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आचार्य श्रीराम शर्मा >> युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 2

युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 2

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15537
आईएसबीएन :0

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युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 1

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युगसृजन के निमित्त प्रतिभाओं को चुनौती


प्रस्तुत समय, जिससे हम गुजर रहे हैं-संधिकाल है। यह युगसंधि का समय, अवसर न चूकने जैसा है। आपत्तिकाल में लोग निजी व्यवसाय छोड़कर दुर्घटना से निपटने के लिए दौड़ पड़ते हैं। अग्निकांड, भूकंप, दुर्भिक्ष, महामारी, दुर्घटना जैसे अवसरों पर उदार सेवाभावना की परीक्षा होती है। भावनाशील इस अवसर पर चूकते नहीं। उपेक्षा करने वाले तिरष्कृत जैसे होते और सेवासाधना में जुट पड़ने वाले सदा-सर्वदा के लिए लोगों के मन पर अपनी प्रामाणिक महानता की गहरी छाप छोड़ते हैं, जो कालांतर में उन्हें अनेक माध्यमों से महत्त्वपूर्ण वरिष्ठता प्रदान कराती है।

इतिहास साक्षी है कि आपत्तिकाल में राजपूत घरानों से एक-एक सदस्य सेना में भरती होता था। सिख धर्म जिन दिनों चला था, तब भी उस विपन्न वेला में, उस प्रभाव क्षेत्र में आए हर परिवार ने अपने परिवार में से एक को 'सिख' सेना का सदस्य बनने के लिए प्रोत्साहित किया था। आज की वेला, तब की अपेक्षा कम विपन्न नहीं है। नवसृजन में संलग्न होने के लिए हर घर से एक प्रतिभा को आगे आना चाहिए और भारतभूमि की सतयुगी गरिमा को जीवंत रखने का श्रेय लेना चाहिए। इक्कीसवीं सदी में सतयुग की वापसी वाली संभावनाएँ सुस्पष्ट हैं। कुछेक चिह्न पहले से ही प्रकट हो रहे हैं। ऐसे व्यक्तित्व उभर रहे हैं, जो लोकनिर्वाह में कटौती करके अपनी भाव-संवेदनाएँ, आकांक्षाएँ एवं गतिविधियों को सृजन प्रयोजनों में समर्पित कर सकें, जिससे उनका समर्पण अंधकार में जलती मशाल की भूमिका निभाते हुए सबकी आँखों में चमक पैदा कर सके।

स्वर्ग-मुक्ति, दिव्य-दर्शन आदि के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है और निराश भी रहना पड़ सकता है? पर सत्प्रयोजनों के लिए प्रस्तुत किया गया आदर्शवादी साहस व्यक्तित्व को ऐसा प्रामाणिक, प्रखर एवं प्रतिभावान् बनाता है, जिसके उपार्जन को दैवी संपदा के रूप में आँका जा सके; जिस पर आज की भौतिक संपदाओं, सुविधाओं को निछावर किया जा सके। धनाढ्य और विद्वान् कुछ लोगों पर ही अपनी धाक जमा पाते हैं, पर महामानव स्तर की प्रतिभाएँ इतिहास को, समस्त मानव जाति को कृतकृत्य करती हैं।

प्रतिभाओं का प्रयोग जहाँ कहीं भी, जब कभी भी औचित्य की दिशा में हुआ है, वहाँ उन्हें हर प्रकार से सम्मानित-पुरस्कृत किया गया है। अच्छे नंबर लाने वाले छात्र पुरस्कार जीतते और छात्रवृत्ति के अधिकारी बनते हैं। सैनिकों में विशिष्टता प्रदर्शित करने वाले वीरता पदक पाते हैं। अधिकारियों की पदोन्नति होती है। लोकनायकों के अभिनंदन किए जाते हैं। संसार उन्हें महामानव का सम्मान देता है तथा भगवान् उन्हें हनुमान्, अर्जुन जैसा अपना सघन आत्मीय वरण करता है।

युगसृजन बड़ा काम है। उसका संबंध किसी व्यक्ति, क्षेत्र, देश से नहीं वरन् विश्वव्यापी समस्त मानवजाति के चिंतन, चरित्र और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन करने से है। पतनोन्मुख प्रवृत्तियाँ तो आँधी-तूफान की तरह गति पकड़ लेती हैं, पर उन्हें रोकना और तदुपरांत उत्कृष्टता की दिशा में उछाल देना असाधारण दुस्साहस भरा प्रयत्न है। कैंसर के मरीज को रोगमुक्त करना और नीरोग होने पर उसे पहलवान स्तर का समर्थ बनाना एक प्रकार से चमत्कारी कायाकल्प है। ऐसे उदाहरण सम्राट् अशोक स्तर के अपवाद स्वरूप ही दीख पड़ते हैं, पर जब यही क्रिया सार्वभौम बनानी हो तो कितनी दुरूह होगी, इसका अनुमान वे ही लगा सकते हैं, जिन्हें असंभव को संभव कर दिखाने का प्रण पूरा करना हो; जिन्हें करना कुछ न हो उनकी समीक्षा तो बाल-विनोद ही हो सकती है।

दुस्साहस पर प्रतिभाएँ उतरती हैं-विशेषतया जब वे सृजनात्मक हों। कटे हुए अंगों के घाव भरना, उनमें दूसरे प्रत्यारोपण जोड़कर पूर्व स्थिति में लाना मुश्किल सर्जरी का ही काम है। युग की समस्याओं को सुलझाने के लिए अनौचित्य को निरस्त करने और सृजन का अभिनव उद्यान खड़ा करने के लिए ऐसे व्यक्तित्व चाहिए जो परावलंबन की हीनता से, स्वार्थपरता की संकीर्णता से ऊँचे उठकर अपने को परिकृत करने के साथ-साथ वातावरण को संस्कार संपन्न बना सकने की उत्कंठा से अंतःकरण को भाव-संवेदनाओं से ओत-प्रोत कर सकें।

आत्मबल बढ़ाने के लिए उपासना को सब कुछ माना जाता है-और उसी के सहारे मनोकामनाओं की पूर्ति से लेकर स्वर्ग-मुक्ति तक देवताओं और भगवानों से अपनी मान्यताओं के अनुरूप छवि बनाकर दर्शन देने की अपेक्षा की जाती है। ऋद्धि-सिद्धियों की आशा भी कितने ही लोग लगाए रहते हैं और सफलता की कसौटी यह मानते हैं कि उन्हें चित्र-विचित्र, कौतुक-कौतूहल दृष्टिगोचर होते हैं। चमत्कार देखने और चमत्कार दिखाने तक ही उनकी सफलता सीमित रहती है, पर बात वस्तुतः ऐसी है नहीं। यदि आत्मशक्ति जागी तो उसका दर्शन आदर्शवादी प्रतिभा में ही अनुभव होगा। उसी में ध्वंस से निपटने और सृजन को चरितार्थ कर दिखाने की सामर्थ्य होती है। यही दैवी वरदान है। इसी को सिद्ध पुरुषों का अनुदान भी कह सकते हैं। यथार्थ खोजों-अन्वेषणों में भी यही तथ्य उभरकर आते हैं।

भगवान् शंकर ने परशुराम को काल कुठार थमाया था, उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार अनाचारियों से मुक्त कराया। सहस्रबाहु की अदम्य समझी जाने वाली शक्ति का दमन उसी के द्वारा संभव हुआ था। प्रजापति ने दधीचि की अस्थियाँ माँगकर इंद्र को वज्रोपम प्रतिभा प्रदान की थी, जिससे वृत्रासुर जैसे अजेय दानव से निपटा जा सका। अर्जुन को गांडीव देवताओं से मिला था। क्षत्रपति शिवाजी की भवानी तलवार देवी द्वारा प्रदान की गई बताई जाती है। वस्तुतः यह किन्हीं अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख नहीं है, वरन् उस समर्थता का उल्लेख है, जो लाठियों या ढेलों से भी अनीति को परास्त कर सकती है। गाँधी के सत्याग्रह में उसी स्तर के अनुयायियों की आवश्यकता पड़ी थी।

ऋद्धियों-सिद्धियों द्वारा किसी को न तो बाजीगर बनाया जाता है और न कौतुक दिखाकर मनोरंजन किया जाता है। विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को यज्ञ के बहाने अपने आश्रम में ले गए थे। वहाँ उन्हें बला-अतिबला विद्या प्रदान की थी। उनके सहारे वे शिव धनुष तोड़ने, सीता स्वयंवर जीतने, लंका की असुरता मिटाने और रामराज्य के रूप में सतयुग की वापसी संभव कर दिखाने में समर्थ हुए थे। विश्वामित्र ने ही अपने एक दूसरे शिष्य हरिश्चंद्र को ऐसा कीर्तिमान स्थापित करने का साहस प्रदान किया था, जिसके आधार पर वे तत्कालीन युगसृजन योजना को सफल बनाने में समर्थ हुए थे। साथ ही साथ हरिश्चंद्र के यश को भी उस स्तर तक पहुँचा सके थे, जिसकी सुगंध पर मोहित होकर देवता भी आरती उतारने धरती पर आए।

चाणक्य ने चंद्रगुप्त को कोई गढ़ा खजाना खोदकर नहीं थमाया था, वरन् ऐसा संकल्पबल उपलब्ध कराया था जिसके सहारे आक्रमणकारियों का मुँह तोड़कर चक्रवर्ती कहला सके थे। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी के हौंसले इतने बुलंद किए थे कि वे अजेय समझे जाने वाले शासन को नाकों चने चबवाते रहे। छत्रसाल ने सिद्धपुरुष प्राणनाथ महाप्रभु से ही वह प्राण दीक्षा प्राप्त की थी, जिसके सहारे वे हर दृष्टि से राजर्षि कहला सके।

देवताओं ने सिद्धार्थ को राजकुमार न रहकर धर्म-चक्र-प्रवर्तन में संलग्न होने का परामर्श दिया था। सिद्ध पुरुष माने जाने वाले गोरखनाथ, मल्मेंद्र नाथ के तप-वैभव के अधिकारी बने थे। रामानंद ने, कबीर को स्वर्ण खान कहीं नहीं सौंपी थी? वरन् वह प्रतिभा प्रदान की थी जिसके कारण कुलीनता और विद्वत्ता के अभाव में भी अपने समय के प्रचंड प्रवर्तक के रूप में प्रख्यात् हुए। भगवान् के भक्तों में सर्वोपयोगी नारद माने जाते हैं। उन्हें वह ललक मिली थी कि जन-जन में भाव-संवेदना का बीजारोपण करते हुए अनवरत रूप से संलग्न रह सकें। पवन ने अपने पुत्र हनुमान् को वह वर्चस् प्रदान किया था कि रामचरित्र में मेरुदंड जैसी भूमिका का निर्वाह कर सके।

गाँधी ने अपने प्रिय पात्र बिनोवा को महान् प्रयोजनों के लिए मर मिटने की भाव-संवेदना प्रदान की थी। उनके संपर्क में आने वाले अन्य लोगों ने भी जुझारू प्रतिभा पाई और अपने चरित्र तथा कर्तृत्त्व से जनमानस पर गहरी छाप छोड़ने में सफल हो सके।

संत यादवेंद्र पुरी ने अपने शिष्य चैतन्य को जनजागरण के कर्मक्षेत्र में उतारा था। विरजानंद ने दयानंद को ऐसा ही पुरुषार्थ प्रकट करने के लिए उद्यत किया था। रामकृष्ण परमहंस द्वारा विवेकानंद को जिस मार्ग पर चलाया गया, वह लोकमंगल के लिए समर्पित होकर, स्वयं संकल्पवान् नर-रत्न की तरह चमकने और मूर्च्छित संस्कृति में प्राण चेतना फूँकने वाला राजमार्ग ही था।

महर्षि अगस्त्य ने भगीरथ को राज-पाट छोड़कर गंगावतरण के महाप्रयास में संलग्न होने के लिए नियोजित किया था। लक्ष्य इतना उच्चस्तरीय था कि उनकी सफलता में योगदान देने के लिए स्वयं शंकर जी को कैलाश छोडकर आना पड़ा था। योगी भर्तृहरि ने अपने भाई विक्रमादित्य को आदर्श शासक और भाँजे गोपीचंद को तत्त्वदर्शन के अवगाहन में संलग्न किया था। इससे अधिक और कुछ कोई अपने स्वजन संबंधियों को दे ही क्या सकता है?

सम्राट् अशोक ने जो प्रेरणा पाई थी उसी को अपनाने के लिए अपने सुपुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को परिव्राजक के रूप में धर्मप्रचार के लिए समर्पित कर दिया था। स्वयं बुद्ध भी तो अपने पुत्र राहुल को इसी स्तर की दीक्षा दे चुके थे। बुद्ध परंपरा में आम्बपाली से लेकर कुमारजीव तक ऐसे अनेकों प्रतिभाशाली हुए जो भौतिक सुख भोगों से कोसों दूर रहकर धर्म प्रयोजनों में ही लगे रहते थे। मध्यपूर्व को भारतीय संस्कृति की छत्रछाया में लाने का श्रेय महाभाग कौंडिन्य को जाता है, जिन्होंने उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जीवन भर प्रयास जारी रखा।

उन पुराण ग्रंथियों की गली-कुचों में भरमार है, जिन्होंने वैभव बढ़ाने, सुविधा भोगने, दर्प दिखाने और औलाद के लिए भरे खजाने छोड़कर मरने जैसी सफलताएँ अर्जित कीं। श्रम संभवतः उन्हें भी महापुरुषों से कम न करना पड़ा होगा, पर संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि से ऊँचे न उठने के कारण सुरदुर्लभ जीवन संपदा के व्यर्थ नियोजन पर पश्चाताप करते ही मरे होंगे। इसके विपरीत महर्षि कर्वे, हीरालाल शास्त्री, बाबासाहब आप्टे, महामना मालवीय जी, भामाशाह, स्वामी श्रद्धानंद, अहिल्या बाई, सुभाषचंद्र बोस जैसी विभूतियों को प्रातः स्मरणीय समझा जाता है, जिन्होंने स्वयं तो रोटी कपड़े पर निर्वाह किया, पर अपने समूचे वर्चस् को परमार्थ प्रयोजनों के लिए नियोजित कर दिया। विदेशी प्रतिभाओं में जापान के गाँधी कागावा, बेडेन पॉवेल, रूस के मार्क्स, लेनिन आदि को संसार के इतिहास में जगमगाते हीरकों की तरह आँका जाता है। वस्तुतः प्रतिभाएँ संसार के हर क्षेत्र में मौजूद हैं। धनाढ्यों, शासनाध्यक्षों, कलाकारों, व्यवसायियों, वैज्ञानिकों और मनीषियों को अपने-अपने ढंग से काम करते हुए देखा जा सकता है। उन्हें जो भी उत्तरदायित्व मिला, उसे उनकी प्रखरता और प्रचंडता ने आश्चर्यजनक सफलता के साथ संपन्न किया है। इन वर्गों को युगचेतना अछूता नहीं छोड़ेगी, उन्हें झकझोरने और समय के अनुरूप बदलने के लिए बाधित करेगी। अब तक वे भले ही स्वार्थपरता और प्रमाद को प्रोत्साहित करते रहे हों; पर आगे उन्हें अपनी क्षमता को मोड़ना-मरोड़ना और सृजन प्रयोजनों के लिए नियोजित करना ही होगा।

तूफानों, भूकंपों, विस्फोटों, आंदोलनों का उद्गम कहीं भी क्यों न रहा हो, जब वे गति पकड़ते हैं, तो व्यापक बनते चले जाते हैं। राजक्रांतियों का सिलसिला इसी प्रकार चला था और असंख्यों राजखट अनायास ही धराशायी होते चले गए। सृजन की भी अपनी लहर है। कभी सतयुग में ऐसा ही प्रभावोत्पादक मानसून उठा होगा, उसने धरती पर मखमली फर्श बिछाते हुए स्वर्ग जैसा वातावरण विनिर्मित कर दिया होगा।

रात्रि की तमिस्रा सदा नहीं रहती। दिन को भी प्रकट होने का अवसर मिलता है। तब छोटे पक्षी ही नहीं, गजराज भी अपनी चिंघाड़ और वनराज अपनी दहाड़ से दिशाओं को गुंजित करते दिखाई देते हैं। ऐसा ही सुयोग इन दिनों आ रहा है, यह आशा सबको रखनी चाहिए।

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    अनुक्रम

  1. प्राणवान् प्रतिभाओं की खोज
  2. विशिष्टता का नए सिरे से उभार
  3. प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धांत
  4. युगसृजन के निमित्त प्रतिभाओं को चुनौती
  5. प्रतिभा संवर्धन का मूल्य भी चुकाया जाए
  6. प्रतिभा के बीजांकुर हर किसी में विद्यमान हैं
  7. बड़े कामों के लिए वरिष्ठ प्रतिभाएँ
  8. उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

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