आचार्य श्रीराम शर्मा >> व्यक्तित्व परिष्कार की साधना व्यक्तित्व परिष्कार की साधनाश्रीराम शर्मा आचार्य
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नौ दिवसीय साधना सत्रों का दर्शन दिग्दर्शन एवं मार्गदर्शन
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गायत्री उपासना का विधि-विधान
गायत्री उपासना तो कभी भी किसी भी स्थति में की जा सकती है। हर स्थिति में यह लाभदायी है परन्तु विधिपूर्वक, भावना जुड़े, न्यूनतम कर्मकाण्डों के साथ की गयी उपासना अतिफलदायी मानी गयी है। तीन माला गायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है। शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन से बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहिए।
उपासना का विधि-विधान इस प्रकार है-
ब्रह्म संध्या-
जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है, इसके अन्तर्गत पाँच कृत्य करने पड़ते हैं।
(अ) पवित्रीकरण- बांयें हाथ में जल लेकर, उसे दाहिने हाथ से ढक लें एवं मंत्रोच्चारण के साथ जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें।
ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा।
य: स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः, पुनातु पुण्डरीकाक्ष:, पुनातु।
(ब) आचमन- तीन बार वाणी, मन व अन्तःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से जल का आचमन करें। हर मंत्र के साथ एक आचमन जल पिया जाय!
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।।१।।
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।।२।।
ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि श्री: श्रयतां स्वाहा।।३।।
(स) शिखा स्पर्श एवं वंदन- शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुये भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे। निम्न मंत्र का उच्चारण करें-
चिद्रूपिणि महामाये दिव्यतेज: समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे।।
(द) प्राणायाम- श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के कृत्य में आता है। सांस खींचने के साथ भावना करें कि प्राणशक्ति और श्रेष्ठता सांस के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण-दुष्वृत्तियाँ-बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के बाद किया जाय- ॐ भूः ॐ भुव: ॐ स्व: ॐ मह ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्व: ॐ।।
न्यास- इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंत: की चेतना को जगाना; ताकि देवपूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बायें हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उंगलियों को उसमें भिगोकर बताए गए स्थान का मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें।
ॐ वाङ् मे आस्येऽस्तु। (मुख को)
ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को)
ॐ अक्ष्णोर्मेचक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को)
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों बांहों को)
ॐ उर्वोर्मेओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को)
ॐ अरिष्टानि मेंगानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (पूरे शरीर को)
आत्मशोधन की ब्रह्म संध्या के उपर्युक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि साधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो। पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं।
देवपूजन- गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतभंरा गायत्री हैं। उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के माध्यम से आवाहन करें। भावना करें कि साधक की भावना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है।
ॐ आयातु वरदे देवि अक्षरे ब्रह्मवादिनि।
गायत्रिच्छन्दसां मात: ब्रह्मयोनेनमोऽस्तु ते।।
ॐ गायत्र्यै नम:। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। ततो नमस्कारं करोमि।
गुरु, परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरु के रूप में प० पू० गुरुदेव एवं वंदनीया माता जी का अभिनंदन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु-आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें।
ॐ अखण्डमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।
ॐ श्रीगुरवे नम:। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
माँ गायत्री व गुरुसत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापन हेतु पंचोपचार पूजन किया जाता है। इन्हें विधिवत् संपन्न करे। जल, अक्षत, पुष्प धूप-दीप तथा नैवैद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चले। जल से नम्रता-सहृदयता, अक्षत से समयदान-अंशदान, पुष्प से आंतरिक उल्लास, धूप-दीप से सुगंध एवं प्रकाश, पुष्प-परमार्थ तथा नैवेद्य से मधुरता-शालीनता का बोध होता है।
ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्यवृत्तियों से संपन्न करने के लिए किये जाते हैं। कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्वपूर्ण है।
जप-गायत्री मंत्र का न्यूनतम ३ माला अर्थात् घड़ी से प्राय: १५ मि नियमित रूप से जप किया जाय। अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम। होंठ, कण्ठ, मुख हिलाते रहें या आवाज इतनी मन्द हो कि दूसरे उच्चारण को सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए पूरी की जाती है।
"ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।" इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि निरन्तर हम पवित्र हो रहे हैं दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है।
ध्यान- जप तो अंग-अवयव करते हैं मन को ध्यान में नियोजित करना होता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रातःकालीन स्वर्णिम किरणों के शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की मान्यता परिपक्व की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता परिष्कृत विकसित होती है।
सूर्यार्घ्यदान- विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्यरूप में निम मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है।
ॐ सूर्यदेव सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यम् दिवाकरः।।
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः।
भावना यह करें कि जल आत्मसत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित विसर्जित हो रही है।
इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर विदाई के लिए करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाय। जप के लिए माला तुलसी या चन्दन की होनी चाहिये। माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें। सूर्योदय से दो घंटे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है। मौन मानसिक जप चौबीस घंटे किया जा सकता है।
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