाव, चूहा, बाघ, वृक (भेड़िया), नेवला, तरक्षु ( लकड़बग्घा), लोमड़ी तथा सियार । पक्षी-श्येन (बाज ), चाष (नीलकण्ठ), वान्ताद (कुत्ता), कौआ, चील, भास, कुरर, गिद्ध, उल्लू, कुलिंगक, धूमिक तथा मधुहा नामक पक्षी प्रसह कहे जाते हैं।। ४८-४९ ।।

वक्तव्य—ऊपर ४८वें श्लोक का यह उत्तरार्ध 'चाषवान्तादवायसाः' कुछ खटक रहा है, क्योंकि यहाँ पक्षियों के बीच में कुत्ता का समावेश कर दिया है। यही स्थिति अ.सं.सू. ७/७८ की भी है। वास्तव में वान्ताद की गणना अन्वयविधि से कर भी ली जाती तो यहाँ सम्पूर्ण पंक्ति ही समस्त है, अस्तु। भीड़ में मनुष्य भी इधर-उधर भटक जाते हैं, पशु-पक्षियों का तो कहना ही क्या है ?

वराहमहिषन्यकुरुरुरोहितवारणाः ॥५०॥
सृमरश्चमरः खड्गो गवयश्च महामृगाः।

महामृग-परिचय–सूअर, भैंसा, न्यंकु (बारहसिंगा का भेद), रुरु, रोहित, हाथी, सृमर (हरिण भेद ), चमर, गैंडा तथा गवय ( जंगली गाय ) ये महामृग कहे जाते हैं।। ५० ।।

हंससारसकादम्बबककारण्डवप्लवाः ॥५१॥
बलाकोत्क्रोशचक्राह्वमद्गुक्रौञ्चादयोऽप्चराः ।

जलचर पक्षी-हंस, सारस, कादम्ब, बक (बगुला), कारण्डव, प्लव, बलाका, उत्क्रोश, चकवा, मद्गु ( जलकौआ), क्रौञ्च आदि पक्षी 'जलचर' कहे जाते हैं।॥५१ ।।

रोहितपाठीनकूर्मकुम्भीरकर्कटाः॥५२॥
शुक्तिशङ्खोद्रशम्बूकशफरीवर्मिचन्द्रिकाः।
चुलूकीनक्रमकरशिशुमारतिमिङ्गिलाः॥५३॥
राजीचिलिचिमाद्याश्च-

मत्स्य-परिचय-रोहू, पाठीन, कछुआ, कुम्भीर, केकड़ा, शुक्ति ( सीपी ) का क्रिमि, शंख का क्रिमि, उद्र (जलबिलाव), शम्बूक (घोंघा), शफरी (छोटी जाति की मछली), वर्मी, चन्द्रिका, चुलुकी, नक्र ( घड़ियाल ), मकर, शिशुमार, तिमिगिल ( ह्वेल मछली ), राजी तथा चिलचिम आदि मत्स्यवर्ग में परिगणित हैं।। ५२-५३॥

-मांसमित्याहुरष्टधा।

(मृग्यं वैष्किरिकं किञ्च प्रातुदं च बिलेशयम्।
प्रासहं च महामृग्यमप्चरं मात्स्यमष्टधा ॥१॥)

आठ प्रकार के मांस-१. मृग, २. विष्किर, ३. प्रतुद, ४. बिलेशय, ५. प्रसह, ६. महामृग; ७. जलचर पक्षी तथा ८. मत्स्यवर्ग॥१॥

वक्तव्य—यहाँ ‘जलचर' नाम से कुछ पक्षियों का वर्णन किया गया है, उसके बाद 'मत्स्यमांस' का उल्लेख है। मछलियाँ जलज, जलेचर तथा जलेशय होती हैं; किन्तु इनमें 'चिलचिम' नामक मछली मत्स्या का वर्णन चरक ने इस प्रकार दिया है—‘स पुनः शकली लोहितनयनः सर्वतो लोहितराजी रोहिताकारः प्रायो भूमौ चरति'। (च.सू. २६।८३ ) यह इसकी आकृति का परिचय है और यह प्रायः भूमि में चरती है अर्थात् पानी से हटकर भी जीवित रहती है, यह इसकी विलक्षणता है।

योनिष्वजावी व्यामिश्रगोचरत्वादनिश्चिते॥५४॥

बकरी-भेड़ का वर्णन-बकरी तथा भेड़ की योनि (उत्पत्तिस्थान) के सम्बन्ध में निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये दोनों जांगल तथा आनूप देश में विचरण करती रहती हैं।। ५४।। आद्यान्त्या जाङ्गलानूपा मध्यौ साधारणौ स्मृतौ ।

शेष प्राणियों का निर्णय—शेष मांसयोनियों का निश्चय इस प्रकार है—प्रारम्भ के तीन वर्ग (१. मृग, २.विष्किर, ३. प्रतुद ) जांगल देश के और अन्तिम तीन वर्ग (१. महामृग, २. जलचर पक्षी तथा मत्स्य) आनूप देश के कहे जाते हैं तथा मध्यम दो वर्ग (१. बिलेशय तथा २. प्रसह) वाले दोनों लक्षणों से युक्त साधारण देश के माने जाते हैं।

तत्र बद्धमलाः शीता लघवो जाङ्गला हिताः॥५५॥
पित्तोत्तरे वातमध्ये सन्निपाते कफानुगे।

मांसों का वर्णन-उक्त मांसों में जांगल देश के प्राणियों के मांस मल को बाँधते हैं, शीतवीर्य, पाचन में लघु तथा हितकर होते हैं। ये पित्त-प्रधान, मध्यम वात एवं हीन कफ वाले सन्निपात में हितकारक होते हैं।॥५५॥

दीपनः कटुकः पाके ग्राही रूक्षो हिमः शशः॥५६॥

शशकमांस के गुण-खरगोश का मांस जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला, विपाक में कटु, ग्राही (मल को बाँधने वाला), रूक्ष तथा शीतवीर्य होता है।।५६ ।।

ईषदुष्णगुरुस्निग्धा बृंहणा वर्तकादयः।
तित्तिरिस्तेष्वपि वरो मेधाग्निबलशुक्रकृत् ॥५७॥
ग्राही वर्योऽनिलोद्रिक्तसन्निपातहरः परम् ।

वर्तक आदि के मांस—ये कुछ उष्णवीर्य, पाचन में गुरु, स्निग्ध तथा पुष्टिकारक होते हैं। इन सबमें तीतर का मांस उत्तम होता है, क्योंकि यह धारण करने की शक्ति वाली बुद्धि, बल तथा शुक्र (वीर्य) को बढ़ाता है एवं मल को बाँधता है, मुखमण्डल की कान्ति को बढ़ाता है और वातदोष-प्रधान सन्निपात का विनाशक है।। ५७॥

नातिपथ्यः शिखी पथ्यः श्रोत्रस्वरवयोदृशाम्॥५८॥

मोर का मांस—मोर का मांस अधिक पथ्यकारक नहीं होता, तथापि कर्णेन्द्रिय, स्वरवाही स्रोतस्, व्यस् तथा दृष्टि को स्थिरता प्रदान करता है।। ५८ ।।

तद्वच्च कुक्कुटो वृष्यः--

कुक्कुट का मांस—कुक्कुट का मांस भी मोर के मांस के समान गुण वाला होता है और यह वृष्य (वीर्यवर्धक ) भी होता है।

-ग्राम्यस्तु श्लेष्मलो गुरुः।

पालतू मुर्गा का मांस-ग्राम्य (पालतू ) मुर्गा का मांस वन में होने वाले मुर्गा के मांस से कफकारक तथा गुरु होता है।

मेधाऽनलकरा हृद्याः क्रकराः सोपचक्रकाः॥५९ ॥

क्रकर तथा उपचक्रक के मांस—ये मेधा ( धारणाशक्ति ) को बढ़ाने वाले, जठराग्नि को तेज करने वाले तथा हृदय के लिए हितकारक होते हैं।। ५९।।

गुरुः सलवणः काणकपोतः सर्वदोषकृत्।

काणकपोतक का मांस-जंगली कबूतर का मांस पाचन में गुरु, कुछ नमकीन रस वाला तथा वात आदि तीनों दोषों को उभाड़ने वाला होता है।

चटकाः श्लेष्मलाः स्निग्धा वातघ्नाः शुक्रलाः परम्॥६०॥

चटक का मांस—यह मांस कफकारक, चिकना, वातदोषनाशक तथा शुक्र को अत्यन्त बढ़ाने वाला होता है।६०॥

गुरूष्णस्निग्धमधुरा वर्गाश्चातो यथोत्तरम्।
मूत्रशुक्रकृतो बल्या वातघ्नाः कफपित्तलाः॥६१ ॥

आठों मांसों का वर्णन—उक्त आठों मांस अपने क्रम से उत्तरोत्तर गुरु, उष्ण, चिकने तथा मधुर होते हैं। ये मूत्रवर्धक, शुक्रवर्धक, बलवर्धक, वातनाशक एवं कफ-पित्तकारक होते हैं।। ६१ ।।

शीता महामृगास्तेषु क्रव्यादप्रसहाः पुनः।
लवणानुरसाः पाके कटुका मांसवर्धनाः ।।६२॥
जीर्णा ग्रहणीदोषशोषार्तानां परं हिताः।

महामृगों के मांस-उनमें भी महामृगों के मांस शीतवीर्य होते हैं। क्रव्यादों ( कच्चा मांस खाने वाले प्राणियों) के तथा प्रसहों (जो दूसरे से लूटकर खा जाते हैं, उन ) के मांस कुछ नमकीन स्वाद वाले, विपाक में कटु तथा मांस को बढ़ाने वाले होते हैं। ये पुराने अर्शरोग, ग्रहणीरोग तथा शोष ( राजयक्ष्मा) रोग से पीड़ितों के लिए अत्यन्त हितकारक होते हैं।। ६२ ।।

नातिशीतगुरुस्निग्धं मांसमाजमदोषलम् ।। ६३ ।।
शरीरधातुसामान्यादनभिष्यन्दि बृंहणम्।

बकरा का मांस यह मांस समशीतोष्ण होता है, अतएव कहा गया है कि यह अतिशीत नहीं होता, अतिगुरु एवं अतिस्निग्ध भी नहीं होता; इसीलिए यह किसी दोष-विशेष को नहीं बढ़ाता। यह मनुष्य के शरीर की रस आदि धातुओं के समान होने के कारण अभिष्यन्दी भी नहीं है। यह सभी धातुओं को बढ़ाता है।। ६३ ॥

विपरीतमतो ज्ञेयमाविकं बृंहणं तु तत्॥६४॥

भेड़ का मांस—भेड़ का मांस बकरे के मांस के गुणों से विपरीत गुणों वाला होता है, किन्तु यह भी शरीर की धातुओं को बढ़ाता है।। ६४।।

शुष्ककासश्रमात्यग्निविषमज्वरपीनसान् ।
कार्य केवलवातांश्च गोमांसं सन्नियच्छति ॥६५॥

गाय का मांस-गाय के मांस का सेवन करने से सूखी खाँसी, श्रम (थकावट), अत्यग्नि ( भस्मक रोग ), विषमज्वर, पीनस, कृशता तथा केवल (शुद्ध ) वातरोगों का विनाशक होता है।। ६५ ।।

वक्तव्य—सुश्रुत ने गोमांस के गुणों में एक गुण 'पवित्र' भी दिया है, जो विचारणीय है। देखें—सु. ४६१८९ । चरक ने भी प्रायः उक्त गुणों का ही वर्णन किया है। देखें—च.सू. २७/७९ । किन्तु इन्होंने ‘गोमांस मृगमांसानाम्' (च.सू. २५।३९) कहकर सभी मृगमांसों में इसे अधिक अपथ्य कहा है और वाग्भट ने भी 'निन्दितो गौः' (अ.सं.सू. ७।१०८ ) कहकर अपना अभिप्राय प्रकट किया है।

उष्णो गरीयान्महिषः स्वप्नदाढर्यबृहत्त्वकृत् ।

भैंसा का मांस—यह अत्यन्त उष्ण, अत्यन्त गुरु, पर्याप्त नींद लाने वाला, शरीर को दृढ़ वाला तथा पुष्टिकारक होता है।

तद्वद्वराहः श्रमहा रुचिशुक्रबलप्रदः॥६६॥

सूअर का मांस—सूअर का मांस भी भैंसे के मांस के समान गुण-धर्म वाला होता है। यह शारीरिक पकावट को दूर करता है, भोजन के प्रति रुचि को बढ़ाता है, वीर्यवर्धक तथा बलप्रद होता है।। ६६ ।।

मत्स्याः परं कफकराः-

मत्स्य का मांस—सभी प्रकार की मछलियों का मांस अत्यन्त कफकारक होता है।

-चिलिचीमस्त्रिदोषकृत्।

चिलचिममत्स्य का मांस-चिलचिम नामक मछली का मांस त्रिदोषकारक होता है।

वक्तव्य-पक्षियों में चमगादड़ और मछलियों में चिलचिम जब जिधर मौका लगता है, उधर के हो जाते हैं। चमगादड़ पंख होने के कारण पक्षियों में और दाँत होने के कारण मृग आदि पशुओं में सम्मिलित हो जाता है। इसी प्रकार चिलचिम जलचर तथा थलचरों में सम्मिलित हो जाता है। ऐसे लोगों के चरित्र व्या गुण-धर्म दूषित होते ही हैं।

लावरोहितगोधैणाः स्वे स्वे वर्गे वराः परम् ॥ ६७॥

लाव आदि का वर्णन—अपने-अपने वर्ग में इन प्राणियों के मांस उत्तम माने गये हैं, होते भी हैं। यथा—विष्किर वर्ग में 'लाव' पक्षी का मांस, मत्स्य वर्ग में 'रोहित मछली' का मांस, बिलेशय वर्ग में गोधा (गोह) का मांस और मृगवर्ग में ‘एण' (हरिण ) का मांस ।। ६७।।

वक्तव्य—अनूप देशवासी अथवा नदियों के तटवर्ती वे लोग जो सदा अन्न के स्थान पर मछलियों का ही आहार करते हैं। वे अपने को मांसाहारी स्वीकार नहीं करते। वे इन्हें फल या शाक के रूप में स्वीकार करते हैं और मछलियों को वे 'जलतोरई' संज्ञा देते हैं।

मांसं सद्योहतं शुद्धं वयःस्थं च भजेत्-

भक्ष्य मांस-वर्णन तत्काल मारे गये, जवान प्राणी के शुद्ध ( साफ किये गये) मांस का सेवन करना चाहिए।

—त्यजेत्। मृतं कृशं भृशं मेद्यं व्याधिवारिविषैर्हतम् ।। ६८॥

अभक्ष्य मांस-वर्णन—स्वयं मरे हुए, अत्यन्त कृश हो, जो मृत प्राणी अधिक मेदस्वी हो या रोग-विशेष के कारण मरा हुआ हो, जल में डूबने से मरे प्राणी के अथवा विष के कारण जो मरा हो, ऐसे प्राणियों के मांसों का सेवन नहीं करना चाहिए।। ६८.।।

वक्तव्य—गाय के मांस को बेचने वाला बूचड़ तथा अन्य सभी प्रकार के मांसों को बेचने वाला कसाई कहा जाता है। अथवा ये दोनों ही कसाई हैं। ये भक्ष्य (हितकर), अभक्ष्य (अहितकर ) दोनों प्रकार के मांसों को बेचते हैं। अतः मांसभक्षण करने वाले सावधान रहें। रोगी प्राणियों का मांस खा लेने में खाने वाले व्यक्ति को वे सभी रोग हो जाते हैं जिनके कारण उस प्राणी की मृत्यु हुई थी। प्रायः ये मनविक्रेता बीमार पशुओं को सस्ते दामों में खरीद कर उन्हें मारकर उनका मांस बेच दिया करते हैं।

पुंस्त्रियोः पूर्वपश्चार्धे गुरुणी, गर्भिणी गुरुः।
लघुर्योषिच्चतुष्पात्सु, विहङ्गेषु पुनः पुमान् ॥ ६९ ॥
शिरःस्कन्धोरुपृष्ठस्य कट्याः सक्थ्नोश्च गौरवम् ।
तथाऽऽमपक्वाशययोर्यथापूर्वं विनिर्दिशेत् ॥
शोणितप्रभृतीनां च धातूनामुत्तरोत्तरम्।
मांसाद्गरीयो वृषणमेवृक्कयकृद्गुदम् ।।७१॥

इति मांसवर्गः।

विशिष्ट अवयवों के मांस—पुरुषों के शरीर के पूर्वार्ध भाग का और स्त्रियों के शरीर के उत्तरार्ध भाग का मांस गुरु होता है। गर्भिणी स्त्री का मांस भी गुरु होता है। चौपायों में पुरुष प्राणी की तुलना में स्त्रियों का मांस अधिक गुरु होता है। इसके विपरीत पक्षियों में स्त्री से पुरुष पक्षी का मांस अधिक गुरु होता है। यहाँ तक स्त्री-पुरुष के शरीर के अवयवों के मांस की गुरु-लाघव चर्चा हो गयी। अब शरीर के अवयवों की चर्चा प्रस्तुत है। सिर, कन्धे, ऊरुओं, पीठ, कमर, टाँगों, आमाशय तथा पक्वाशय का मांस पूर्व-पूर्व अर्थात् अन्तिम से पहला, फिर उससे पहला—इस क्रम से गुरु होता है और रक्त आदि धातु भी उत्तरोत्तर गुरु होते हैं। यथा रक्त से मांस गुरु होता है। मांस से भी अधिक गुरु वृषण ( अण्डकोष ), मेढ़ ( पुरुष की मूत्रेन्द्रिय ), वृक्क (गुरदे), यकृत् तथा गुदभाग का मांस उत्तरोत्तर गुरु होता है।। ६९-७१॥

वक्तव्य—इस वर्ग में मांसधातु के गुण-दोषों का विवेचन किया गया है। यह सम्पूर्ण सृष्टि गुण-दोषमयी है। ‘मांसान्मांसं प्रवर्द्धते' अर्थात् मांस खाने से मांस बढ़ता है। ऐसा देखा भी जाता है, यह शास्त्रवचन भी है। ऐसा भी नहीं कि मांस खाने वाले ही हृष्ट-पुष्ट होते हों, शाकाहारी भी स्वस्थ, हृष्ट तथा प्रसत्र रहते ही हैं। मांसभक्षण सिंह आदि प्राणियों का धर्म है। प्राणियों में सद्भावना रखने के क्षेत्र में अहिंसा का प्रमुख स्थान है, अस्तु। मांसभक्षण जिह्वा के स्वाद का 'मिथ्यायोग' है। इन्द्रियों का वशीभूत मानव सत्-असत् सभी कर्मों को करता है। वास्तव में यह आयुर्वेद किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष का न होकर मानव मात्र को स्वास्थ्य-सन्देश देने वाला एक प्रमुख शास्त्र है।

अथ शाकवर्गः

शाकं पाठाशठीसूषासुनिषण्णसतीनजम्।
त्रिदोषघ्नं लघु ग्राहि सराजक्षववास्तुकम् ॥७२॥

शाकों का वर्णन-अब यहाँ से कतिपय शाकों का वर्णन किया जा रहा है—पाठा, शठी ( कचूर), सूषा (कासमर्द या कसौदी), सुनिषण्ण (चौपतिया), सतीनज (तीनी), राजक्षव (नकछिकनी ) तथा बथुआ—ये सभी शाक त्रिदोषनाशक, लघु एवं ग्राही होते हैं।। ७२ ।।

वक्तव्य- ऊपर संक्षेप से कतिपय शाकों का वर्णन किया गया है, इसके आगे प्रायः उन्हीं का स्वतन्त्र रूप में विस्तार से वर्णन किया है। शाकभेद-१. पत्र, २. पुष्प, ३. फल, ४. नाल, ५. कन्द और ६. संस्वेदज—इस प्रकार शाकों के छ: भेद होते हैं। ये उत्तरोत्तर एक-दूसरे से गुरु होते हैं, शास्त्रों में शाकों की निन्दा लिखी है। यथा— 'शाकेन रोगा वर्धन्ते' (चा. नीति ) और यह भी कहा है—ये विष्टम्भी, गुरुपाकी, रूक्ष आदि भी होते हैं। फिर भी ये प्रतिदिन खाये जाते हैं, अतः इन्हें सामान्य वचन समझना चाहिए अर्थात् इनका अधिक सेवन न करें।

सुनिषण्णोऽग्निकृवृष्यस्तेषु-

सुनिषण्णक का वर्णन—-सुनिषण्णक ( चौपतिया) का शाक उक्त सभी शाकों में अग्निवर्धक तथा वीर्यवर्धक होता है।

वक्तव्य—इस शाकवर्ग में कहे गये सभी शाकों के पर्याय निघण्टु-ग्रन्थों में देखें।

-राजक्षवः परम् । ग्रहण्यर्चाविकारघ्नः-

राजक्षव का वर्णन—राजक्षव (नकछिकनी) का शाक ग्रहणीरोग तथा अर्शोरोग का नाश करने वाले शाकों में उत्तम होता है।

-वर्चोभेदि तु वास्तुकम्॥७३॥

वास्तुक का वर्णन—वास्तुक (बथुआ) का शाक बँधे हुए मल का भेदन कर निकालने में उत्तम होता है।। ७३ ॥

हन्ति दोषत्रयं कुष्ठं वृष्या सोष्णा रसायनी।
काकमाची सरा स्वर्या

काकमाची का वर्णन—काकमाची (मकोय की पत्तियों) का शाक तीनों दोषों का शमन करने
वाला, कुष्ठरोग का विनाशक, वीर्यवर्धक, कुछ उष्णवीर्य, रसायन गुणों से युक्त, सर ( मल को सरकाने
वाला) तथा स्वरयन्त्र के लिए हितकर होता है।

-चाङ्गेर्यम्लाऽग्निदीपनी ।।७४॥
ग्रहण्यर्थोऽनिलश्लेष्महितोष्णा ग्राहिणी लघुः।

चांगेरी (तिपतिया) का शाक—यह स्वाद में अम्ल, अग्निवर्धक, ग्रहणीरोग, अर्शोरोग, वातविकार तथा कफविकार नाशक होता है। यह उष्णवीर्य, मल को बाँधने वाला और लघु (शीघ्र पचने वाला) होता है।। ७४॥

वक्तव्य-सुनिषण्णक और चांगेरी के आकार में क्रमश: चार पात और तीन पात का अन्तर है, ये दोनों पत्रशाक हैं।

पटोलसप्तलारिष्टशाङेष्टावल्गुजाऽमृताः ॥७५॥
वेत्राग्रबृहतीवासाकुतिलीतिलपर्णिकाः।
मण्डूकपर्णीकर्कोटकारवेल्लकपर्पटाः॥७६ ।।
नाडीकलायगोजिह्वावार्ताकं वनतिक्तकम्।
करीरं कुलकं नन्दी कुचैला शकुलादनी ॥ ७७ ॥
कटिल्लं केम्बुकं शीतं सकोशातककर्कशम्।
तिक्तं पाके कटु ग्राहि वातलं कफपित्तजित् ।। ७८॥

पटोल आदि शाक—पटोल ( परवल), सप्तला ( सातला), अरिष्ट ( नीम ), शार्गेष्टा ( काकतिक्ता चक्रपाणि), अवल्गुजा (बाकुची के पत्ते, फलियाँ तथा बीज ), अमृता ( गिलोय या गुरुच के पत्ते ), वेत्राग्र (बेंत के नये अंकुर ), बृहती (वनभण्टा), वासा ( अडूसा), कुन्तली (छोटा तिल-विशेष का पौधा ), तिलपर्णिका, मण्डूकपर्णी ( ब्राह्मीभेद के पत्ते ), कर्कोट (ककोड़ा का फल ), कारवेल्लक (करेला ), पर्पट (पितपापड़ा), नाड़ी (नाड़ीशाक), कलाय ( मटर ), गोजिह्वा ( गाजवाँ), वार्ताक (बैंगन ), वनतिक्तक (पथ्यसुन्दर अर्थात् हरीतिकी-चक्र.टी.च.सू. २७।९५), करीर (कैर के फल या बाँस के अंकुर ), कुलक (छोटा जंगली करैला ), नन्दी ( पारसपीपल के पत्ते ), कुचैला ( काली पाठा), शकुलादनी (कुटकी), कठिल्ल ( दीर्घपत्रा पुनर्नवा ), केम्बुक ( करेमू ), कोशातक ( कृतबेधन तरोई ) और कर्कश ( स्वल्पकर्कोटकः -चक्र. कबीला के पत्र )—ये द्रव्य शीतवीर्य, स्वाद में तिक्त, पाक में कटु हैं, मल को बाँधने वाले हैं, वातकारक, कफ तथा पित्त दोषशामक हैं।। ७५-७८ ।।

वक्तव्य-ऊपर जिन २८ शाकों के नाम गिनाये गये हैं, उनमें अनेक परिचय की दृष्टि से विवादास्पद हैं, अतएव कोई टीकाकार किसी द्रव्य का कोई पर्याय दे रहा है तो कोई कुछ। यह विवाद औषधद्रव्य-विशेषज्ञों के सामूहिक निर्णय की अपेक्षा रखता है। विशेषज्ञ भी वे हों जो पूर्वाग्रह या दुराग्रह से ग्रस्त न हों, क्योंकि विगृह्यसम्भाषा से निर्णीत विषय सिद्धान्त रूप में परिणत नहीं हो पाते। ऐसा ही एक द्रव्य है—वनतिक्तकम् । आचार्य चक्रपाणि इसे पथ्यसुन्दरम्, श्री अरुणदत्त वत्सकः, श्री हेमाद्रि किराततिक्तम्, शब्दमाला—हरीतकी, वैद्यकनि०—लोध्रवृक्ष तथा रत्नमाला—वनतिक्तायां, पाठायाम्। इसी प्रकार अन्य अनेक द्रव्य हैं।

हृद्यं पटोलं कृमिनुत्स्वादुपाकं रुचिप्रदम् ।

परवल का शाक—यह हृदय के लिए हितकारक, क्रिमिनाशक, पाक में मधुर तथा भोजन के प्रति रुचि ( इच्छा ) को उत्पन्न करता है।

पित्तलं दीपनं भेदि वातघ्नं बृहतीद्वयम् ॥ ७९ ॥

बृहतीद्वय का वर्णन--वनभण्टा तथा कण्टकारी के फलों का शाक पित्तवर्धक, जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला, मलभेदक तथा वातनाशक होता है।। ७९ ।।

वृषं तु वमिकासघ्नं रक्तपित्तहरं परम्।

अडूसा का वर्णन—अडूसा के पत्तों का शाक वमन, कास ( खाँसी) तथा रक्तपित्तरोग का नाश करने में उत्तम होता है।

कारवेल्लं सकटुकं दीपनं कफजित्परम्॥८॥

करेला का शाक—यह कुछ कटु ( तिक्तरस युक्त), अग्निदीपक तथा कफनाशक द्रव्यों में उत्तम है।।८०॥

वक्तव्य-लोलिम्बराज ने करेला का आलंकारिक वर्णन किया है। देखें—वैद्यावतंस।

वार्ताक कटु तिक्तोष्णं मधुरं कफवातजित्।
सक्षारमग्निजननं हृद्यं रुच्यमपित्तलम् ।। ८१ ।।

बैगन का शाक—यह दो प्रकार का होता है—१. कटु तथा तिक्त, २. मधुर। दोनों प्रकार के बैगन उष्णवीर्य, कफ तथा वात नाशक होते हैं। इनमें कुछ क्षार अंश भी होता है। ये जठराग्नि को बढ़ाने वाले, हृदय के लिए हितकर, रुचिकारक तथा कुछ पित्तकारक भी होते हैं।। ८१ ।।

वक्तव्य—'अपित्तलम्'–यहाँ पित्त शब्द के साथ जो नसमास किया गया है, वह 'ईषत्' अर्थ में है, ऐसा समझना चाहिए। श्रीहेमाद्रि कहते हैं—'अपित्तलत्वं बालपक्वयतिरेकेण'। यहाँ श्रीहेमाद्रि ने सुश्रुतसम्मत व्याख्यान किया है। देखें—'जीर्णं सक्षारपित्तलम्'। (सु.सू. ४६।२६९ )

करीरमाध्मानकर कषायं स्वादु तिक्तकम् ।

करीर का शाक—यह आध्मान( अफरा )कारक होता है, रस में कषाय, मधुर तथा तिक्त होता है। कोशातकावल्गुजको भेदिनावग्निदीपनौ।। ८२॥

तोरई तथा बाकुची का शाक—ये दोनों बँधे हुए मल का भेदन करने वाले तथा अग्निदीपक होते हैं।। ८२॥

तण्डुलीयो हिमो रूक्षः स्वादुपाकरसो लघुः।
मदापेत्तविषास्रघ्नः-

तण्डुलीय (चौलाई) का शाक—यह शीतवीर्य, रूक्ष, रस तथा पाक में मधुर एवं लघु होता है। यह मदविकार (मदात्यय), पित्तविकार, विषविकार तथा रक्तविकार (विशेषकर रक्तप्रदर) का विनाश करता है।

-मुञ्जातं वातपित्तजित्॥८३॥
स्निग्धं शीतं गुरु स्वादु बृंहणं शुक्रकृत्परम् ।

मुजातक (कन्द-विशेष) का शाक—यह वात तथा पित्तविकारों का नाशक होता है; स्निग्ध, शीत, गुरु, स्वाद में मधुर, शरीर को पुष्ट करने वाला तथा शुक्रवर्धक होता है।। ८३ ।।

गुर्वी सरा तु पालङ्कया-

यह गुरु होने के कारण देर में पचता है तथा मलभेदक होता है। देशभेद से इसका स्वादभेद भी देखा जाता है।

-मदनी चाप्युपोदका ॥८४॥

उपोदिका (पोई) का शाक—यह भी गुरु एवं सर गुणों से युक्त होती है तथा मद का नाश भी करती है।॥४॥

पालङ्कयावत्स्मृतश्चञ्चुः स तु सङ्ग्रहणात्मकः।

चञ्चु का शाक-इसके सामान्य गुण पालक के समान होते हैं। इसका विशेष गुण है—ग्राही होना।

पालक का शाक-

वक्तव्य-करीर या करील को 'क्रकरीपत्र' भी कहा गया है। यह अन्य वृक्षों की भाँति बहुत पत्तों वाला नहीं होता, तथापि इसकी नवीन शाखाओं में विरल पत्ते होते हैं। निघण्टुकारों ने इसे 'मरुभूरुह कहा है। इसकी कली तथा फलों का अचार भी बनता है। औषधीय उपयोग में इसकी कली, फल एवं छाल लिये जाते हैं। मुजातक—एक कन्द-विशेष का नाम है, इसके गुण राजनिघण्टु में देखें। इसके अभाव में तालमज्जा का प्रयोग किया जाता है। सु.सू. ३९।९ में कफनाशक द्रव्यों में इसका भी परिगणन किया गया है।

विदारी वातपित्तघ्नी मूत्रला स्वादुशीतला ॥८५॥
जीवनी बृंहणी कण्ठ्या गुर्वी वृष्या रसायनम् ।

विदारी( बिलाई )कन्द—यह वात-पित्तनाशक, मल-मूत्र को निकालने वाला, स्वाद में मधुर, शीतवीर्य, जीवनीय शक्ति को देने वाला, स्वास्थ्यवर्धक, कण्ठ के लिए हितकर, पाचन में गुरु, वीर्यवर्धक तथा रसायन होता है।।८५॥

वक्तव्य—इसकी सुदीर्घ लताएँ होती हैं, उनकी जड़ों में गाँठ के रूप में यह कन्द पाया जाता है। छिलका उतारने पर दूध जैसा सफेद द्रव इसमें से निकलता है। यह खाने में आरम्भ में अत्यन्त मधुर अन्त में कुछ कसैलापन इसमें पाया जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में यह जाड़े का मेवा है। वर्षभर के बाद इनका स्वाद वैसा नहीं रह जाता।

चक्षुष्या सर्वदोषघ्नी जीवन्ती मधुरा हिमा॥८६॥

जीवन्ती का शाक—यह दृष्टि के लिए हितकर, त्रिदोषनाशक, मधुर तथा शीतवीर्य है।। ८६ ।।

कूष्माण्डतुम्बकालिङ्गकर्कार्वेर्वारुतिण्डिशम्।
तथा त्रपुसचीनाकचिर्भटे कफवातकृत् ॥८७ ॥
भेदि विष्टम्भ्यभिष्यन्दि स्वादुपाकरसं गुरु ।

कूष्माण्ड आदि का वर्णन कूष्माण्ड ( कोहड़ा, पेठा ), तुम्ब ( जिसकी साधु लोग तुम्बी या कमण्डलु बनाते हैं), कालिंग (तरबूज ), कर्कारु ( खरबूजा ), उर्वारु (ककड़ी या खीरा ), तिण्डिश ( टिंडे ), त्रपुस (बड़ा खीरा), चीनाक (चीना ककड़ी ) और चिर्भट (फूट)—ये सभी कफकारक, वातकारक, मलभेदक, विष्टम्भी, अभिष्यन्दी, विपाक तथा रस में मधुर एवं गुरु होते हैं।। ८७ ।।

वल्लीफलानां प्रवरं कूष्माण्डं वातपित्तजित् ॥ ८८॥
बस्तिशुद्धिकरं वृष्यम्-

कूष्माण्ड (कोहड़ा) के गुण-लताओं में फलने वाले उक्त सभी फलों में कूष्माण्ड उत्तम माना गया है। यह वात तथा पित्त विकार का शमन करता है, बस्ति (मूत्राशय) को शुद्ध करता है और वीर्य को बढ़ाता है।। ८८॥

-त्रपुसं त्वतिमूत्रलम्।

त्रपुस का वर्णन—त्रपुस ( बड़ा खीरा ) कूष्माण्ड आदि से अधिक मूत्रकारक होता है।

तुम्बं रूक्षतरं ग्राहि कालिङ्गैर्वारुचिर्भटम् ॥८९॥
बालं पित्तहरं शीतं विद्यात्पक्वमतोऽन्यथा।

तुम्ब या तुम्बा (गोल लौआ या लौकी) तरबूज, ककड़ी, फूट ये सब अत्यन्त रूक्ष तथा मल को बाँधने वाले होते हैं। ऊपर कहे गये फल जब तक बाल (मुलायम ) रहते हैं तब तक इनका गुण पित्तनाशक होता है और ये शीतवीर्य होते हैं। जब ये पक जाते हैं, तब पित्तकारक एवं उष्णवीर्य हो जाते हैं।। ८९॥

शीर्णवृन्तं तु सक्षारं पित्तलं कफवातजित् ।।९० ॥
रोचनं दीपनं हृद्यमष्ठीलाऽऽनाहनुल्लघु ।

शीर्णवृन्त-फलशाक-शीर्णवृन्त ( जो शाकफल अपने डण्ठल से अलग हो गया हो) शाक कुछ खारापन, पित्तकारक, कफदोष तथा वातदोष का विनाशक, रुचिकारक, जठराग्निदीपक तथा हृदय के लिए हितकर होता है। यह वाताष्ठीला तथा आनाह ( अफरा ) रोगों का विनाशक एवं लघु होता है।। ९० ।।

वक्तव्य—यहाँ 'शीर्णवृन्त' शब्द से भलीभाँति पके हुए फल का ग्रहण करना चाहिए। जैसा कि सुश्रुत ने कहा है—'शुक्लं लघूष्णं सक्षारं दीपनं बस्तिशोधनम्' (सु.सू. ४६।२१३ ) श्री अरुणदत्त अपनी व्याख्या में कहते हैं—'शीर्णवृन्तं' = कर्चुरम्।

शीर्णवृन्त—यहाँ इस नाम से एक शाक-विशेष का वर्णन किया गया है। 'वृन्त' शब्द का प्रयोग—फल तथा वृक्ष या लता से जुटे हुए भाग को डण्ठी या डण्ठल कहते हैं। शीर्ण का अर्थ है—गला हुआ। प्रायः सब फलों के वृन्त पकने पर गल या झड़ जाते हैं, किन्तु लाल कुम्हड़ा या सीताफल या कद्दू नाम का एक लताफल ऐसा होता है, जिसका वृन्त पकने पर भी अलग नहीं होता। इसे अंग्रेजी में Red gourd कहते हैं, इसका अर्थ लाल कुम्हड़ा होता है। वाग्भट ने श्लोक ८८ में जिस कूष्माण्ड का वर्णन किया है, वह 'पेठे की मिठाई' वाला है।

मृणालबिसशालूककुमुदोत्पलकन्दकम् ॥९१॥
नन्दीमाषककेलूटशृङ्गाटककसेरुकम्।
क्रौञ्चादनं कलोड्यं च रूक्षं ग्राहि हिमं गुरु ।।९२ ॥

मृणाल आदि का वर्णन-मृणाल (कमलनाल), बिस (कमल की जड़ = भसींडा ), शालूक (कमलकन्द), कुमुद (कुई ) एवं उत्पल के कन्द, नन्दी (तुण्डिकेरी), माषक (वास्तुल), केलूट ( किस्मक नामक उदुम्बर भेद ), शृंगाटक (सिंघाड़ा), कसेरू, क्रौञ्चादन (मृणाल, पिप्पली, धेञ्चुलक, चिञ्चोटक) और कलोड्य (पद्मबीज) ये सभी द्रव्य रूक्ष, ग्राही (मल को बाँधने वाले), शीतवीर्य एवं गुरु ( देर से पचने वाले) होते हैं।।९१-९२ ।।

कलम्बनालिकामार्षकुटिजरकुतुम्बकम् ।
चिल्लीलट्वाकलोणीकाकुरूटकगवेधुकम् ।।९३॥
जीवन्तझुञ्झ्वेडगजयवशाकसुवर्चलाः।
आलुकानि च सर्वाणि तथा सूप्यानि लक्ष्मणम् ॥९४॥
स्वादु रूक्षं सलवणं वातश्लेष्मकरं गुरु।
शीतलं सृष्टविण्मूत्रं प्रायो विष्टभ्य जीर्यति ।।९५।।
स्विन्नं निष्पीडितरसं स्नेहाढ्यं नातिदोषलम् ।

कलम्ब आदि का वर्णन—कलम्ब ( कदम्ब या करेमू), नालिका (नालीशाक), मार्ष ( मरसा), कुटिञ्जर ( ताम्रमूलक या तन्दुलक), कुतुम्बक (द्रोणपुष्पी—गूमा ), चिल्ली (क्षारपत्रक शाक, लाल बथुआ), लट्वाक (गुग्गुलशाक), लोणीका ( लोणार, सलूनक, कुलफा ), कुरूटक (स्थितिवारक, शितिवारी ), गवेधुक (तृणधान्य), जीवन्त ( जीवन्ती), झुञ्झु (चुच्चू ), ऐडगज (चकवड़), यवशाक ( छोटे पत्तों वाली चिल्ली या जौ के कोमल पत्ते ), सुवर्चल (हुलहुल), सभी प्रकार के आलू, सभी प्रकार के वे अन्न जिनकी दालें बनायी जाती हैं ( जैसे—चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर, कुलथी आदि) और लक्ष्मण (मुलेठी के पत्ते)-उपर्युक्त सभी शाक स्वाद में मधुर, रूक्ष, लवणरस युक्त, वात तथा कफ कारक, देर में पचने वाले, शीतवीर्य, मल-मूत्र निकालने वाले और प्रायः ये देर से पचते हैं। यदि इन्हें उबाल कर इनका रस निचोड़ कर घी या तेल में भलीभाँति पूँज लिया जाता है, तो ये दोषकारक नहीं होते।।९३-९५ ।।

लघुपत्रा तु या चिल्ली सा वास्तुकसमा मता ॥९६ ॥

चिल्लीशाक का वर्णन—चिल्ली नामक शाक दो प्रकार का होता है—१. बड़े पत्तों वाला तथा २. छोटे पत्तों वाला। इनमें से दूसरे के गुण-धर्म बथुआ के समान होते हैं ।। ९६ ।।

तर्कारीवरुणं स्वादु सतिक्तं कफवातजित् ।

तर्कारी आदि शाक का वर्णन—तर्कारी (अरणी ) तथा वरणा के कोमल पत्तों एवं फलों का शाक स्वाद में मधुर, कुछ तीतापन युक्त होता है। ये दोनों कफदोष तथा वातदोष नाशक होते हैं।

वर्षाभ्वौ कालशाकं च सक्षारं कटुतिक्तकम् ॥९७॥
दीपनं भेदनं हन्ति गरशोफकफानिलान् ।

पुनर्नवा एवं कालशाक—दोनों प्रकार की ( छोटी तथा बड़ी ) पुनर्नवाओं का तथा कालशाक (काला मरसा का शाक) कुछ खारा, स्वाद में कुछ कटु एवं कुछ तिक्त रस वाला होता है। ये दोनों शाक जठराग्नि को प्रदीप्त करते (सुलगाते ) हैं, मल का भेद करके उसे निकालते हैं। दूषीविष, शोफ ( सूजन ), कफदोष तथा वातदोष का विनाश करते हैं।। ९७।।

दीपनाः कफवातघ्नाश्चिरिबिल्वाङ्कुराः सराः॥९८॥

करज का शाक—करंज के कोमल पत्तों या अंकुरों का शाक जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला कफ एवं वात नाशक होता है और मल की रुकावट को दूर करता है।। ९८ ।।

शतावर्यङ्कुरास्तिक्ता वृष्या दोषत्रयापहाः।

शतावरी के अंकुरों का शाक—यह स्वाद में हलका तिक्तरस वाला, वीर्यवर्धक तथा तीनों दोषों का विनाशक होता है।

वक्तव्य-शतावरी या शतावर वृष्य (वीर्यवर्धक ) औषधों में उत्तम है। नैनीताल तथा अलमोड़ा आदि पर्वतीय क्षेत्रों में यह पर्याप्त रूप में पायी जाती है। इसके अंकुरों को पर्वतीय भाषा में 'कैंरुआ' कहा जाता है। ये चैत्रमास के अन्तिम दिनों से आषाढ़ तक अधिक मात्रा में निकलते रहते हैं। आरम्भ में ये दो-चार दिनों तक सुकोमल होते हैं। इनका संग्रह कर छोटे-छोटे टुकड़े काटकर सब्जी बना ली जाती है। इसे रोटी के साथ खाया जाता है। यह पौष्टिक तथा रुचिवर्धक होती है। यह अंकुरशाक है। रूक्षो वंशकरीरस्तु विदाही वातपित्तलः ॥९९ ॥

वंशकरीर का शाक—बाँस के नये अंकुर का शाक-शतावरी के अंकुरों की भाँति बाँस के भी अंकुर निकलते हैं, इनका भी शाक, आचार तथा मुरब्बा बनाया जाता है। नेपाल में इसके आचार का अत्यन्त प्रचार है, वहाँ इसे 'तामा' कहते हैं। इसके गुण—यह रूक्ष, विदाहकारक तथा वातपित्तकारक होता है।।९९॥

पत्तूरो दीपनस्तिक्तः प्लीहार्शःकफवातजित्।

पत्तूर (मछेछी) का शाक—यह अग्निदीपक, स्वाद में तिक्त, कफ तथा वात दोष का नाशक है। यह प्लीहाविकार तथा अर्शोरोग को शान्त करता है।

कृमिकासकफोत्क्लेदान् कासमर्दो जयेत्सरः।।१०० ॥

कासमर्द (कसौंदी) का शाक—यह क्रिमिरोग, कासरोग, कफज विकार तथा उत्क्लेद (शरीर में उत्पन्न गीलेपन ) को जीत लेता है। यह मलभेदक है॥१०॥

रूक्षोष्णमम्लं कौसुम्भं गुरु पित्तकरं सरम्।

कुसुम्भ का शाक-कुसुम्भ ( कुसुम ) के पत्तों का शाक रूक्ष, उष्णवीर्य, अम्ल, गुरु ( देर से पचने वाला), पित्तकारक तथा सर (रेचक ) होता है।

गुरूष्णं सार्षपं बद्धविण्मूत्रं सर्वदोषकृत् ॥१०१ ॥

सरसों के पत्तों का शाक—यह पाचन में गुरु, उष्णवीर्य, स्वाद में कुछ अम्ल, पाचन में मल-मूत्र की प्रवृत्ति में रुकावट डालने वाला तथा त्रिदोषकारक होता है।। १०१ ।।

वक्तव्य—साहित्यदर्पणकार श्रीविश्वनाथ ने भी सर्षपशाक की प्रशंसा की है, परन्तु यह भी कह दिया है कि इसे ग्राम्य लोग बड़े चाव से खाते हैं—'तरुणं सर्षपशाकं' इत्यादि। इसे पंजाब में बड़े आदर के साथ खाया जाता है, अन्यत्र भी लोग खाते ही हैं।

यद्वालमव्यक्तरसं किञ्चित्क्षारं सतिक्तकम् ।
तन्मूलकं दोषहरं लघु सोष्णं नियच्छति ॥१०२॥
गुल्मकासक्षयश्वासव्रणनेत्रगलामयान् ।
स्वराग्निसादोदावर्तपीनसांश्च-

बालमूली का शाक-जो मूली कच्ची (रूढ़ न हुई हो) वह अव्यक्त रस वाली या कुछ खारापन तथा तीतापन लिये होती है। वह तीनों दोषों का नाश करती है, लघु तथा कुछ उष्णवीर्य वाली होती है। मूली गुल्म, कास, क्षय, श्वास, व्रण, नेत्रविकार, कण्ठविकार (स्वरभेद आदि), ज्वररोग, अग्निमान्द्य, उदावर्त तथा पीनस रोगों को नष्ट करती है।।१०२।।

-महत्पुनः॥१०३।।
रसे पाके च कटुकमुष्णवीर्यं त्रिदोषकृत् । गुर्वभिष्यन्दि च-

वृद्धमूली का शाक—बड़ी मूली रस एवं विपाक में कटु, उष्णवीर्य, त्रिदोषकारक, देर में पचने वाली तथा अभिष्यन्दी होती है।।१०३।।

-स्निग्धसिद्धं तदपि वातजित्॥१०४॥

स्नेहसिद्ध मूली का शाक—यदि बड़ी मूली को घी में भलीभाँति पका लिया जाय तो यह वातनाशक होती है।।१०४॥

वक्तव्य-आकृतिभेद से मूली दो प्रकार की होती है—१. गोल तथा २. लम्बी। लम्बी मूली भी छोटी-बड़ी भेद से दो प्रकार की होती है—१. लघुमूलक और २. नेपालमूलक। ये भी नयी एवं पुरानी भेद से पुनः दो प्रकार की होती है। गर्मियों में मिलने वाली मूली स्वाद में कटु होती है, जाड़ों में होने वाली मूली मधुर होती है। इसे नमक-मिरच लगाकर खाया जाता है। कच्ची मूली का शाक भी बनाया जाता है और सलाद के रूप में कच्चा भी खाया जाता है। इसी के भेद हैं—गाजर, चुकन्दर, सलजम आदि।

मौसम में मूली को काट कर सुखा लिया जाता है। बाद में पानी में भिगाकर इसका भी शाक के लिए प्रयोग होता है। यह सब वर्णन किसी भी जाति की बालमूली का है। जब यह रूढ़ हो जाती है, इसके भीतर जाली पड़ जाती है और बाहर का भाग कड़ा हो जाता है तब यह अग्राह्य हो जाती है। इसके विशेष गुण-धर्मों के लिए देखें—सु.सू. ४६।२४०-२४३ । सुखाये सभी शाक विष्टम्भी तथा वातकारक होते हैं, केवल सुखाए हुए मूली के शाक को छोड़कर।

वातश्लेष्महरं शुष्कं सर्वम्-

सूखी मूली का शाक—सुखायी गयी सभी प्रकार की मूलियाँ वात एवं कफ नाशक होती हैं।

-आमं तु दोषलम्।

कच्ची मूली का शाक—सभी प्रकार की कच्ची मूलियाँ वात आदि दोषकारक होती हैं।

कटूष्णो वातकफहा पिण्डालुः पित्तवर्धनः ॥१०५॥

पिण्डालु नामक कन्द का शाक—यह कुछ कटु, उष्णवीर्य तथा पित्त को बढ़ाने वाला है।। १०५ ।।

वक्तव्य-सुश्रुत ने पिण्डालु का जो वर्णन किया है, वह उक्त वाग्भटोक्त गुण-धर्मों के विपरीत है। देखें—'पिण्डालुकं कफकर गुरु वातप्रकोपणम्' । (सु.सू. ४६।३०४)

आयुर्वेद में 'आलुक' नाम से अनेक कन्दों का ग्रहण होता है। जैसे—१. काष्ठालुक (कठालू )। २. शंखालुक—यह सफेदी लिये होता है, ऐसा लगता है कि बाजारों में बिकने वाला यही शंखालू ही आलू है। ३. हस्त्यालुक—बड़े-से-बड़े आकार का आलू, इसके दर्शन प्रदर्शनियों में किये जा सकते हैं। ४. पिण्डालुक-हमारी मान्यता के अनुसार यह वही है, जिसका विवेचन हमने इसी प्रकरण में आगे किया है। जो इसे 'सुथनी' मानते हैं, उन्हें इसका समावेश 'मध्वालुक' में अथवा 'रक्तालुक' में करना चाहिए, क्योंकि यह लाल तथा सफेद भेद से दो प्रकार का पाया जाता है। ५. मध्वालुक—यह आकृति से दो प्रकार का होता है—१. छोटा और २. बड़ा। इनमें छोटा छीलने पर भीतर से सफेद और बड़ा छीलने पर रक्ताभ होता है। हिन्दी में इन्हें छोटी सुथनी तथा बड़ी सुथनी कहते हैं। ६. रक्तालुक—यह भी वर्णभेद से दो प्रकार का होता है। १. जंगली सफेद और २. घर में लगाया हुआ लाल रंग का। जंगली अधिक-से-अधिक १ या २ इंच गोलाई में मोटा, घरेलू ५ या ६ इंच मोटा या इससे भी अधिक। इसे तरूड़ या रतालू भी कहते हैं। इन्हीं कन्दों में एक शकरकन्द भी है। यह शक्कर की भाँति खाने में मीठा होता है, अतएव इसे 'शकरकन्द' कहते हैं।

नैनीताल तथा अलमोड़ा आदि जिलों में 'पिण्डालु' नाम से सुप्रसिद्ध एक कन्द मिलता है, जिसका शाक क्षेत्रीय लोगों को अतिप्रिय है। वहाँ इसकी खेती भी होती है। मैदानी स्थानों में इसे 'अरुई' या 'घुइयाँ' कहते हैं। ये पिण्डालू या पिनालू के उपकन्द हैं। पिण्डालू के जिस मूल अवयव को यहाँ बण्डा कहा जाता है, उसे पर्वतीय क्षेत्रों में 'गडेरी' कहते हैं। हमारे विचार से सुश्रुत ने जिस 'पिण्डालु' के गुण-धर्मों का वर्णन किया है, वह यही 'पिण्डालु' कन्द है।

कुठेरशिग्रुसुरससुमुखासुरिभूस्तृणम्।
फणिज्जार्जकजम्बीरप्रभृति ग्राहि शालनम् ॥१०६॥
विदाहि कटु रूक्षोष्णं हृद्यं दीपनरोचनम्।
दृक्शुक्रकृमिहत्तीक्ष्णं दोषोत्क्लेशकरं लघु ॥१०७॥

कुठेरक आदि शाक—कुठेरक (वनतुलसी—बवई), शिग्रु ( सहजन की फली), सुरस ( काली तुलसी ), सुमुखा (तुलसीभेद ), आसुरि (राई के पत्ते ), भूस्तृण, फणिज्झक, अर्जक, जम्बीर आदि के पत्तों के शाक ग्राही ( मल को बाँधने वाले ) तथा उत्तम होते हैं। यह विदाहकारी, स्वाद में कटु, रूक्ष, उष्णवीर्य, हृदय के लिए हितकारी, जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाले तथा रुचिकारक होते हैं। ये दृष्टिनाशक, शुक्र तथा क्रिमि नाशक होते हैं। ये गुणों में तीक्ष्ण, वात आदि दोषों को उभाड़ने वाले तथा पाचन में लघु होते हैं।। १०६-१०७॥

वक्तव्य—'फणिज्जार्जकजम्बीरप्रभृति' इस ‘प्रभृति' शब्द से अष्टांगसंग्रह अध्याय ७ में कहे गये-धान्य, तुम्बुरु, शैलेय, यवानी, शृंगवेर, पर्णाश, गुंजन, अजाजी, कण्डीर, जलपिप्पली, खराश्वा, कालमालिका, दीप्यक, क्षवकृत्, द्वीपि और वस्तगन्धा का ग्रहण कर लेना चाहिए। अष्टांगहृदय में उक्त द्रव्यों को 'हरितकवर्ग' में गिना है।

हिध्माकासविषश्वासपार्श्वरुक्पूतिगन्धहा। सुरसः-

सुरसा का शाक-हिचकी, कास, विषविकार, श्वास, पार्श्वशूल (पसलियों में पीड़ा का होना) तथा मुख की दुर्गन्ध का विनाश करता है।

-सुमुखो नातिविदाही गरशोफहा ।।१०८॥

सुमुख नामक तुलसी का शाक—यह अधिक विदाहकारक नहीं होता है। दूषीविष तथा शोथरोग का विनाश करता है।। १०८।।

आर्द्रिका तिक्तमधुरा मूत्रला न च पित्तकृत्।

हरा धनिया का शाक—यह थोड़ा तीता तथा मधुर होता है। मूत्रल तथा पित्तकारक नहीं होता।

लशुनो भृशतीक्ष्णोष्णः कटुपाकरसः सरः॥१०९ ॥
हृद्यः केश्यो गुरुर्वृष्यः स्निग्धो रोचनदीपनः।
भग्नसन्धानकृद्वल्यो रक्तपित्तप्रदूषणः ॥ ११० ॥
किलासकुष्ठगुल्मार्शोमेहक्रिमिकफानिलान्।
स हिध्मापीनसश्वासकासान् हन्ति रसायनम् ॥

लशुनकन्द का शाक-इसका कन्द विशेष करके तीक्ष्ण एवं उष्णवीर्य होता है। इसका विपाक कटु होता है। यह सर, हृदय के लिए तथा केशों के लिए हितकर है, पचने में गुरु, वीर्यवर्धक, स्निग्ध, दीपन, पाचन, अस्थिभग्न को जोड़ने वाला, बलवर्धक, रक्त एवं पित्त को दुषित करने वाला है। यह किलास (श्वित्र ), कुष्ठ, गुल्म, अर्श, प्रमेह, क्रिमिरोग, कफविकार, वातविकार, हिचकी, पीनस, श्वास और कास रोग का विनाश करता है। यह रसायन है।।१०९-१११ ।।

यहाँ लहसुन के केवल कन्द के गुण दिये गये हैं। प्रसंगवश उसके अन्य अंगों का वर्णन भी प्रस्तुत है—इसके पत्र खारे तथा मधुर होते हैं और इसका मध्यभाग अधिक मधुर एवं पिच्छिल होता है। कभी-कभी इसके मध्यभाग में भी लशुनकन्द पाये जाते हैं, औषध में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। अष्टांगहृदय-उत्तरस्थान (३९।१११-१२९ ) में इसकी विस्तृत रसायनविधि देखें। इसके अतिरिक्त काश्यपसंहिता' में भी इसके विविध कल्पों का अवलोकन करें।

पलाण्डुस्तद्गुणन्यूनः श्लेष्मलो नातिपित्तलः।

पलाण्डु (प्याज) का शाक—यह लहसुन से कुछ कम गुणों वाला होता है। यह कफकारक है तथा पित्तकारक कम होता है।

कफवातार्शसां पथ्यः स्वेदेऽभ्यवहृतौ तथा ।।११२॥
तीक्ष्णो गृञ्जनको ग्राही पित्तिनां हितकृन्न सः।

गृजनक का शाक—यह कफविकार, वातविकार तथा अर्शोरोग में हितकर होता है। व्रणशोथ आदि पर इसका लेप कर के स्वेदन किया जाता है एवं शाक बनाकर इसे खाया भी जाता है। गाजर का शाक तीक्ष्ण गुणवाला, मल को बाँधने वाला तथा यह पित्तविकार वालों के लिए हितकर नहीं है।।११२ ।।

वक्तव्य–वास्तव में उक्त ११२वें पद्य को ‘पलाण्डु' 'तथा'। इस प्रकार दो पंक्तियों में पूरा होना चाहिए था। ऐसा मत श्री अरुणदत्त एवं श्रीचन्द्रनन्दन का था, किन्तु श्रीहेमाद्रि का कथन है कि ये गुण-धर्म पलाण्डु के नहीं अपितु 'गृञ्जन' के हैं। अतः उक्त दो पंक्तियों को यहाँ एक साथ रखा है। वास्तव में स्वेदन के लिए ‘पलाण्डु तथा गृञ्जन दोनों का ही प्रयोग होता है। देखें—च.सू. २७।१७४ ।

दीपनः सूरणो रुच्यः कफघ्नो विशदो लघुः॥११३॥
विशेषादर्शसां पथ्यः-

सूरण का शाक—यह अग्निदीपक, रुचिकारक, कफनाशक, विशद ( पिच्छिलतानाशक ), लघु ( शीघ्र पचने वाला), विशेष करके यह अर्शरोगियों के लिए हितकर होता है।। ११३ ।।

वक्तव्य–अर्शोनाशक 'शूरणमोदक' योग, देखें-भैषज्यरत्नावली-अर्शोरोगाधिकार में—१. स्वल्प- शूरणमोदक, २. बृहत्शूरणमोदक तथा अन्य अनेक योग। सूरण-परिचय—यह दो प्रकार का होता है—एक वह जिसे खा लेने से मुख तथा गले में काँटे जैसे चुभते-से प्रतीत होते हैं, दूसरा वह जो पहले की तुलना में कम कष्टकारक होता है। पाककर्मकुशल व्यक्ति दोनों की सब्जी सूखी अथवा रसेदार बनाते हैं, बड़े शौक से खायी भी जाती है। वे इसके टुकड़ों को इमली ( किसी प्रकार के अम्ल में), चूना या फिटकिरी आदि में डालकर उबाल कर घी में भलीभाँति तलकर इसका पाक किया करते हैं। कुछ टीकाकारों ने 'सूरण' को ही भूकन्द माना है। 'कन्द' शब्द की दृष्टि से उनका सोचना उचित ही है, किन्तु 'सूरण' के उक्त गुणों के बाद उसे 'अतिदोषज' कहना कहाँ तक युक्तिसंगत होगा?

-भूकन्दस्त्वतिदोषलः।

भूकन्द का शाक—यह अत्यन्त दोषकारक तथा दोषवर्धक होता है।

वक्तव्य-भूकन्द के सम्बन्ध में विद्वानों के मतभेद—कोई इसे 'जिमीकन्द', दूसरे विद्वान् इसे 'भूस्फोटाऽऽख्यः प्रावृड् उद्भवः' अर्थात् यह संस्वेद शाक है। हिन्दी में इसे—मुँईछत्ता, खुमी आदि कहते हैं। अंग्रेजी में 'Mushroom' कहते हैं। यह वर्षाऋतु में जोरदार वर्षा होने पर सहसा पैदा हो जाता है। इसका आकार छाता का जैसा होता है, रंग सफेद या बादामी सफेद होता है। यह भक्ष्य (खाने योग्य ) तथा अभक्ष्य (जहरीला) भेद से दो प्रकार का होता है।

पत्रे पुष्पे फले नाले कन्दे च गुरुता क्रमात् ॥ ११४॥

शाकों में उत्तरोत्तर गुरुता–पत्रशाकों से पुष्पशाक गुरु, इनसे अधिक गुरु फलशाक, फलशाकों से भी अधिक गुरु नालशाक (सरसों के नाल = गन्दल), इनसे भी अधिक गुरु कन्दशाक होते हैं।। ११४।।

वक्तव्य-श्रीहेमाद्रि उक्त श्लोक का क्रम ‘पुष्पे पत्रे' इस प्रकार चाहते हैं, क्योंकि सुश्रुत ने एक तो 'नालशाक' का ग्रहण नहीं किया है और दूसरा जहाँ श्रीहेमाद्रि ‘लघवः' पाठ को उद्धृत करते हैं, वहाँ सुश्रुत ने 'गुरवः' पाठ दिया है, जो सर्वथा युक्तियुक्त है। देखें—सु.सू. ४६।२४३ । 'गुरवः' के स्थान पर 'लघवः' शब्द का छप जाना सम्पादकीय प्रमाद प्रतीत होता है।

वरा शाकेषु जीवन्ती सार्षपं त्ववरं परम्।
इति शाकवर्गः।

उत्तम-अधम-निर्णय—शाकवर्ग में परिगणित शाकों में जीवन्ती (डोड़ी ) शाक उत्तम तथा सरसों की पत्तियों एवं नाल का शाक अधम माना गया है।

वक्तव्य-शाकवर्ग के आरम्भ में छः प्रकार के शाकों का परिगणन किया गया था। तदनुसार यहाँ कहा गया 'भूकन्द' संस्वेदज शाकों में गिना जाता है। संक्षेप में शाक-परिचय—१. पत्रशाक—बथुआ, पोई, मरसा, चौलाई आदि। २. पुष्पशाक-गोभी, अगस्तिया के फूल, केले के फूल, सेमल के ३. फलशाक—पेठा, लौकी, करेला, बैगन, परवल, टिण्डा आदि। ४. नालशाक-सरसों, राई आदि के नाल। ५. कन्दशाक-मूली, सूरण ( जिमीकन्द ), आलू, पिण्डालू, रक्तालू, वाराहीकन्द, गेठी, तरूड़ आदि। ६. संस्वेदज शाक-छत्रक, खूब आदि। आचार्य खरनाद ने कहा है कि भोजन कर लेने के बाद फलों का सेवन करना चाहिए, अतः अब इसके बाद यहाँ फलवर्ग का प्रस्ताव है।

आदि।
अथ फलवर्गः

द्राक्षा फलोत्तमा वृष्या चक्षुष्या सृष्टमूत्रविट् ॥ ११५॥
स्वादुपाकरसा स्निग्धा सकषाया हिमा गुरुः।
निहन्त्यनिलपित्ताम्रतिक्तास्यत्वमदात्ययान् ॥
तृष्णाकासश्रमश्वासस्वरभेदक्षतक्षयान् ।

द्राक्षा-परिचय-द्राक्षा (दाख या मुनक्का ) सब फलों में उत्तम है। यह वीर्यवर्धक, आँखों के लिए हितकर, मल-मूत्र को सुचारु रूप से निकालती है। विपाक तथा रस में मधुर, स्निग्ध, कुछ कषाय रसयुक्त, शीतवीर्य तथा देर में पचने वाली है। यह वात, पित्त तथा रक्त विकारों का विनाश करती है। मुख का तीतापन, मदात्ययरोग, तृष्णा (प्यास का अधिक लगना), कास, श्रम ( थकावट ), श्वास, स्वरभेद, क्षत (उर:क्षत ) एवं क्षय इन रोगों का विनाश करती है।।११५-११६॥

वक्तव्य-अंगूर आकार-भेद से दो प्रकार के होते हैं-१. छोटे, जिनके किसमिस बनाये जाते है और २. बड़े, जो आकार में लम्बे होते हैं, इनके मुनक्के बनाये जाते हैं। फिर ये बीज वाले तथा बीज- रहित भेद से भी दो प्रकार के होते हैं। स्वाद-भेद से भी ये दो प्रकार के होते हैं—१. खटे और २. मीठे। वर्ण-भेद से भी ये दो प्रकार के होते हैं—१. काले तथा २. सफेद या हरिताभ सफेद। मुनक्का या किसमिस बनाने के लिए इन्हें थोड़ा पकाना पड़ता है, नहीं तो ये जल्दी सूखते नहीं अपितु सड़ जाते हैं।

उद्रिक्तपित्ताञ्जयति त्रीन्दोषान्स्वादु दाडिमम् ॥११७ ॥
पित्ताविरोधि नात्युष्णमम्लं वातकफापहम् ।
सर्वं हृद्यं लघु स्निग्धं ग्राहि रोचनदीपनम् ॥ ११८॥

दाडिम-फल का वर्णन यह स्वादभेद से दो प्रकार का होता है—१. मधुर और २. अम्ल ( खट्टा )। मधुर दाडिम के गुण-इसी को 'अनार' कहते हैं। यह पित्त-प्रधान तीनों दोषों को शान्त करता है। खट्टा दाडिम—यह खट्टा होने पर पित्तदोष को प्रकुपित नहीं करता। यह अधिक उष्ण भी नहीं होता है। यह वात तथा कफ दोष का विनाशक होता है।

सभी प्रकार के दाडिम हृदय के लिए हितकर, शीघ्र पचने वाले, स्निग्ध, ग्राही (मल को बाँधने वाले), रुचि तथा जठराग्नि को बढ़ाने वाले होते हैं।। ११७-११८।।

वक्तव्य-पर्वतीय क्षेत्रों में दाड़िम के वृक्ष पर्याप्त रूप में पाये जाते हैं। इसके वृक्ष चिरायु होते हैं। स्थानीय लोग खटे तथा मीठे दाडिमों की चटनी बनाकर रख लेते हैं। इसे 'काली चटनी' कहते हैं। यह लाल, सफेद वर्णभेद से दो प्रकार का होता है। इसके छिलकों को धूप में सुखाकर चूर्ण बनाकर रख लिया जाता है। यह चूर्ण पित्तातिसार, प्रवाहिका, कास, बालको के दाँत निकलने तथा टाउन्सिल में प्रयोग किया जाता है। यद्यपि सभी अम्ल पदार्थ पित्तवर्धक तथा उष्णवीर्य होते हैं, तथापि अनार एवं आँवला फल इसके अपवाद हैं।

मोचखर्जूरपनसनारिकेलपरूषकम् ।
आम्राततालकाश्मर्यराजादनमधूकजम् ॥ ११९ ॥
सौवीरबदराङ्कोल्लफल्गुश्लेष्मातकोद्भवम्।
वातामाभिषुकाक्षोडमुकूलकनिकोचकम् ॥ १२० ॥
उरुमाणं प्रियालं च बृंहणं गुरु शीतलम्।
दाहक्षतक्षयहरं रक्तपित्तप्रसादनम् ।। १२१ ॥
स्वादुपाकरसं स्निग्धं विष्टम्भि कफशुक्रकृत् ।

केला आदि फलों का वर्णन मोच ( केले का फल ), खजूर ( खजूर या छुहारा), पनस (कटहल ). नारियल, परूषक ( फालसा ), आम्रात ( आमड़ा ), तालफल, काश्मर्य ( गम्भारी का फल ), राजादन ( खिरनी), महुआ का फल, सौवीर ( बड़ा बेर का फल ), बेर का फल, अंकोल, फल्गु ( गूलर ), श्लेष्मातक (लिसोड़ा), बादाम, अभिषुक ( पिस्ता ), अखरोट, मुकूलक (यह भी पिस्ता की जाति है), निकोचक ( चिलगोजा—चीड़ का बीज ), उरुमाण (खुमानी या खुरमानी) और प्रियाल (चिरौंजी)—ये सभी फल बृंहण (शरीर को बढ़ाने वाले), गुरु (देर में पचने वाले ) तथा शीतवीर्य होते हैं। दाह, क्षत ( उरःक्षत ) तथा अन्य स्थानों में लगे घावों का शमन करते हैं। रक्त तथा पित्त को शुद्ध करते हैं। ये सभी विपाक में मधुर हैं, स्निग्ध, विष्टभकारक (मलावरोधक), कफ एवं शुक्रधातु को बढ़ाते हैं ।। ११९-१२१ ।।

फलं तु पित्तलं तालं सरं काश्मर्यजं हिमम् ॥१२२॥
शकृन्मूत्रविबन्धघ्नं केश्यं मेध्यं रसायनम् ।
वातामाधुष्णवीर्यं तु कफपित्तकरं सरम् ॥ १२३ ॥
परं वातहरं स्निग्धमनुष्णं तु प्रियालजम्।
प्रियालमज्जा मधुरो वृष्यः पित्तानिलापहः॥१२४॥
कोलमज्जा गुणैस्तद्वत्तृछर्दिः कासजिच्च सः।

ताल आदि फलों का वर्णन—ताल (ताड़ ) का फल पित्तकारक तथा सर (रेचक ) होता है। गम्भार का फल शीतवीर्य, मल तथा मूत्र की रुकावट को दूर करता है, बालों एवं मेधा (धारणाशक्ति) के लिए हितकर, रसायन गुणों से युक्त होता है। बादाम आदि फलों के गुण—ये उष्णवीर्य, कफकारक, पित्तकारक, सर, वातनाशक द्रव्यों में श्रेष्ठ तथा स्निग्ध होते हैं, किन्तु प्रियाल (चिरौंजी ) उष्णवीर्य नहीं होता। प्रियालमज्जा के गुण- चिरौंजी की गिरी मधुर, वीर्यवर्धक, पित्त तथा वातविकार का नाश करती हैं।

बेर की मज्जा के गुण-इसके गुण भी प्रायः प्रियालमज्जा के समान होते हैं, किन्तु यह तृष्णा तथा कास का विनाश करती है।।१२२-१२४॥

वक्तव्य—'वातामादि'—यहाँ आदि शब्द से अभिषुक (पिस्ता), अखरोट, मकूलक, निकोचक (चिलगोजा ) और उरुमाण (खुमानी ) तक के द्रव्यों को लेना चाहिए। उरुमाण फल पर्वतीय प्रदेशों ( नैनीताल, अलमोड़ा, शिमला, मंसूरी, काश्मीर आदि) में होता है। इसका बाहरी गूदा भी और भीतर की गिरी भी खायी जाती है, जो बादाम के आकार की तथा स्वाद में मधुर होती है। यह आकार-भेद से दो प्रकार की होती है—छोटी तथा बड़ी। बड़ी खुमानी के भीतर से निकलने वाली गिरी के ये गुण पक्वं सुदुर्जरं बिल्वं दोषलं पूतिमारुतम् ॥१२५ ।।

दीपनं कफवातघ्नं बालं, ग्राह्युभयं च तत्।

बिल्व का पका फल- -पका हुआ बेल का फल बड़ी कठिनता से पचता है, दोषकारक होता है तथा इसका सेवन करने से अपानवायु दुर्गन्धयुक्त निकलता है। कच्चा बेल का फल अग्नि प्रदीप्त करता है, कफ तथा वात दोष का नाश करता है। ये दोनों प्रकार के बेल ग्राही ( मल को बाँधने वाले ) होते हैं।

कपित्थमामं कण्ठघ्नं दोषलं, दोषघाति तु॥१२६ ॥
पक्वं हिध्मावमथुजित्, सर्वं ग्राहि विषापहम् ।

कैथ का कच्चा फल—यह कण्ठ (स्वरयन्त्र) को हानि पहुंचाता है, दोषकारक होता है। कैथ का पका फल दोषशामक, हिचकी तथा वमन का विनाश करता है। दोनों प्रकार के कैथ ग्राही होते हैं और विषविकार को नष्ट करते हैं।।१२६ ।।

जाम्बवं गुरु विष्टिम्भि शीतलं भृशवातलम् ॥१२७॥
सङ्ग्राहि मूत्रशकृतोरकण्ठ्यं कफपित्तजित्।

जामुन का फल यह गुरु ( देर में पचने वाला), विष्टम्भी, शीतवीर्य, वातविकार को अत्यन्त बढ़ाने वाला, मल-मूत्र को रोकने वाला, स्वरयन्त्र के लिए अहितकर, कफ तथा पित्त विकार को जीतने वाला होता है।।१२७॥

वक्तव्य-राजजम्बू को संस्कृत में ‘फलेन्द्रा' तथा हिन्दी में 'फरेना' कहते हैं। इसके अतिरिक्त जामुन के ये भेद पाये जाते हैं—शुद्रजम्बू, काकजम्बू, भूमिजम्बू तथा जलजम्बू। 'राजजम्बू का ही वर्णन महाकवि कालिदास ने मेघदूत में इस प्रकार किया है—'श्यामजम्बूवनान्ताः'। (पूर्वमेघ )

वातपित्तास्रकृद्वालं, बद्धास्थि कफपित्तकृत् ॥१२८॥
गुर्वानं वातजित्पक्वं स्वाद्वम्लं कफशुक्रकृत् ।

आम का वर्णन—जिसमें अभी गुठली नहीं पड़ी हो ऐसा बाल ( छोटा ) आम वातकारक, पित्तकारक तथा रक्तधातु को दूषित करता है। गुठली पड़ जाने पर अर्थात् कुछ बड़ा होने पर वह कफकारक तथा पित्तकारक होता है। पका हुआ आम पाक में गुरु, वातनाशक, स्वाद में मधुर होता है। पका हुआ खट्टा आम कफकारक तथा शुक्रवर्धक होता है॥१२८ ।।

वृक्षाम्लं ग्राहि रूक्षोष्णं वातश्लेष्महरं लघु ॥१२९ ॥

वृक्षाम्ल का वर्णन-वृक्षाम्ल ( विषांविल, कोकम) का फल ग्राही, रूक्ष, उष्णवीर्य, वात तथा कफदोष नाशक तथा पाचन में लघु होता है।।१२९ ।।

वक्तव्य—इसकी उत्पत्ति कोंकण, कनारा आदि दक्षिणी प्रान्तों में होती है। बीज निकाल कर सुखाये हुए फल को अमसूल या कोकम कहते हैं। इसके बीजों से तेल निकाला जाता है। इसे कोकम का घी या तेल कहते हैं। यह तेल स्तम्भन एवं व्रणरोपण होता है। इसके छिलकों की चटनी बनायी जाती है।

अतिसार, रक्तातिसार आदि में इसका फाण्ट (चाय) बनाकर दिया जाता है तथा पित्तजनित विकारों में इसे घोलकर इसका शरबत बनाकर दिया जाता है। इससे लाभ भी होता है।

शम्या गुरूष्णं केशघ्नं रूक्षम्-

शमी का फल—यह पाक में गुरु, उष्णवीर्य, केशनाशक तथा रूक्ष होता है।

वक्तव्य-शमी को हिन्दी में ‘छोंकर' कहते हैं। इसका वर्णन ‘भावप्रकाश' तथा 'धन्वन्तरि' निघण्टुओं में भी आया है। यह छोटी-बड़ी भेद से दो प्रकार की होती है। धार्मिक कार्यों में इसका बड़ा महत्त्व है। इसकी कच्ची फलियों का शाक बनाकर मारवाड़ तथा पंजाब में खाया जाता है, दशहरा के पुण्य पर्व पर इस वृक्ष की पूजा की जाती है। विशेष देखें-च.सू. २७।१५९; सु.सू. ४६।१९३ ।

-पीलु तु पित्तलम्। कफवातहरं भेदि प्लीहार्शःकृमिगुल्मनुत् ॥१३०॥
सतिक्तं स्वादु यत्पीलु नात्युष्णं तत्रिदोषजित् ।

पीलु का फल—यह पित्तकारक, कफ तथा वात नाशक, मलभेदक ( दस्तावर ), प्लीहारोग, अर्शोरोग, क्रिमिरोग तथा गुल्मरोग नाशक होता है। जो पीलु कुछ तीता एवं मधुर होता है, वह अधिक उष्ण नहीं होता और वह त्रिदोषनाशक भी होता है।।१३० ।।

वक्तव्य-इसके वृक्ष राजस्थान, बिहार, कोंकण, दक्षिणप्रदेश, कर्नाटक, बलूचिस्तान आदि सूखे स्थानों में पाये जाते हैं। यह पीलु छोटा-बड़ा भेद से दो प्रकार का होता है।

त्वक्तिक्तकटुका स्निग्धा मातुलुङ्गस्य वातजित्॥१३१ ॥
बृंहणं मधुरं मांसं वातपित्तहरं गुरु।
लघु तत्केसरं कासश्वासहिध्मामदात्ययान्॥१३२॥
आस्यशोषानिलश्लेष्मविबन्धच्छरोचकान्।
गुल्मोदरार्शःशूलानि मन्दाग्नित्वं च नाशयेत् ॥

मातुलुंग (बिजौरा नीबू) की त्वचा—यह तिक्त एवं कटु होती है और स्निग्ध तथा वातनाशक होती है। उसका मांस (गूदा ) बृंहण, मधुर, वात तथा पित्त नाशक और गुरु होता है। बिजौरानीबू का केशर लघु, कास, श्वास, हिचकी, मदात्यय, मुखशोष, वातरोग, कफरोग, विबन्ध (कब्जियत), वमन, अरोचक, गुल्मरोग, उदररोग, अर्शोरोग, शूलरोग एवं मन्दाग्नि का विनाश करता है।।१३१-१३३ ।।

वक्तव्य-नैनीताल, अलमोड़ा आदि पर्वतीय स्थानों में 'बिजौरानीबू' पर्याप्त रूप में पाया जाता है। इसका छिलका बाहरी और भीतरी भेद से दो प्रकार का कहा गया है। बाहरी छिलका को त्वक्, भीतरी छिलका को मांस और उसके भीतर मिलने वाले अम्ल पदार्थ को केसर कहा गया है। अब आप इसका अर्थ इस प्रकार लगायें-बाहरी छिलका को अत्यन्त पतला छीलकर फेंक दिया जाता है, उसके गुण हैं—'त्वक्तिक्ता "वातजित्। इस बाहरी छिलका में तेल का अंश पाया जाता है, जो छीलने वाले के हाथ में लग जाता है। इसका वह भाग जिसे वाग्भट ने 'मांस' कहा है, इसे मित्रमण्डली या परिजनों के साथ बैठकर खाया जाता है, जिसे 'सौगात' = 'स्वागत' माना जाता है। यह अत्यन्त कोमल तथा मधुर होता है।

इसी का एक भेद ‘मतकाकड़ी' भी है, जिसे आयुर्वेद में ‘मधुकर्कटी' कहा है। इसके विपरीत जो निघण्टु-ग्रन्थों में इसे चकोतरा कहा है, यह भ्रम है। आप देखें—मधुकर्कटी और मतकाकड़ी शब्दों में कितना साम्य है ? इसी प्रकार बिजौरानीबू और मतकाकड़ी में क्रमशः छोटे-बड़े मात्र का अन्तर है। इसी बहाने आप पर्वतीय यात्रा करें और देखें इन दोनों फलों को। 'चकोतरा' जिसे कहते हैं, उसका बाहर का छिलका फेंक दिया जाता है और भीतर का केशर मीठा होने के कारण खाया जाता है। उक्त बिजौरानीबू तथा मतकाकड़ी का केशर अत्यन्त खट्टा होता है। ये दोनों के परस्पर विभेदक लक्षण हैं।

भल्लातकस्य त्वङ्मांस बृंहणं स्वादु शीतलम् । तदस्थ्यग्निसमं मेध्यं कफवातहरं परम् ॥१३४॥

भिलावा का वर्णन-भिलावा का छिलका तथा गूदा बृंहण ( शरीर को स्थूल करने वाला), रस में मधुर तथा शीतवीर्य होता है। भिलावा की गुठली अग्नि के समान तीक्ष्ण (दाहक), बुद्धिवर्धक एवं अत्यन्त कफ एवं वातनाशक होती है।। १३४।।

वक्तव्य-भिलावा के फल हृदयाकृति होने पर भी ये दो भागों में मूलतः विभक्त होते हैं। जब इसका ऊपरी भाग दाहक होता है और नीचे का भाग पकी नारंगी के सदृश हो जाता है, तब उसे खाया जाता है। इसी का वर्णन ऊपर प्रथम पंक्ति द्वारा किया गया है।

स्वादुम्लं शीतमुष्णं च द्विधा पालेवतं गुरु ।
रुच्यमत्यग्निशमनं-

पारेवत का वर्णन—पारेवत मधुर तथा अम्ल भेद से दो प्रकार का होता है। मीठा पारेवत शीतवीर्य होता है तथा अम्लपारेवत उष्णवीर्य होता है। ये दोनों पारेवत पाचन में गुरु, रुचिकारक तथा अत्यग्नि (भस्मक रोग) का शमन करते हैं।

वक्तव्य-उक्त गुण-धर्मों से युक्त द्रव्य को चरक ने ‘पारावत' कहा है। देखें-च.सू. २७।१३४ । यह फल कामरूप (आसाम) आदि देशों में पाया जाता है ( चक्रपाणि)

-रुच्यं मधुरमारुकम्॥१३५॥
पक्वमाशु जरां याति नात्युष्णगुरुदोषलम् ।

आरुक-फल का वर्णन—आडूफल रुचिकारक तथा रस में मधुर होता है। यह पका हुआ शीघ्र पच जाता है। यह अधिक गरम नहीं होता किन्तु गुरु तथा दोषकारक होता है।। १३५ ।।

वक्तव्य—यह पर्वतीय क्षेत्रों का फल है। इसके अनेक भेद-उपभेद होते हैं। तदनुसार ये वैशाख से पकने प्रारम्भ होते हैं और जातिभेद से आश्विन तक पकते रहते हैं। अब इसकी कुछ जातियाँ मैदानी भागों में भी पायी जाने लगी है, फिर भी पर्वतीय जल-वायु का स्वाद कुछ और ही होता है।

द्राक्षापरूषकं चामम्लं पित्तकफप्रदम्॥१३६॥

गुरूष्णवीर्यं वातघ्नं सरं सकरमर्दकम्।

कच्चे दाख आदि का फल—द्राक्षा ( मुनक्का ) एवं परूषक (फालसा) के कच्चे फल स्वाद में खट्टे होते हैं। ये पित्त तथा कफ वर्धक होते हैं।

करमर्द (करौंदा) के कच्चे फल—यह पाचन में गुरु, उष्णवीर्य, वातनाशक तथा सर होते हैं ।। १३६ ।।

तथाऽम्लं कोलकर्कन्धुलकुचाम्रातकारकम् ।। १३७॥
ऐरावतं दन्तशठं सतूदं मृगलिण्डिकम्।
नातिपित्तकरं पक्वं शुष्कं च करमर्दकम् ॥१३८॥

कोल-कर्कन्धु-वर्णन—कोल (बड़ा बेर ) तथा कर्कन्धु (छोटे बेर), लकुच (बड़हल), आम्रातक (आमड़ा), ऐरावत (नारंगी-वै०नि०), दन्तशठ (जम्बीरीनीबू ), तूद (शहतूत ), मृगलिण्डिक (बड़े शहतूत )—ये सभी फल कच्ची दाख के समान गुण-धर्म वाले होते हैं। इनमें सूखा तथा पका हुआ करौंदा अधिक पित्तकारक नहीं होता है।।१३७-१३८ ।।

दीपनं भेदनं शुष्कमम्लीकाकोलयोः फलम्।
तृष्णाश्रमक्लमच्छेदि लध्विष्टं कफवातयोः॥

इमली तथा बेर के सूखे फल-ये अग्नि को प्रदीप्त करने वाले तथा मलभेदक (दस्तावर ) होते हैं। ये दोनों प्यास, शारीरिक एवं मानसिक थकावट को दूर करते हैं, कफ तथा वातविकार में लाभदायक होते हैं एवं पाचन में लघु होते हैं ।। १३९ ।।

फलानामवरं तत्र लकुचं सर्वदोषकृत्। ।

बड़हर के फल-फलों में बड़हर का फल अधम गुणों वाला होता है तथा यह वात आदि सभी दोषों को उभाड़ने वाला होता है।

हिमानलोष्णदुर्वातव्याललालादिदूषितम् ॥ १४०॥
जन्तुजुष्टं जले मग्नमभूमिजमनार्तवम्।
अन्यधान्ययुतं हीनवीर्यं जीर्णतयाऽति च ॥१४१॥
धान्यं त्यजेतथा शाकं रूक्षसिद्धमकोमलम् ।
असञ्जातरसं तद्वच्छुष्कं चान्यत्र मूलकात्॥१४२ ।।
प्रायेण फलमप्येवं तथाऽऽमं बिल्ववर्जितम्।

इति फलवर्गः।

त्याज्य धान्य, शाक एवं फल-हिम (बरफ) गिरने से, ओले पड़ने से, कड़ी धूप लगने से या आग से झुलस जाने से, दूषित वायु के स्पर्श से, साँप या अन्य जहरीले प्राणियों की लार के लग जाने से, कीड़े पड़ जाने से, जल में डूब जाने से, विपरीत ( अपने प्रतिकूल ) गुणों वाली भूमि में उत्पन्न होने से, विपरीत ऋतु में उत्पन्न होने से, विपरीत गुणवाले धान्य (अनाज) के साथ मिला देने से, शक्तिहीन हो जाने से अथवा अधिक पुराने हो जाने से धान्य अपने गुणों से रहित हो जाते हैं। ऐसे धान्यों का सेवन न करें। इसी प्रकार के शाक भी त्याज्य होते हैं तथा जो शाक घी-तेल स्नेहों से बिना छोंके ही बनाये गये हों और जो कोमल न हों वे भी अखाद्य होते हैं। जिन शाकों में स्वाभाविक रस, गुण आदि की उत्पत्ति न हुई हो अथवा जो शाक सूख गये हों वे भी खाने योग्य नहीं होते।

सुखाये गये कन्दशाक (मूली आदि ) खाये जा सकते हैं। जैसा कि इसी अध्याय के १०५वें पड के पूर्वार्ध में कहा गया है। इसी प्रकार के फल भी खाने योग्य नहीं होते, किन्तु सुखाया गया कच्चा बेल का फल खाया जा सकता है, अन्य कच्चे फलों को नहीं खाना चाहिए।।१४०-१४२ ।।

अथौषधवर्ग:

विष्यन्दि लवणं सर्वं सूक्ष्मं सृष्टमलं मृदु॥१४३॥
वातघ्नं पाकि तीक्ष्णोष्णं रोचनं कफपित्तकृत् ।

फलों का वर्णन करने के बाद अब यहाँ से विविध प्रकार के लवणों का वर्णन प्रारम्भ होता है। लवण-सामान्य के गुण-ये विष्यन्दनकारक अर्थात् अभिष्यन्दी, सूक्ष्म, मल को सरकाने वाले, मृदु, वातविकारनाशक, भोजन को पचाने वाले, तीक्ष्ण, उष्ण, रुचि को बढ़ाने वाले और कफ तथा पित्तकारक होते हैं।।१४३॥

वक्तव्य—सूक्ष्म लवण (नमक) छोटे से भी छोटे स्रोतों में प्रवेश कर जाते हैं, यही कारण है कि नाड़ीव्रणविनाशक मलहमों में घृत, मधु तथा लवण आदि द्रव्यों का प्रमुख रूप से प्रयोग होता है। पाकि—बनते हुए भोजन (दाल आदि) को शीघ्र गला देता है, पकने के बाद आहार को पचाता है और व्रणशोथ ( फोड़े) को भी पका देता है।

सैन्धवं तत्र सस्वादु वृष्यं हृद्यं त्रिदोषनुत् ॥ १४४ ॥
लध्वनुष्णं दृशः पथ्यमविदाह्यग्निदीपनम्।

सेंधानमक के गुण—सभी नमकों में सेंधानमक तीक्ष्णता की कमी के कारण कुछ मधुर, वीर्यवर्धक, हृदय के लिए हितकर, त्रिदोषशामक, लघु, कुछ उष्णवीर्य वाला, नेत्रों के लिए हितकारी, अविदाही (यह विदाहकारक नहीं होता ) होने पर भी जठराग्नि को प्रदीप्त करता है।। १४४॥

लघु सौवर्चलं हृद्यं सुगन्ध्युद्गारशोधनम्॥१४५॥
कटुपाकं विबन्धघ्नं दीपनीयं रुचिप्रदम्।

सौवर्चलनमक के गुण—इसी को ‘सज्जीखार' कहते हैं। यह लघु, हृदय के लिए हितकर, सुगन्धित, उद्गार ( डकार ) को शुद्ध करने वाला, विपाक में कटु, मल-मूत्र की रुकावट को हटाने वाला, जठरावि को प्रदीप्त करने वाला तथा रुचिकारक होता है।।१४५।।

ऊर्ध्वाधःकफवातानुलोमनं दीपनं विडम्॥१४६ ॥
विबन्धानाहविष्टम्भशूलगौरवनाशनम्

विड (विरिया) नमक के गुण—इसका सेवन करने से कफ ऊपर की ओर से निकलने लगता है और अपानवायु नीचे की ओर से निकलता है अर्थात् यह कफ एवं वायु की गति का अनुलोमन करता है, अग्नि को प्रदीप्त करता है, मल-मूत्र की रुकावट, आनाह, विष्टम्भ (आँतों की गति की रुकावट को), शूल तथा भारीपन का नाश करता है।। १४६ ॥

वक्तव्य—सुश्रुत ने इसे कफ का अनुलोमक नहीं कहा है, केवल वातानुलोमक ही कहा है। देखें—सु.सू. ४६।३१६ । आचार्य डल्हण कहते हैं—यह नमक स्रोतों की शुद्धि करता है, अतएव रुका हुआ वातदोष अनुलोम हो जाता है। कुछ टीकाकारों ने सौवर्चल लवण को कालानमक स्वीकार किया है। जो विडलवण को कालानमक' कहते हैं, यह कृत्रिम नमक है।

कालानमक-निर्माणविधि-४०, सेर सेंधानमक, हरड़ के छिलके, आँवला का सूखा गूदा और सज्जीखार—ये द्रव्य प्रत्येक आधा-आधा सेर लेकर किसी लोहे या मिट्टी के पात्र में मिलाकर पकाते हैं। जब हरड़ तथा आँवला गलकर मिल जाता है, तो शीतल होने पर नमक निकाल लिया जाता है। इसी को मराठी में 'पादेलोण' कालानमक कहते हैं।

सौवर्चल लवण-कुछ विद्वानों ने इसे 'कालालवण' माना है। फारसी में सोंचरनमक को ही नमकस्याह' कहते हैं। कुछ लोगों का मत है कि जो सौवर्चलनमक गन्धरहित होता है। वह 'कालालवण' है। डॉ० देसाई कहते हैं कि रसग्रन्थों में सौवर्चल शोरे' को कहते हैं। श्री द.अ. कुलकर्णी जी कहते हैं—जिस मिट्टी से शोरा प्राप्त होता है, उसे लुनिया मिट्टी कहते हैं, इसमें कुछ मात्रा नमक की भी रहती है। शोरा के साथ प्राप्त होने के कारण इसे सोंचर या सौवर्चल कहते हैं। अस्तु।

विपाके स्वादु सामुद्रं गुरु श्लेष्मविवर्धनम् ॥१४७॥

सामुद्र लवण के गुण—समुद्रलवण ( समुद्र के जल को सुखाकर बनाया गया नमक ) रस में नमकीन किन्तु विपाक में मधुर, गुरु तथा कफदोष को बढ़ाता है।।१४७ ।।

सतिक्तकटुकक्षारं तीक्ष्णमुत्क्लेदि चौद्विदम् ।

औद्भिदलवण के गुण-औद्भिदलवण (रेह या ऊषर नमक ) कुछ तिक्त एवं कटु रस वाला, क्षार गुण युक्त, तीक्ष्ण तथा क्लेदकारक होता है।

वक्तव्य-रेह मिट्टी को जल में घोलकर उस पानी को सुखाकर जो नमक तैयार किया जाता है, उसे औद्भिद लवण कहते हैं। जिससे धोबी कपड़े धोते हैं, वही रेह मिट्टी है।

कृष्णे सौवर्चलगुणा लवणे गन्धवर्जिताः॥१८॥

कृष्णलवण के गुण—इसमें सौंचर नमक के समान गुण होते हैं, किन्तु उसकी जैसी गन्ध इसमें नहीं होती है।।१४८॥

रोमकं लघु, पांसूत्थं सक्षारं श्लेष्मलं गुरु ।

रोमकलवण के गुण—इसकी उत्पत्ति धूलि से होती है। यह लघु, कुछ खारा, कफकारक तथा गुरु होता है।

वक्तव्य—इसी वर्ग में सज्जीखार तथा सोराखार भी आते हैं। इसी को संस्कृत में सुवर्चिकाक्षार (कलमीसोरा) भी कहते हैं।

लवणानां प्रयोगे तु सैन्धवादि प्रयोजयेत् ॥ १४९ ॥

सामान्य निर्देश-जहाँ केवल इस प्रकार का शास्त्रनिर्देश हो कि इस योग में लवण का प्रयोग करे, वहाँ निश्चिन्त होकर सैन्धवलवण का प्रयोग करना चाहिए।। १४९।।

वक्तव्य-जहाँ एक लवण का प्रयोग करना हो वहाँ सैन्धवलवण का, जहाँ दो नमकों का प्रयोग करना हो; जैसे—हिंग्वष्टकचूर्ण में 'द्विपटु', यहाँ १. सैन्धव तथा २. सौवर्चल का, जहाँ तीन लवणों का प्रयोग करना हो वहाँ—१. सैन्धव, २. सौर्वल, ३. विड का प्रयोग करना चाहिए। इसी प्रकार चतुर्लवण तथा पञ्चलवण का भी प्रयोग करना चाहिए। चरक ने 'सैन्धवं लवणानां हिततमम्'। (च.सू. २५।३८) तथा 'ऊषरं लवणानामहिततमम्'। (च.सू. २५।३९ ) अर्थात् सभी नमकों में सेंधानमक उत्तम होता है और ऊषर नमक अहित होता है।

गुल्महृद्ग्रहणीपाण्डुप्लीहानाहग़लामयान्।
श्वासार्शःकफकासांश्च शमयेद्यवशूकजः॥१५०॥

यवक्षार के गुण—यवक्षार (जौखार ) गुल्मरोग, हृदयरोग, ग्रहणीरोग, पाण्डुरोग, प्लीहारोग, आनाह ( अफरा रोग), स्वरयन्त्र के रोग, श्वासरोग, अर्शोरोग, कफरोग तथा कासरोग को नष्ट करता है।। १५०॥

क्षारः सर्वश्च परमं तीक्ष्णोष्णः कृमिजिल्लघुः।
पित्तासृग्दूषणः पाकी छेद्यहृयो विदारणः॥
अपथ्यः कटुलावण्याच्छुक्रौजःकेशचक्षुषाम् ।

सभी प्रकार के क्षार—सभी क्षार अत्यन्त तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, कृमिनाशक तथा लघु होते हैं। ये पित्त तथा रक्त को दूषित करते हैं; आहार तथा व्रणशोथ ( फोड़ा) को पका देते हैं। छेदक ( अर्श के मस्सों एवं बालों की जड़ों को काट देते ) हैं, हृदय के लिए अहितकर हैं, पके हुए व्रणशोथ को फाड़ देते हैं, कटु तथा लवण रस-प्रधान होने के कारण ये शुक्र, ओजस्, केंश तथा नेत्रों के लिए अहितकर होते हैं।। १५१ ॥

वक्तव्य-पलाश ( ढाक ) अथवा अर्क (मदार) की सूखी लकड़ियों को आग से जला दें। उस भस्म को लेकर चौगुना जल डालकर मिट्टी के पात्र में रातभर रहने दें। इस प्रकार राख नीचे जम जायेगी और क्षारयुक्त जल ऊपर रहेगा, इसे सावधानी के साथ दूसरे पात्र में ले लें। इस जल को अग्नि पर रखकर सुखायें। सूखने पर सफेद रंग का क्षार मिलेगा, उसे खुरच कर रख लें। क्षार तैयार है। यह दो प्रकार का होता है—१. प्रतिसारणीय क्षार चूर्णरूप में और २. पानीय क्षार क्वाथ के रूप में। विशेष देखें—सु.सू. ११ सम्पूर्ण। क्षारों का अधिक उपयोग नहीं करना चाहिए। देखें—च.वि. १।१५। और भी देखें—'क्षार पुंस्त्वोपघातिनां श्रेष्ठः'। (च.सू. २५।४०) इनका अधिक सेवन करने से पुरुष नपुंसक हो जाता है।

हिङ्गु वातकफानाहशूलघ्नं पित्तकोपनम् ॥ १५२॥
कटुपाकरसं रुच्यं दीपनं पाचनं लघु।

हींग का वर्णन—वातज रोगों, कफज रोगों, आनाह (अफरा ) तथा शूलरोगों को यह नष्ट करतो है, पित्त को प्रकुपित करती है तथा विपाक एवं रस में कटु होती है। हींग रुचिकारक, अग्निप्रदीपक, पाच तथा लघु है ।। १५२॥

वक्तव्य-हींग अनेक प्रकार की पायी जाती है, उन सबमें १. हीरा हींग और २. तलाव हींग अच्छी होती है। आजकल नकली हींग की प्राप्ति अच्छी हींग की तुलना में अधिक है। हींग के वृक्ष काबुल, फारस, अफगानिस्तान आदि प्रदेशों में अधिक पाये जाते हैं। इन वृक्षों की गोंद को ही हींग कहते हैं। देशी हींग की तुलना में काबुली हींग उत्तम होती है। अच्छी हींग को पानी में घिसने से दुधिया घोल बनता है, दूसरों का नहीं, यही इसकी पहचान है।

कषाया मधुरा पाके रूक्षा विलवणा लघुः॥१५३॥
दीपनी पाचनी मेध्या वयसः स्थापनी परम्।
उष्णवीर्या सराऽऽयुष्या बुद्धीन्द्रियबलप्रदा॥
कुष्ठवैवर्ण्यवैस्वर्यपुराणविषमज्वरान्।
शिरोऽक्षिपाण्डुहृद्रोगकामलाग्रहणीगदान् ॥ १५५ ॥

सशोषशोफातीसारमेदमोहवमिक्रिमीन् ।
श्वासकासप्रसेकाशःप्लीहानाहगरोदरम्॥१५६॥
विबन्धस्रोतसां गुल्ममूरुस्तम्भमरोचकम् ।
हरीतकी जयेद्व्याधींस्तांस्तांश्च कफवातजान् ॥१५७।।

हरीतकी का वर्णन—यह रस में कसैली, विपाक में मधुर, गुण में रूक्ष, केवल लवण रस से रहित अर्थात् लवण के अतिरिक्त इसमें शेष सभी रस रहते हैं। यह लघु, अग्नि को दीप्त करती है, भोजन को पचाती है, बुद्धिवर्धक है, दीर्घायु प्रदान करने वाले द्रव्यों में सर्वश्रेष्ठ है, उष्णवीर्य है, सर (रेचक ), आयु के लिए हितकर, बुद्धि तथा ज्ञानेन्द्रियों को बल देने वाली है।

यह कुष्ठरोग, विवर्णता, स्वरभेद, जीर्णज्वर, विषमज्वर, शिरोरोग, नेत्ररोग, पाण्डुरोग, हृदयरोग, कामलारोग, ग्रहणीरोग, शोष (राजयक्ष्मा), सूजन, अतिसार, मेदोरोग, मोह (मूर्छा), वमन, क्रिमिरोग, श्वास, कास, प्रसेक (लालाम्राव तथा योनिस्राव), अर्शोरोग, प्लीहारोग, आनाह (अफरा), गरविष, उदररोग, स्रोतों की रुकावट, गुल्मरोग, ऊरुस्तम्भ तथा अरोचक आदि कफज एवं वातज रोगों का विनाश करती है।। १५३-१५७ ।।

वक्तव्य-आयुर्वेदशास्त्र में हरीतकी (हरड़), लहसुन तथा शिलाजीत इन तीन द्रव्यों का विशेष महत्त्व है। हरीतकी की तो यहाँ तक प्रशंसा की गयी है—'कदाचित् कुप्यति माता नोदरस्था हरीतकी' । अर्थात् माता तो अपने बालक पर कभी रुष्ट हो भी सकती है, परन्तु पेट के भीतर गयी हुई हरीतकी कभी कुपित नहीं होती। सचमुच यह इसके गुणों की वास्तविकता है, न कि अतिशयोक्ति।

तद्वदामलकं शीतमम्लं पित्तकफापहम् ।

आमलक का वर्णन—आँवला के गुण भी हरीतकी ( हरड़) के समान ही होते हैं, परन्तु आँवला शीतवीर्य होता है तथा रस में अम्ल (खट्टा) होता है। यह पित्त तथा कफ का विनाशक होता है।

कटु पाके हिमं केश्यमक्षमीषच्च तद्गुणम्॥१५८॥

बिभीतक का वर्णन—यह भी हरीतकी के समान गुण-धर्मों वाला होता है, किन्तु यह विपाक में कटु, केशों के लिए हितकर होता है, फिर भी हरीतकी तथा आँवला से कुछ कम गुण वाला होता है।। १५८ ।।

वक्तव्य हरड़, बहेड़ा, आँवला का सम्मिलित नाम त्रिफला है। तन्त्रान्तर में कहा है—'अभयैका प्रदातव्या द्वावेव तु बिभीतकौ। धात्रीफलानि चत्वारि त्रिफलेयं प्रकीर्तिता' ।। अर्थात् एक हरीतकी, दो बहेड़ा और तीन आँवला—इनको इस अनुपात में मिलाकर त्रिफला का निर्माण होता है।

इयं रसायनवरा त्रिफलाऽक्ष्यामयापहा।
रोपणी त्वग्गदक्लेदमेदोमेहकफास्रजित् ॥ १५९ ॥

त्रिफला का वर्णन—उक्त तीनों फलों के विधिवत् मिश्रण का नाम 'त्रिफला' है। यह उत्तम कोटि का रसायन है। यह नेत्ररोगों का विनाश करती है, व्रणरोपण, त्वचा में होने वाली सड़न, मेदोदोष, प्रमेह, कफज़ रोग एवं रक्तज रोगों का विनाश करती है॥१५९।।

सकेसरं चतुर्जातं त्वक्पत्रैलं त्रिजातकम्।
पित्तप्रकोपि तीक्ष्णोष्णं रूक्षं रोचनदीपनम् ॥१६० ॥

त्रिजात का वर्णन—दालचीनी, तेजपत्ता और बड़ी इलायची इन तीन द्रव्यों के संयोग का नाम 'त्रिजात' या 'त्रिजातक' है। ये दोनों शब्द शास्त्रीय प्रयोगों में पाये जाते हैं।

चतुर्जात का वर्णन—उक्त विजात में नागकेसर द्रव्य को मिला देने से इसे 'चतुर्जात' या 'चतुर्जातक' कहा जाता है। उक्त योगों के गुण-धर्म-ये पित्तवर्धक, तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, रूक्ष, अग्नि को प्रदीप्त कर भोजन के प्रति रुचि को बढ़ाते हैं।।१६० ।।

रसे पाके च कटुकं कफघ्नं मरिचं लघु।

मरिच (कालीमरिच ) के गुण—यह रस एवं विपाक में कटु, कफनाशक तथा लघु होती है।

श्लेष्मला स्वादुशीताऽऽर्द्रा गुर्वी स्निग्धा च पिप्पली॥१६१ ॥
सा शुष्का विपरीताऽतः स्निग्धा वृष्या रसे कटुः ।
स्वादुपाकाऽनिलश्लेष्मश्वासकासापहा सरा॥
न तामत्युपयुञ्जीत रसायनविधिं विना।

पिप्पली के गुण-हरी पिप्पली कफकारक, स्वाद में मधुर, शीतवीर्य, देर में पचने वाली तथा कुछ स्निग्ध होती है। वही पिप्पली जब सूख जाती है तो उक्त गुणों से विपरीत हो जाती है। तब यह स्निग्ध, वीर्यवर्धक, रस में कटु और विपाक में मधुर होती है। यह वातनाशक, कफनाशक, श्वास तथा कास नाशक एवं सर ( मलभेदक ) है। 'पिप्पलीरसायन' विधि के अतिरिक्त पिप्पली का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए।।१६१-१६२ ।।

वक्तव्य-चरक में भी इसके अधिक सेवन का निषेध किया है। देखें—च.वि. १।१५ ।

नागरं दीपनं वृष्यं ग्राहि हृद्यं विबन्धनुत्॥१६३ ।।
रुच्यं लघु स्वादुपाकं स्निग्धोष्णं कफवातजित् ।

नागर (सोंठ) के गुण—यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है, वीर्यवर्धक है, मल को बाँधता है, हृदय के लिए हितकर है। स्रोतों को शुद्ध करता है, रुचिवर्धक, लघु, विपाक में मधुर, स्निग्ध, उष्ण, कफ तथा वात नाशक है।। १६३ ।।

तद्वदाकमेतच्च त्रयं त्रिकटुकं जयेत् ॥१६४॥
स्थौल्याग्निसदनश्वासकासश्लीपदपीनसान् ।

आर्द्रक के गुण-सोंठ के समान ही इसके भी गुण होते हैं। ये तीनों (सोंठ, मरिच, पीपल ) मिलकर ‘त्रिकटु' कहे जाते हैं। इसी को 'कटुत्रय' या 'त्र्यूषण' भी कहते हैं।

त्रिकटु के गुण—यह स्थूलता ( मोटापा), मन्दाग्नि, श्वास, कास, श्लीपद (फीलपाँव ) तथा पीनस रोगों का विनाश करता है।।१६४॥

चविकापिप्पलीमूलं मरिचाल्पान्तरं गुणैः॥१६५ ॥

चव्य तथा पीपलामूल के गुण—चव्य तथा पीपलामूल ये दोनों द्रव्य गुणों में मरिच के गुणों से कुछ ही कम हैं अर्थात् लगभग वैसे ही गुणों वाले होते हैं।।१६५ ।।

चित्रकोऽग्निसमः पाके शोफार्शःकृमिकुष्ठहा।

चित्रक के गुण—चित्रक के जड़ की छाल पाक में अग्नि के समान है। यह शोफ (सूजन ), अर्श (बवासीर), क्रिमिरोग तथा कुष्ठरोग का विनाश करती है।

पञ्चकोलकमेतच्च मरिचेन विना स्मृतम्॥१६६ ॥
गुल्मप्लीहोदरानाहशूलघ्नं दीपनं परम्।

पञ्चकोल के गुण—यह ‘पञ्चकोल' के संयोग के बिना ही माना गया है अर्थात् इस योग में—पीपल, सोंठ, चव्य, पीपलामूल और चीता की छाल ये ५ द्रव्य हैं। यह गुल्म, प्लीहारोग, उदररोग, आनाह ( अफरा) तथा शूलरोगों का विनाशक है और उत्तम अग्निदीपक है।। १६६ ।।

वक्तव्य-श्लोक १६१ से १६६ तक में वर्णित द्रव्यों में से मरिच को छोड़कर शेष कहे गये द्रव्यों के योग का नाम 'पञ्चकोल' है, क्योंकि इस योग में इन द्रव्यों की मात्रा १-१ कोल (आधा-आधा तोला) होती है। इस ‘पञ्चकोल' में यदि मरिच का संयोग कर दिया जाता है, तो इसे 'षडूषण' कहते हैं अर्थात् छः उष्ण द्रव्यों का योग।

बिल्वकाश्मर्यतर्कारीपाटलाटिण्टुकैर्महत् ॥१६७॥
जयेत्कषायतिक्तोष्णं पञ्चमूलं कफानिलौ।

बृहत्पञ्चमूल के योग–बेल की गिरी, गम्भार, अरणी, पाढल तथा सोनापाठा की छाल—इन पाँच द्रव्यों के योग का नाम 'बृहत्पञ्चमूल' है। यह रस में कषाय, तिक्त तथा उष्णवीर्य होता है। यह कफ एवं वात विकारों का विनाशक होता है।।१६७ ।।

ह्रस्वं बृहत्यंशुमतीद्वयगोक्षुरकैः स्मृतम् ॥१६८ ॥
स्वादुपाकरसं नातिशीतोष्णं सर्वदोषजित्।

लघुपञ्चमूल के गुण-वनभण्टा, कण्टकारी, शालपर्णी, पृश्निपर्णी एवं गोखरू- इस योग को लघुपंचमूल कहते हैं। यह विपाक एवं रस में मधुर, समशीतोष्ण तथा सभी दोषों का शामक है।। १६८ ।।

बलापुनर्नवैरण्डशूर्पपर्णीद्वयेन तु॥१६९॥
मध्यमं कफवातघ्नं नातिपित्तकरं सरम् ।

मध्यमपञ्चमूल के गुण-बला, पुनर्नवा, रेड़ की जड़, माषपर्णी और मुद्गपर्णी—इन पाँच द्रव्यों के योग का नाम 'मध्यमपञ्चमूल' है। यह कफ तथा वात दोष का नाशक तथा सर होता है। यह अधिक पित्तकारक नहीं होता है।।१६९ ।।

अभीरुवीराजीवन्तीजीवकर्षभकैः स्मृतम्।।१७०॥
जीवनाख्यं तु चक्षुष्यं वृष्यं पित्तानिलापहम् ।

जीवनपञ्चमूल के गुण-शतावरी, मेदा, जीवन्ती, जीवक और ऋषभक—इन पाँच द्रव्यों के योग का नाम 'जीवनपञ्चमूल' है। यह आँखों के लिए हितकर, वीर्यवर्धक, पित्तदोष तथा वातदोष का शमन करता है।। १७०॥

तृणाख्यं पित्तजिद्दर्भकासेक्षुशरशालिभिः॥१७१॥
इत्यौषधवर्गः।

तृणपञ्चमूल के गुण-दर्भ ( डाभ या कुश), कास (काँस ), ईख की जड़, शर ( सरपत ) और शालिधानों की जड़-इनके योग का नाम 'तृणपञ्चमूल' है। यह पित्तशामक होता है।। १७१ ।।

वक्तव्य—अष्टांगसंग्रह में दो पञ्चमूलों का संग्रह और मिलता है। यथा—वल्लीपञ्चमूल-मेढ़ासिंगी, हल्दी, विदारीकन्द, सारिवा तथा गिलोय। दूसरा है कण्टकपञ्चमूल—गोखरू, शतावरी, कटसरैया, अहींस तथा करौंदा। देखें-अ.सं.सू. १२।६१-६२ ।

शूकशिम्बीजपक्वान्नमांसशाकफलौषधैः।
वर्गितैरन्नलेशोऽयमुक्तो नित्योपयोगिकः॥१७२ ॥

इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थानेऽन्नस्वरूपविज्ञानीयो नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥

वक्तव्य- उपसंहारः-१. शूकधान्यवर्ग, २. शिम्बीधान्यवर्ग, ३. पक्वान्नवर्ग, ४. मांसवर्ग, ५. शाकवर्ग, ६. फलवर्ग और ७. औषधवर्ग—इस प्रकार के वर्गीकरण द्वारा आहारद्रव्यों का लेशमात्र (अत्यन्त उपयोगी द्रव्यों का) वर्णन यहाँ कर दिया गया है। १७२ ।।

-उक्त वर्गों के बीच-बीच में कुछ अन्य वर्गों का भी वर्णन इस अध्याय में हुआ है। यथा- ‘फलवर्ग' के अन्त में 'लवणवर्ग', इसके बाद ही 'हिंगु' का वर्णन संहिताकार ने किया है। प्राचीन निघण्टु- ग्रन्थों में द्रव्यों का वर्गीकरण स्वतन्त्र रूप से देखा जाता है।

इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में अन्नस्वरूपविज्ञानीय नामक छठा अध्याय समाप्त ॥ ६॥

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