आचार्य श्रीराम शर्मा >> व्यक्तित्व परिष्कार की साधना व्यक्तित्व परिष्कार की साधनाश्रीराम शर्मा आचार्य
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नौ दिवसीय साधना सत्रों का दर्शन दिग्दर्शन एवं मार्गदर्शन
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जप और ध्यान
नौ दिवसीय साधना सत्रों में साधकों से गायत्री महामंत्र के २४००० जप सहित साधना-अनुष्ठान कराया जाता है। गायत्री महामंत्र का प्रभाव उच्चारण तथा भाव-चिन्तन दोनो ही प्रकार से होता है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्था थियोसोफिकल सोसायटी (ब्रह्मविद्या समाज) के दिव्य दृष्टि सम्पन्न साधक-पादरी लैडविटर ने गायत्री महामंत्र के प्रभाव की समीक्षा अपनी दृष्टि के आधार पर की थी। उनका कथन है कि यह अत्यधिक शक्तिशाली मंत्र है। प्रकृति की दिव्य सत्ताएँ इसके भाव-कम्पनों से तत्काल प्रभावित होती हैं। किसी भी भाषा में इसका अनुवाद करके प्रयोग किया जाय, उसकी प्रतिक्रिया समान रूप से होती है। संस्कृत में उच्चारण करने से उसके साथ एक विशेष लयबद्ध कलात्मकता भी जुड़ जाती है।
उक्त कथन ऋषियों की इस बात का ही समर्थन करता है कि गायत्री महामंत्र असाधारण है तथा उच्चारण एवं भाव-चिन्तन दोनों ही विधाओं से लाभ पहुंचाता है। इसीलिए गायत्री मंत्र के जरा के साथ-साथ गहन भाव संवेदनायुक्त ध्यान करने का निर्देश पूज्यवर ने दिया है।
जप के लिए उपयुक्त वातावरण में बैठकर षट्कर्म आदि द्वारा अपना मानस स्थिर-जागृत करके जप प्रारम्भ करना चाहिए। गायत्री का देवता सविता है अर्थात् वह चेतन धारा, जो सूर्य को सक्रिय बनाये है। भावना करें कि जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश चर-अचर प्रकृति को चारों ओर से घेर लेता है, उसी प्रकार हमारे आवाहन पर इष्ट की चेतना का दिव्य प्रवाह हम घेरे है। जल में मछली-वायु में पंछी की तरह, हम उसी के गर्भ में हैं। इष्ट हम गोद में-गर्भ में लेकर स्नेह और शक्ति का संचार कर रहा है। हम जप द्वारा उस दिव्य प्रवाह को अपने शरीर-मन-अन्तःकरण के कण-कण में समाहित कर रहे है।
इस प्रकार जप करते हुए दिव्य स्नेह, दिव्य पुलकन जैसी अनुभूति होती है। अपने में इष्ट के समाहित होने, इष्ट में स्वयं के घुलने-एकाकार होने जैसा अनुभव होता है। इस प्रकार तन्मयतापूर्वक जप करने में आनन्द और उपयोगिता दोनों है। इससे उत्पन्न परिप्रेषण क्रिया से अपने भीतर प्राणों का संचार होता है, त्वचा कोमल होती है, आँखों की चमक बढ़ती है। ध्यान जितना एकाग्र होगा, अपने भीतर सविता के प्राण की उतनी ही अधिक मात्रा उड़ेली तना सकती है। चिन्ह-पूजा से लाभ भी चिह्न जैसा ही मिलता है।
दिनचर्या में जप पूरा करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। सबेरे, दोपहर, शाम तीनों समय में सुविधानुसार नित्य की निर्धारित जप संख्या पूरी कर लेनी चाहिए। हर बैठक समाप्त होने पर, पास रखे पात्र का जल लेकर सूर्य को अर्ध्य अर्पित करना चाहिए। भावना करनी चाहिए कि जिस प्रकार पात्र का जल सूर्य को अर्पित होकर विशाल क्षेत्र में भाप बनकर फैल जाता है, उसी प्रकार हमारी भावनाएं-शक्तियों भी समर्पित होकर सीमित से व्यापक हो रही हैं।
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